अच्छाई की बुराई नहीं करनी लेकिन

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, शुक्रवार – १६ नवंबर २०१८)

फिल्म के आखिरी सीन की आखिरी लाइनें कुछ ही सेंकड में बोलनी हैं. काशीनाथ घाणेकर जैसे सुपरस्टार को अज्ञातवास से बाहर लाने के लिए उनके मसीहा समान मित्र प्रभाकर पणशीकर ने लेखक वसंत कानेटकर के सुपरहिट नाटक `अश्रुची झाली फुले’ को रिवाइव करने का निश्चय किया है जिसमें प्रिंसिपल प्रो. विद्यानंद का लीड रोल पणशीकर कर रहे हैं और सेकंड लीड रोल काशीनाथ घाणेकर का है. शो अमरावती में होने जा रहा है. मूसलाधार बारिश शुरू हो चुकी है. काशीनाथ अभी थिएटर पर नहीं पहुंचे हैं. शो का समय चुका है. अमरावती की होटल के कमरे में काशीनाथ तैयार होकर आखिरी क्षण में संवाद याद कर रहे हैं…`एकदम केडेक्क’ और `उसमें क्या है’ जब अपने अनूठे अंदाज में बोलेंगे तब अमरावती की जानदार ऑडिएन्स तालियों की गूंज के साथ उनकी सराहना करेगी, ऐसा आत्मविश्वास के साथ काशीनाथ आईने में देखकर अपनी अदाओं को निहार रहे हैं वहीं पर….

वहीं छाती के बाएँ हिस्से में भयानक भूकंप का एहसास होता है. कुछ पल के लिए तडप. स्तब्धता. १९८६ के मार्च महीने का दूसरा दिन था वह. १४ सितंबर १९३० के दिन जन्मे काशीनाथ घाणेकर के ५६ वर्ष की आयु का वह अंतिम दिन था. थिएटर से संदेश आते ही होटल का नौकर काशीनाथ के कमरे का दरवाजा खटखटाता रहता है. दरवाजा टूट जाए इतनी जोर से झकझोरता है लेकिन अंदर से कोई जवाब नहीं मिलता. दूसरा नौकर आकर उससे पूछता है: काशीनाथ घाणेकर का कमरा है ना? वो तो पीकर अंदर बेहोश पडा होगा. पहले भी कई बार ऐसा हुआ है और मैने दरवाजा तोडकर उन्हें बाहर निकाला है. तब मुझे नुकसान भरपाई करनी पडी थी. जाने दे….’

काशीनाथ की मृत्यु का समाचार मुंबई में परिवार को मिलता है, हर तरफ फैल जाता है. पिक्चर पूरी होने की तैयारी में है. काशीनाथ की इमेजेस के साथ उनका वॉइस ओवर हॉल में गूंज उठता है. इसे ओरिजिनल मराठी में ही सुनते हैं:

`कुठल्याही कलाकाराला जेव्हा पहिली टाळी मिळते तेव्हा तो कलाकार म्हणून संपून जातो, कारण टाळी हा सरस्वतीनी दिलेला श्राप आहे असं म्हणतात. मला हा श्राप नसता मिळाला तरी मी खूप काही होऊ शकलो असतो. एक बरा नवरा, एक खरा मित्र, एक चांगला मुलगा, पण मी जर हे सगळ असतो तर मी ते नसतो जे मी होतो- गोपाळ (`आनंदी गोपाळ’), बापू (`गारंबीचा बापू’), लाल्या (`अश्रूची झाली फुले’), संभाजी (`रायगडाला जेव्हा जाग येतो’)…..आणि……’

(अर्थात- किसी भी कलाकार को जब पहली ताली मिलती है तब वह कलाकार के रूप में खत्म हो जाता है. क्योंकि ताली सरस्वती का दिया अभिशाप है, ऐसा कहते हैं. मुझे यह शाप न मिलता तो मैं बहुत कुछ बन सकता था. एक अच्छा पति, एक सच्चा मित्र, एक अच्छा बेटा, लेकिन यदि मैं ये सब होता तो मैं वह नहीं बनता जो मैं था- गोपाळ (`आनंदी गोपाळ’), बापू (`गारंबीचा बापू’), लाल्या (`अश्रूची झाली फुले’), संभाजी (`रायगडाला जेव्हा जाग येतो’)…..आणि……’)

(सिनेमागृह में दर्शकों के गले रूंधे हुए हैं और साथ ही वे मन ही मन वह वाक्य पूरा करते हैं:`…आणि काशीनाथ घाणेकर….’

