थोडे में गुजारा होता है के आदमी: सौरभ शाह

(मोरारी बापू द्वारा हिदुत्व के लिये दी गई `आहुति’: लेख २)

(गुड मॉर्निंग क्लासिक्स, मंगलवार, २६ अप्रैल २०२०)

गुजराती के ऋषिकवि राजेंद्र शुक्ल जब किसी का निषेध नहीं करना चाहिए, किसी को छोडना नहीं चाहिए और सभी का स्वागत करना चाहिए और सभी के समावेश की बात करते हैं तब यह बात पढ़ने में बडी सुंदर लगती है लेकिन उसे जीवन में उतारने का काम अत्यंत कठिन है. करीब असंभव है, ऐसा कहा जाय तो उचित होगा. सजग प्रयासों के बाद भी ऐसा हो सकता है कि आप उस उद्देश्य को जीवन में स्थापित न कर सकें और मुझ जैसे अंतिमवादी के लिए तो बिलकुल असंभव है (पर्सनली मैं मानता हूं कि मेरे लिए ये बहुत अनिवार्य या बल्कि आवश्यक भी नहीं है)

जो लोग राजेंदर शुक्ल के शेर में निहित इस उम्दा भाव को जीवन में उतारने का दावा करते हैं, वे कमोबेश दंभी ही होंगे क्योंकि असल में यदि वे `सभी का स्वीकार, किसी को अस्वीकृति नहीं’वाली संकल्पना को जीवन में उतारने लगे होते तो वे कब के मोरारीबापू या नरेंद्र मोदी बन गए होते. इन दोनों महानुभावों ने (तथा उनकी ही तरह अन्य अनेक महानुभावो ने ) अपने जीवन में सभी का स्वागत किया है. किसी को अपने मापदंड से नही तौला है. हर व्यक्ति में कुछ न कुछ शुभ होगा ही और इसीलिए सभी का स्वागत करके अपने में समाविष्ट कर लेना चाहिए. हर किसी में कोई न कोई कमी तो होगी ही इसीलिए किसी को भी उसकी कमी बताकर उसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.

सामान्य रूप से दो में से किसी एक कारण से कोई भी व्यक्ति सभी को साथ लेकर चलता है. एक कारण: उनका उपयोग किया जा सकता है, अपनी शक्ति बढती है और खुद बहुत बडे बनेंगे इस आशय से या दूसरा कारण हो सकता है: आप यदि सभी को समाविष्ट कर लेते हैं तो आपको उस पर नियंत्रण करने में सुविधा रहेगी, आप उस पर अपना प्रभाव डाल सकेंगे. (भाई, यहां पर कंट्रोल करने की बात को सकारात्मकता से लीजिएगा). आपके जीवन का जो उद्देश्य है उसे आप अपने प्रभाव में आनेवाले इन सभी लोगों द्वारा साकार कर सकते हैं. आपके शुभ प्रभावों को ये लोग सहजता से अपना लेंगे, सह लेंगे इसीलिए आप सभी को स्वीकार करते हुए सभी को अपने प्रभाव में लाना चाहते हैं. मैं जो कहना चाह रहा हूँ क्या आप समझ रहे हैं? केवल मुसलमानों की ही बात नहीं है. मोरारीबापू और नरेंद्र मोदी मुसलमानों को अपनाने लगे इसीलिए राजेंद्र शुक्ल के शेर को उनके जीवन में व्यक्त करने में काम आएगा, ऐसी बात नहीं है. हर प्रकार के लोगों को इन महानुभावों ने अपनाया है. बापू कई बार कथा में कहा करते हैं कि मैं तो कभी किसी को शराब छोडने या अन्य लतों को छोडने के लिए नहीं कहता. उन्हें भी स्वीकार करता हूं. बापू को विश्वास रहता है कि जो उनके और रामकथा के निकट आएंगे, उनके व्यसन अपने आप कम होकर खत्म हो जाएंगे. बापू या नरेंद्रभाई या ऐसे कइ महान लोग किसी का उपयोग करने के लिए नहीं बल्कि अपने शुभ प्रभाव को फैलाने के लिए तमाम लोगों को साथ लेकर चलते हैं.

यदि आप इस तरह से विशाल बनेंगे तो ही आप विराट बन सकेंगे, ऐसा मेरा कहना है. बापू जैसे विराय व्यक्ति के बारे में लिखे `आहूति’ ग्रंथ में उतरने से पहले मेरे लिए इतनी भूमिका इसीलिए तैयार करनी जरूरी थी कि एक सामान्य मनुष्य के रूप में हम सभी समझ सकते हैं कि व्यक्ति क्यों, किसलिए सामान्य से विराट बन जाता है. इस भूमिका को समझे बिना यदि आपको सीधे सीधे `आहुति’ ग्रंथ का आस्वाद कराने बैठ जाता तो आपके हाथों में ये ग्रंथ नहीं होने के कारण आपके मन पर शायद ऐसी छाप पड जाती है कि इसमें तो बापू की आरती उतारी गई है. कमी देखनी है तो सारा ग्रंथ पढकर भी ऐसा कहेंगे. बापू तो उन लोगों का भी समावेश कर लेंगे (हम नहीं कर सकते).

