स्वांत: सुखाय की जिम्मेदारी और छटकने का बहाना

संडे मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, रविवार – १० फरवरी २०१९)

ऐसा कहा जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने रामायण को अपनी शैली में व्याख्यायित करके अपने विशिष्ट अंदाज में ढाला. उसके बाद लोग आकर उन्हें सलाह और सुझाव देने लगे: बाब, इसमें ये रहा गया, फलां बात रह गई. यदि आपने इस बात को ऐसे न करके वैसे प्रस्तुत की होती तो अधिक सुंदर परिणाम मिलता. फलाना प्रसंग अधूरा लग रहा है.

सबकी बात सुन लेने के बाद गोस्वामीजी कहते हैं: रामचरितमानस की रचना मैने आप सभी की टीका-टिप्पणी के लिए नहीं की है, मैने तो अपने आनंद के लिए उसका सृजन किया है. आपको उसमें जो भी अच्छा लगे, वह आपका है, बाकी सब छोड दीजिए.

तुलसी कहते हैं: स्वांत: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा.

स्वांत: सुखाय अत्यंत उच्च स्तरीय शब्द है. आप इसे स्व का आंनद कह सकते हैं. लेकिन यह शब्द समूह कोई छटक कर निकलने का मार्ग नहीं है, जिम्मेदारी है. अपनी रचना को, अपने काम को दूसरों से मान्यता मिले या न मिले, उसकी चिंता जिसे नहीं होती है वही `स्वांत:सुखाय’ या `निजानंद’ जैसे शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं. बैठे बैठे मक्खी मारनेवाला आदमी ऐसा नहीं कह सकता है कि ये आचरण मैं स्वांत: सुखाय कर रहा हूं. जो जिम्मेदारीपूर्वक काम करता है और जिसे इस बात की तनिक भी चिंता नहीं होती है कि उसके काम की आलोचना होगी या प्रशंसा, लोकमान्यता प्राप्त होगी या नहीं इसीलिए तुलसीदासजी रामचरितमानस के पहले सोपान (बालकांड) के आरंभ में जो सात श्लोक संस्कृत में रचे हैं, उसके सातवें श्लोक में लिखा है:

नानापुराणनिगमागम सम्मतं यद्‌

रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोपि

स्वांत: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा

भाषानिबंधमति मंजुलमातनोति

उन सभी वेद-पुराण तथा शास्त्रों को मैं, तुलसी, प्रणाम करता हूँ जिसका वर्णन रामायण में है या जो अन्यत्र उपलब्ध है, और उसका मनोहर भाषा में स्वांत: सुखाय विस्तार कर रहा हूँ.

स्वांत: सुखाय शब्दों का उपयोग आप तुलसी के स्तर की रचना कर रहे हों या उस स्तर का सृजन करना चाहते हों तभी कर सकते हैं. जब वैसी निष्ठा, वैसी तपस्या होती है तभी हो सकता है.

कविता के बारे में कोई समझ न हो, उत्तम कविताओं का रसपान न किया हो, ऐसा कोई भी व्यक्ति दो तुकबंदियां लिख कर दिखाता है और कहता है कि कविता करना तो मेरे लिए स्वांत: सुखाय गतिविधि है, मैं तो अपने आनंद के लिए कविता करता हूँ, तो ये समझ लेना चाहिए कि वह इन शब्दों की खिडकी का उपयोग छटककर निकलने के लिए कर रहा है. कोई प्रतिष्ठित कवि यदि ऐसा कहता है कि मैं तो स्वांत: सुखाय कविताओं की रचनाएं करता हूं, अपने आनंद के लिए लिखता हूं तो उसने जिम्मेदारी से इन शब्दों का प्रयोग किया है, ऐसा कहा जा सकता है.

आप पानीपुरी बनाने में माहिर हैं लेकिन किसी को आपके हाथ का बना पानी पसंद नहीं आता है, तीखा लगता है, तो आप कह सकते हैं कि भई, पसंद आए तो खाइए, वर्ना किचन में जो कुछ भी पडा है उसे खाइए, क्योंकि मैं तो अपने आनंद के लिए पानीपुरी का पानी बनाता हूं, आपके स्वाद के अनुसार अगर वह नहीं है तो आपकी इच्छा. लेकिन इसके कारण मैं अपनी रेसिपी में फेरबदल नहीं करनेवाला. स्वांत: सुखाय या निजानंद के लिए की जानेवाली प्रवृत्ति के लिए आप ऐसा कह सकते हैं.

लेकिन यदि मुझे दालढोकला बनाने ही नहीं आता है और मैं किसी प्रकार से कच्चा पक्का बनाकर आपको परोस दूं और कहूं कि ये तो मैने स्वांत: सुखाय बनाया है, अपने आनंद के लिए बनाया है, तो ये गलत बात है.

जिनके पास कोई काम नहीं है, बेकार है, ऐसा व्यक्ति समुद्र किनारे लेटकर यदि कहे कि मैं अपने आनंद में रहता हूं तो ये उसके बच निकलने का बहाना है. बिल गेट्स या मुकेश अंबानी उसकी जगह पर हों तो कह सकते हैं कि ये मेरे निजानंद की प्रवृत्ति है.

अंगूर खट्टे होने वाली प्रवृत्ति बहानेबाजी है. जिससे कोई पहचान आपको नहीं मिलनेवाली है, ऐसी प्रवृत्ति के लिए आप स्वांत: सुखाय शब्दों का उपयोग नहीं कर सकते. मान्यता मिले या न मिले, आपको उसकी परवाह यदि नहीं है और यदि आप मान्यता प्राप्त करने की दृष्टि से अपने काम में बदलाव नहीं करते हैं तब आप कह सकते हैं कि मेरी ये प्रवृत्ति स्वांत: सुखाय है, निजानंद के लिए है.

दूसरों को खुश करने के चक्कर में आप कब लोगों के इशारे पर नाचने लगते हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता. हिंदी में ऐसी प्रवृत्ति के लिए एक शब्द है- फरमाइशी. किसी की फरमाइश पर, किसी से तालियां पाने के लिए, किसी को खुद पर मेहरबान होने के इरादे से जो प्रवृत्तियां होती हैं, उनसे मिलनेवाली पहचान क्षण भंगुर होती है. स्वांत: सुखाय से होनेवाली प्रवृत्तियों का फल अमर होता है, रामचरितमानस की तरह शताब्दियों तक जीवित रहती हैं, तरोताजा रहती हैं.

आज का विचार

उन्होंने जरा मुस्कुरा क्या दिया

मन खुद ही खुद बिछता जाता हो जैसे

सांसों को देह में कुछ ऐसे नचाया

बंदर को मदारी नचाता हो जैसे

कभी खड्ग तलवार होती है कुंद

कभी शब्द सरल से दुधारी हों जैसे

फिर वो नदी की तरह दूर चल दी

मैं फिर रह गया हूं किनारे पर जैसे

– वैभव जोशी

संडे ह्यूमर

बॉस: वैलेंटाइन वीक शरू हो गया है, बका. `हाउ’ इज द जोश!

बका: मैरीड हूं, सर!

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