क्यों उनके समाचार छा जाते हैं और हमारे ढंक जाते हैं


न्यूज़ व्यूज़: सौरभ शाह

(newspremi.com, शुक्रवार, २१ फरवरी २०२०)

हिंदू समाज को आज के समय में उसकी कुप्रथाओं और गलत रिवाजों को लेकर आज के समय में फटकार लगाई जाती है. इनमें से कई बातें तो बिलकुल गलत असत्य होती हैं, कई अतिशयोक्ति से भरी होती हैं तो कई को तोडमरोड कर – बिना संदर्भ के पेश किया जाता है और कई बातें स्थान –काल-परिस्थिति के अनुसार उस समय सुसंगत थी, लेकिन अब अप्रासंगिक हैं, इसके बावजूद आज भी हमें उनके बारे में याद दिलाकर ये बोध कराया जाता है कि हम कितने पिछड़े हुए हैं.
उदाहरण के लिए वर्णाश्रम. ब्राह्मण का काम अमुक, क्षत्रिय का काम अमुक है ऐसा किसी जमाने में हुआ करता था. आज नहीं है. आज ब्राह्मण भी दुकान चलाना हो तो चला सकता है. वैश्य सेना में जाना चाहता हो तो जा सकता है, उस पर कोई बंधन नहीं है. समाज में सबसे अंतिम स्तर के वर्ण में जिनके पूर्वज आते थे वे इस देश का संविधान बना सकते हैं, प्रधानमंत्री की कैबिनेट में उच्च स्थान पा सकते हैं, राष्ट्रपति बन सकते हैं, बडे बडे उद्योगों के मालिक बन सकते हैं, प्रतिष्ठित युनिवर्सिटी में प्रोफेसर बनकर ब्राह्मण सहित तीनों वर्णों के विद्यार्थियों को पढा सकते हैं. आज वर्णाश्रम है कहां? इसके बाद भी दलित राजनीति करनेवाले तथा उन्हें बढावा देने वाले आज भी आपको वर्णाश्रम और मनुवाद की लकडी से फटकारते हैं. कुछ प्रथाएं किसी जमाने में अनुकूल थीं जो आज अप्रासंगिक हो गई हैं, समाज ने उन्हें छोड दिया है पर ऐसी बातों को लेकर हिंदू समाज को लगातार बदनाम किया जाता है, हमें नीचा दिखाया जाता है. हम तो वह सब छोडकर कब के आगे निकल चुके हैं. जिस समाज का धर्म केवल १४०० या २००० साल पुराना है उन इस्लाम और इसाइयत के अनुयायिओं के पूर्वज कितने बर्बर थे इसका तो पूरा इतिहास है. महिलाओं के प्रति, अपने जाति बिरादरी के लोगों के प्रति, दुश्मनों और विरोधियों के प्रति उनका आचरण कैसा था इस बारे में किताबें भर कर प्रमाण हैं. उनकी कई सामाजिक कुप्रथाएं आज भी कितनी प्रचलित हैं. उन कुप्रथाओं को हटाने का प्रयास आज की सरकार कर रही है तो सरकार की आलोचना हो रही है, उन कुप्रथाओं को कायम रखकर सुधारों का विरोध करनेवालों की आलोचना नहीं होती! ये कैसी विचित्र बात है!

