अरुण शौरी साहब को आज कल क्या हो गया है

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, बुधवार – २१ नवंबर २०१८)

मनुष्य के विचारों में सहज और स्वाभाविक रूप से फेरफार होता है तो उसे `परिवर्तन’ कहा जाता है और मनुष्य अपने किसी स्वार्थ, किसी वेस्टेड इंटरेस्ट के कारण विचारों में बदलाव करता है तो उसे `अवसरवाद’ कहते हैं.

लोग कहते हैं कि शत्रुघ्न सिन्हा और यशवंत सिन्हा एंड कंपनी के कारण अरुण शौरी जैसा प्रामाणिक और निष्ठावान पत्रकार `बिगड गया’ है. शत्रुजी और यशवंतजी दोनों ही वाजपेयीजी के जमाने से भाजपा में और हिंदुत्व के प्रचारक रहे हैं. इन दोनों ने अपने अपने स्वार्थ को आगे रखकर अपनी हैसियत से ज्यादा पाने की कोशिश की और छब्बे बनने के चक्कर में दुबे बनकर दोनों ही मोदी की नजर से उतर गए, भाजपा ने उन्हें उचित तरीके से हाशिए पर डाल दिया.

अरुण शौरी जैसा विद्वान, लगनशील और प्रमाणिक पत्रकार आपको सारे देश में कहीं देखने को नहीं मिलेगा. हम लोग तो उनके पैरों की धूल बराबर भी नहीं है, इतना बडा काम वे कर चुके हैं. उनकी `सेकुलर अजेंडा’ पुस्तक लीजिए या फिर मिशनरियों से जुडी, फतवों से जडी, साम्यवादी इतिहासकारों से जुडी , सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से जुडी पुस्तक लें- प्रत्येक पुस्तक को आप असली हीरों के सामने अगर तौलें तो भी उस पुस्तक का मूल्य ऊँचा ही होगा. वाजपेयी सरकार के दौरान उन्होंने डिसइनवेस्टमेंट मिनिस्टर के रूप में शानदार काम किया था. लेकिन उस दौरान, २००३ के आसपास वाजपेयी जब इस दुविधा में थे कि मोदी को गुजरात में सीएम के रूप में जारी रखें या नहीं तब शौरी मोदी को हटाने के पक्ष में थे, कारण चाहे जो रहा हो. लेकिन शौरी स्पष्ट रूप से यह मानते थे कि मोदी को गुजरात के सीएम के नाते जारी रखने से भाजपा को नुकसान होगा. शौरी की राय से उस समय या आज भी हम सहमत नहीं हैं. लेकिन शौरी का स्वतंत्र मत हो सकता है और यह मत उन्हें योग्य व्यक्तियों के सामने प्रकट करने का अधिकार है.

शौरी के उस समय की इस राय के बारे में यदि हम जैसे कॉमन मैन को भी जानकारी है तो फिर मोदी के पास तो उनके अपने भरोसे के सोर्सेस तो होंगे ही. उन्हें पक्का पता होगा कि शौरी चाहे जितने प्रमाणिक हों पर निष्ठावान नहीं हैं, और अपने राजनीतिम भविष्य के लिए जोखिमकारक हैं.

ऑनेस्टी और इंटीग्रिटी – इन दोनों विशेषणों द्वारा जो व्यक्त होता है वे दोनों ही गुण अगर व्यक्ति में एक साथ हों तो ही उसका मूल्य है. प्रमाणिकता और निष्ठा. इस निष्ठा में वफादारी का गुण भी आ जाता है. निष्ठा में खुद जिन सिद्धांतों, जिन मूल्यों, जिन नीतियों में विश्वास है उन पर अडिगता से डटे रहने की जिद भी शामिल है. यही वफादारी है. व्यक्ति के प्रति वफादारी की बात नहीं है. मूल्यों, सिद्धांतों के प्रति वफादारी यानी निष्ठा.

मनुष्य इस तरह से वफादार हो लेकिन प्रमाणिक न हो तो उसकी निष्ठा कभी भी खतरे में पड सकती है. प्रमाणिकता केवल धन के बारे में ही नहीं होती. व्यवहार, चरित्र और आचरण के बारे में प्रामाणिक होना भी उतना ही जरूरी है जितना कि आर्थिक मामलों में होना अनिवार्य है.