हमें बचपन से माता पिता – बडों -सगे संबंधियों-समाज-मित्रों की ओर से सिखाया गया है कि हमें अच्छा इंसान बनना है, बडे होकर हमें भलाई या अच्छाई के आधार पर जिंदगी बनानी है, अपनी भलाई पर निर्भर रहना है.

हमें कभी अपनी प्रतिभा के आधार पर जीवन बनाने की बात नहीं सिखाई गई है. इंसान के रूप में अच्छा होना तो जीवन का एक छोटा सा हिस्सा है. दुनिया में लाखों करोडों इंसान हैं जो अच्छे, बहुत अच्छे, बहुत ही अच्छे हैं. दुनिया उनके कारण ही टिकी है लेकिन दुनिया जिनके कारण आगे बढ रही है वह अच्छे लोगों के कारण नहीं बल्कि प्रतिभावान लोगों के कारण.

काशीनाथ घाणेकर वुमनाइज़र (फिल्म में `लफडीबाज’ शब्द है) और मद्य मित्र (यह मेरा गढा गया शब्द है लेकिन फिल्म में प्रयुक्त शब्द है बेवडा) नहीं होते, मुंबर्स शहर का मशहूर डेंटिस्ट होने के बावजूद छह – छह साल तक प्रॉम्पटर-बैकस्टेज का काम करके उन्होंने स्ट्रगल नहीं किया होता, नाट्य जगत के प्रति लगन के पीछे दीवाने नहीं हुए होते तो वे जरूर एक आदर्श पति, अच्छा मित्र, गौरवशाली पुत्र साबित होते, इसमें कोई दो राय नहीं है.

लेकिन आज उन्हें कौन याद करता? ऐसे तो करोडो आदर्श पति-मित्र-पुत्र इस दुनिया में आए और गए. काल के गर्त में समा गए. मिट गए. इसमें से किसी भी व्यक्ति के नाम पर आज ठाणे के हीरानंदानी मेडोज में खडा `स्वर्गस्थ काशीनाथ घाणेकर सभागृह’ है? नहीं, बिलकुल नहीं. तो फिर महत्व किस बात का है? अच्छा बनने का नहीं, टैलेंट महत्वपूर्ण है. मुझे यहां पर अच्छाई की बुराई नहीं करनी है. आप अच्छे हैं तो अच्छी बात है- आपके लिए, दुनिया के लिए. लेकिन सिर्फ अच्छा होना ही काफी नहीं है. आपकी पैशन, आपका टैलेंट, आपकी मेहनत के बल पर इस दुनिया में एक ऐसी लकीर बना कर जाना चाहिए जिसे कोई मिटा न सके. काशीनाथ घाणेकर ने गोपाल, बापू, लाल्या, संभाजी इत्यादि की भूमिकाएं निभाकर ऐसी ही अमिट लकीर खींची है. तभी तो वे एक भव्य बायोपिक का विषय बने हैं और तभी तो एक तरफ ठगवाली फिल्म में कौवे उड रहे हैं और वह थिएटर्स में उतरती जा रही है जब कि दूसरी ओर प्रादेशिक भाषा की फिल्म होने के बावजूद `….आणि काशीनाथ घाणेकर’ के शोज हाउसफुल चल रहे हैं और अधिक से अधिक थिएटर्स में लगती जा रही है.

फिल्म में डॉ. श्रीराम लागू और डॉ. काशीनाथ घाणेकर की प्रतिस्पर्धा दिखाने में लागू के साथ थोड़ा अन्याय हुआ है ऐसा लगता है. श्रीराम लागू के साथ काशीनाथ घाणेकर के बीच मराठी रंगभूमि पर हुए `महायुद्ध’ के बारे में थोडी बातें करके कल समापन करेंगे.

आज का विचार

वह सीधी लकीर जैसा जीवन जिया…

… लेकिन तारीफ तो तभी हुई जब वह लकीर कार्डियोग्राम में दिखी.

-वॉट्सएप पर पढा हुआ.

एक मिनट!

बका: पका!

पका: बोल बका!

पका: ये बेलन भी कितनी अजीब चीज है.

पका: क्यों क्या हुआ?

बका: उससे रोटी गोल बनती है और पति सीधा!

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