आज के इतिहासकारों और मीडिया के पास हिंदुओं के लिए अलग तराजू है, बाकी लोगों के लिए पैमाने अलग हैं. इस बात को समझने की जरूरत है. विचलित हुए बिना अपनी परिस्थिति के बारे में गर्व का अनुभव करना चाहिए. हुआ ये है कि उन लोगों के पास अपना प्रचार करने के लिए एक पूरी रूपरेखा तैयार है, जो नेहरू के जमाने से ही विरासत में मिली है. इसी ईकोसिस्टम का लाभ उन्हें मिलता है और हम आज भी ऐसी व्यवस्था खडी नही कर सके हैं. २०१४ के बाद ये हो रहा है. इसे विशाल और व्यापक बनने में समय लगेगा. दूसरी बात, उनके पास एको (प्रतिध्वनि) चैंबर्स भी हैं. यानी कि एक कुत्ता भौंकता है तो उनके सारे कुत्ते भौंकना शुरू कर देते हैं बिना कुछ भी समझे बिना. उनका एक कौआ भी बिजली के तार पर बिना कारण बैठ जाता है तो बाकी के भी कतार से बैठ जाते हैं और एक उडता है तो बाकी के भी उड जाते हैं. उनका एक बंदर अपने सिर की टोपी निकालकर नीचे फेंक देता है तो बाकी के बंदर भी उसका अनुसरण करते हैं. आप कोई समाचार किसी एक चैनल पर देखते हैं तो फटाफट बाकीके सारे चैनल भी उसे दिखाने लगते हैं, इसका राज उनका यह एको चैंबर है. सबेरे अधिकांश अखबारों के फ्रंटपेज चाचा-मामा-बुआ-मौसी का कजिन्स जैसे लगते हैं इसका कारण ये एको चैंबर्स ही हैं जिसमें पीटीआई जैसी देशी और कई विदेशी समाचार एजेंसियां बडी भूमिका निभाती हैं. हमारे लिए ऐसे एको चैंबर्स २०१४ के बाद से तैयार हो रहे हैं. पर ऐसी व्यवस्था रातोंरात तैयार नहीं होती. इसीलिए अपने खिलाफ वाली खबरें क्यों वायरल हो जाती हैं और अपने पक्षवाले समाचार क्यों कोई सूंघता नहीं है,ऐसा सोचकर बेचैन नहीं होना चाहिए. आजादी से पहले अंग्रेज हमारे इतिहास की शिक्षा और बडे पैमाने पर मेन स्ट्रीम मीडिया को नियंत्रित करते थे या उनको प्रभावित करते थे. अंग्रेजों के जाने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू नामक ब्राउन लाटसाहब को गांधीजी ने अपना पहला प्रधानमंत्री बनाया. नेहरू सवाया अंग्रेज थे. उन्होंने ओपनली देश को शिक्षा देने की जिम्मेदारी एक कट्टरवादी मुस्लिम मौलाना आजाद को सौंप दी. देश की स्वतंत्रता का जो विरोध करते थे, वे सारे वामपंथी तथा छद्म सेकुलर्स मौलाना के सरकारी तंत्र का दोहन करके तगडे हो गए. साम्यवादी इतिहासकारों से पढे हुए तथा कॉन्वेंट स्कूल कॉलेजों में पढे युवक मीडिया में फैल गए. इस तरह से हिंदूसमाज को प्रतिकूल परिस्थिति में डालनेवाला ईको सिस्टम तथा एको चैंबर्स तैयार हो गए. दशक पहले हमारे अंदर इस बारे में जागृति नहीं थी, शायद मौलिक समझ भी नहीं थी- इतने हावी हो गए थे ये लोग. क्रमश: ये समझ आने लगी. इक्का दुक्का पत्रकार या एकाध मीडिया हाउस इस दिशा में काम करने लगे. १९९२ के बाद इसकी संख्या बढने लगी. २००२ के बाद इन लोगों की विकृतियों का विरोध करनेवाले बढे. लेकिन अब भी हमारी आवाज नगारखाने में पिपिहरी बजाने जैसी थी. उनके प्रचार के शोर में हमारी बात दब जाती थी. २०१४ के बाद इस दिशा में भी क्रांति आई. धैर्य रखकर व्यूह रचना के साथ आगे बढेंगे तो बाजी पलट जाएगी. अभी हमारी जो शिकायतें हैं वे लोगों की शिकायतें बन जाएंगी.

स्वीडन, नेदरलैंड, और हॉलैंड अत्यंत समृद्ध, शिक्षि्त और संस्कारी देश हैं. वहां के समाज की आधुनिक विचारधारा दुनिया के लिए आदर्शस्वरूप थी. इन देशों में मुस्लिम इमिग्रेंट्स आने के बाद अब इनकी हालत कैसी है? दूसरे विश्व युद्ध के समय हुई अतंर्राष्ट्रीय संधि के अनुसार यूरोप के कई देशों ने उदार होकर मध्य युगीन शासन पद्धति में पले बढे मुस्लिम शरणार्थियों को स्वीकार करने का जब फैसला किया तब इन देशों की स्थानीय जनता ने खूब विरोध किया था. ये बात पिछले दशक की ही है. लेकिन इन सुधरे हुए देशों में पले हुए वामपंथी विचार रखनेवाले बुद्धिवादी तथा कई वामपंथी राजनेताओं ने ये कहते हुए उदारता प्रकट करके झुंड के झुंड अपनी सीमाओं के अंदर आने दिए कि `हमें अंतर्राष्ट्रीय संधि को मानना चाहिए और अपने देश में प्रताडित मुसलमानों के आंसू पोछकर उन्हें आश्रय देना चाहिए.