निष्ठावान मनुष्य अप्रमाणिक हो तो वह किसी काम का नहीं है. उसी प्रकार से मनुष्य प्रामाणिक हो लेकिन निष्ठावान न हो तो वह किसी काम का नहीं है. अरुण शौरी प्रमाणिक थे, हैं और रहेंगे लेकिन अब वे निष्ठावान नहीं रहे. वे जिन सिद्धांतों की खातिर लडे, जिन बुरे लोगों के सामने संघर्ष किया उसके पीछे उनका कोई निजी स्वार्थ नहीं था. वे मूल्यों के लिए लडे, भारत की परंपरा को खंडित करनेवाले परिबलों के खिलाफ लडे. आज की तारीख में वे जिन सेकुलरों के साथ घुलमिल रह हैं, उनके द्वारा आयोजित फंक्शन्स, व्याख्यानों में जाकर जो फेंकमफेंक कर रहे हैं उसके कारण उन मोदी विरोधी तत्वों को बैठने के लिए आधार मिल रहा है. मोदी जिन मूल्यों में विश्वास करते हैं उसकी तुलना में ये सेकुलर लोग बिलकुल विपरीत नैतिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं. मोदी देश को एक करना चाहते हैं, जब कि सेकुलर तथा साम्यवादी लोग हिंदू-मुस्लिम, दलित-सवर्णों, शोषक-शोषित के बीच खाई पैदा करके देश को बांटना चाहते हैं, इस बात को भी हम पिछले सात दशकों से देख रहे हैं.

मोदी ने शौरी में अपना विरोधी देखा, सच कहें तो शत्रु देखा. मोदी ने शौरी की उपेक्षा की. और यह वाजिब तरीके से किया. यदि आप प्रामाणिक रहें लेकिन निष्ठावान न हों तो आपका और मेरा लक्ष्य एक नहीं होगा. मैं जिस लक्ष्य को सिद्ध करना चाहता हूं, अगर आप उस लक्ष्य की ओर ध्यान नहीं देते हैं तो इसका अर्थ है कि आप मुझे डिस्ट्रैक्ट करने की कोशिश करनेवाले हैं, इसीलिए मैं आपको खुद से दूर रखूंगा. ऐसे ही किसी भाव से मोदी ने शौरी को दूर रखा. ऐसी स्थिति में शौरी को समझ-बूझ कर दो कदम पीछे हटकर खुद जो स्कॉलरली काम करते रहे हैं वह काम चालू रखना चाहिए था, अधिक पुस्तकें लिखने में ओतप्रोत होना चाहिए था, शत्रु-यशवंत सिन्हा के साथ मिलकर बेसिरपैर के व्याख्यान नहीं देने चाहिए.

विचारों में अवसरवादी यूटर्न लेने वाले अनेक लोगों को देखा है. १९९२ में बाबरी ढांचा टूटने के बाद सेकुलरों की गोद में बैठकर हिंदुत्व को बडी बडी बातें सुनाने वालों से लेकर २००२ के गोधरा हिंदू हत्याकांड के बाद मोदी के नाम पर नियोजित पद्धति से थूकनेवाले गुजराती, हिंदी तथा अन्य भाषी पत्रकारों, राजनीकि विश्लेषकों, साहित्यकारों, लेखकों, व्यंग्यकारों ने मोदी के सशक्त होते देखकर क्रमश: जिस तरह से यूटर्न लेना शुरू किया, उसका सारा इतिहास मेरे पास है. २०१४ में उनका यूटर्न पूरा हो गया. २००२ में मोदी पर ठीकरे फोडे जा रहे थे तब उनके साथ संघ में काम कर चुके उनके मित्र भी उनके खिलाफ खुलकर लिखने-बोलने लगे थे और मोदी के पक्ष में एक शब्द भी बोलनेवाले को वे मसल देने के लिए तत्पर हो गए थे. यह मेरा खुद का अनुभव है. आज मोदी के वही `मित्र’ फिर से मोदी, मोदी के नारे लगाकर सरकारी मानसम्मान पाने में लगे हुए हैं.

क्या हम ऐसे लोगों को दोमुहां कहेंगे‍? नहीं. वे तीन मुंह वाले, चार मुंह, पांच मुंह वाले, मल्टी मुंह वाले होते हैं. एक दो नहीं अनेक चेहरे पहने हुए लोगों के लिए साहिर लुधियानवी ने १९७३ में लिखा था: एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग, जब भी जी चाहे नई दुनिया बसा लेते हैं लोग…

शौरीजी ने उल्टी दिशा में यूटर्न लिया है. वे पहले जिन सेकुलरिस्टों को धिक्कारते थे, अब उन्हीं की गोद में जा बैठे हैं. शौरीजी के दोमुंहे व्यक्तित्व को तो हम पहचान चुके हैं. २०१९ का चुनाव करीब आने पर हमें उनके मल्टी मुंह वाले व्यक्तित्व का परिचय होता जाएगा.

महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने पितामह भीष्म को मारने के लिए उनकी छाती पर तीर चलाने से पहले एक तीर उनके चरणों के पास छोडा था- उन्हें प्रणाम करने के लिए. यह लेख लिखने से पहले मैने भी मन ही मन कुछ ऐसा ही किया था.

आज का विचार

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ

एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ

तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ

– दुष्यंत कुमार

एक मिनट!

बका की पत्नी: मैं इसे ७ साल से पहन रही हूं और अब भी वही फिटिंग है और आप कहते हैं कि मैं मोटी हो गई हूं!

बका: भगवान से डर, ये शॉल है.

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