परिणाम क्या रहा? स्थानीय जनता से धीरे धीरे उनका काम छूटने लगा. इतना ही नहीं, स्वीडन, नेदरलैंड, हॉलैंड में जगह जगह जुहापुरा खडे होने लगे. मुसलमान एकत्रित होकर जो बस्ती बनाते उसे घेटो कहते थे. ऐसे मिनी पाकिस्तान उन देशों में बनने लगे. उन देशों की साधन संपन्न पुलिस भी वहां कदम रखने से डरती है. शरणार्थिंयों के दंगे, उनकी दादागिरी तथा जिस भूमि ने उन्हें आजीविका दी है, उस भूमि से गद्दारी के अनेक समाचार हम जैसों के पास, इस लाइन में सक्रिय लोगों के पास नियमित रूप से पहुंचती है. यदि ये समाचार फ्रंटपेज और प्राइम टाइम द्वारा हम तक पहुंचते तो सीएए के खिलाफ शाहीन बाग नहीं खडे होते. पर मेन स्ट्रीम मीडिया इन समाचारों को तनिक भी महत्व नहीं देता क्योंकि उन्हें तो यूपी हुई इक्का दुक्का लिंचिंग की घटनाओं को प्रचारित करने में रस होता है, किसी मामूली धार्मिक नेता द्वारा स्त्री के मासिक के बारे में किए गए बयान को राष्ट्रीय समाचार बनाने में रुचि होती है. उनके ईको सिस्टम तथा एको चैंबर्स की ज्योति बुझने से पहले होनेवाली भभक का ये प्रतीक है. हम उसे उनके स्वर्णिम युग की, उनके मध्याह्न की पराकाष्ठा मानकी बैठे हैं. सच तो ये है कि यह उनके सूर्यास्त की घडी है. और ये बात आपको सांत्वना देने के लिए नहीं की जा रही है. इस क्षेत्र में गहराई तक उतरे हुए तथा इस क्षेत्र की परिधि पर रहकर गहन काम करनेवाले निष्ठावान लोगों के साथ हुए चिंतन मनन और मंथन के परिणामस्वरूप जो नवनीत प्राप्त हुआ है, उसे आपके साथ मैने बांटा है. शेष बातें कल जारी रखेंगे. मीनव्हाइल इस श्रृंखला के आज के पहले लेख से पूर्व कल जो प्रस्तावना लिखी थी उसे यदि आपने नहीं पढा हो तो उसकी ये लिंक है: https://www.newspremi.com/hindi/news-views-20-02-2020/

1 COMMENT

  1. मुख्य भेद लोग समझते ही नही ये भेद है कि एक भी प्रथा रीत रिवाज जो गलत थे अप्रासंगिक है या अब होंगे भी ये कोई धर्म से जुड़ी बात नही ये सब कुप्रथा मिटाई बदली जा सकती है
    जब कि विधर्मी में ये उनके मजहब से जुड़ी बात है कुप्रथा रीतरिवाज उनके बदले या मिटाए नही जा सकते ये याद रखे कुछ समय ये निष्क्रिय हो सकते है जब शाशन उनका ना हो तो
    जो हिंदू में कुछ ब्राह्मण क्षत्रिय की कमी बदि दिखाई जाती ये सिर्फ मजहबी फंडा विधर्मी का है
    हमारे में वर्ण व्यवस्था ही सामाजिक व्यवस्था को समझने बनाने के लिए पहचान मात्र है कि ताज़ा हिंदू हालात समझ सके
    भेद तो है ही लेकिन वैमनष्य नही था और होना भी नही चाहिए भेद ज्ञान मानव जीवन का आधार है ये जो भी वैमनष्य हुआ वो इस्लाम विधर्मी शाशको के बाद हुआ दूरप्रचार और कुछ गलत प्रथा रीतिरिवाज भी इस वजह से पलपे लेकिन सुधार किया गया जैसे साशन सही हुआ
    अभी हमारी सब व्यवश्था सही नही हुई आश्रम की शिक्षण की वगैरा नही तो हिंदू उच्च गौरवपूर्ण जीवन ही जी रहे थे एक ही कमी रह गई कि विदेशी विक्रांता विधर्मी की हकीकत जानकर भी बचाव खुद की संस्कृति लोगो का नही कर सका एक नही हो सका

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