बापू की अनेक गतिविधियों के केंद्र में जो है उसकी बात करते हैं. बापू की रामकथा की बात करते हैं. `आहूति’ का आरंभ सुमन शाह के लेख से होता है. ग्रंथ का यह सबसे लंबा, सबसे अध्ययनपरक और बापू को समझने में सबसे अधिक उपयोगी लेख है.

कई लोगों को आश्चर्य होता है कि रामायण की कथा तो सुपरिचित है. सभी जानते हैं. बापू एक बार कथा कहें, दो बार कथा कहें पर पचास साल से वही की वही बात आठ सौ बार दोहराने का क्या अर्थ है?

पहले लेख से, का भावार्थ आप देखें तो आपको ध्यान में आएगा कि बापू की ये रामकथा कैसी होती है.

“बापू ने इस मौलिक निहितार्थ निकालने के स्वभाव को `तलगाजरडी दृष्टि’ का नामकरण किया है.”

सुमनभाई ने ही ये सब कहा है. पहले तो हर रामकथा को एक शीर्षक में बापू बांध लेते हैं. `मानस विष्णु’, `मानस हनुमानचालीसा’, `मानस किन्नर’, इत्यादि. विषय तय कर लेने के बाद इस विषय का मर्म व्यक्त करनेवाली चौपाई समग्र रामचरित मानस में से चुन लेते हैं. उस चौपाई का गान नौ के नौ दिन कथा के आरंभ में होता है, कभी कथा के दौरान भी होता है. इसी चौपाई से बंधकर विषय का केंद्र स्तान तय हो जाता है. इसी तरह से भूमिका बना कर समर्थ संकेतों और निहितार्थों के लिए यत्र तत्र सर्वत्र घूमते रहते हैं. अर्थात, वे अपनी तरह से अपने मौलिक विचारों द्वारा तथा अन्य शास्त्रों-विद्वानों द्वारा व्यक्त किए गए भावार्थों द्वारा अपने विषय को विभिन्न दिशाओं से जॉंच कर उसकी गहराई में उतरते जाते हैं. आवश्यकता पडने पर मानस के मूल पाठ में जाना, निहितार्थ निकालते समय मूल पाठ के भी उस पार जाने की उनकी यह पद्धति उल्लेखनीय है. बापू ने इस मौलिक निहितार्थ निकालने के स्वभाव को `तलगाजरडी दृष्टि’ का नामकरण किया है.

इसी कारण से बापू की रामकथा अनूठी हो जाती है. इस कारण से नौ दिन के दौरान रामायण का सतही तौर पर पारायण नहीं होता बल्कि रामायण का मर्मायण या मर्मग्रहण होता है, जो अंत में विस्तृत होता चला जाता है.

“बापू तकरीबन हर पुनरावर्तन में नया रूप प्रकट करते हैं. बात वही होती है पर शब्द संयोजन बदल चुके होते हैं. इसमें उनकी जागृति, उनका भाषा पर प्रभुत्व प्रशंसनीय है.”

और आगे देखें तो `रामकथा के आधार पर तुलसीदास ने मनुष्य जीवन के मर्म को रखा, जिससे कथा के नायक का यानी कि राम का मानस व्यक्त हुआ. क्रमश: नायक की जीवनगाथा खुलती चली गई, चरित स्पष्ट हुआ. बापू भी जीवनमर्म की वस्तु के साथ ही पृष्ठ पलटते रहते हैं. वे भी राम के मानस और चरित को लगातार पहचानते और परिचित करवाते रहते हैं. उनकी ये पद्धति `प्रवाही परंपरा’ की तो है ही, साथ ही साथ उनकी रीतिनीतियों का भी अनोखा दर्शन है…रामचरित भले ही `मानस’ प्रणित है, लेकिन उसकी प्रस्तुति बापू की है, निजी है. तुलसी का `मानस’ तुलसी का होने के बावजूद बापू का लगता है. रामकथा का अनुबंध मूलत: प्रवाही परंपरा से ही है. इसीलिए विचार, संवेदना, भाव-भावनाओं का पुनरावर्तन होना संभावित ही है. लेकिन बापू तकरीबन हर पुनरावर्तन में नया रूप प्रकट करते हैं. बात वही होती है पर शब्द संयोजन बदल चुके होते हैं. इसमें उनकी जागृति, उनका भाषा पर प्रभुत्व प्रशंसनीय है. इन बातों के कारण बापू सभी कथाकारों से अलग हो जाते हैं. यह अलगाव उनकी रामकथा का व्यावर्तक लक्षण है. प्रस्तुतिकरण उनकी शैली के माध्यम से वह अलगाव स्पष्ट, रुचिकर और विचारणीय होता जाता है.’

नाटक, फिल्म, उपन्यास या फिर रामकथा सामान्य रूप से तीन चरणों में विभक्त है: आदि-मध्य-अंत. सुमन शाह ने बडे ही प्रभावशाली तरीके से बापू की रामकथा के चरणों का वर्णन किया है जो मेरे हिसाब से किसी भी वक्ता को बोलते समय या लेखक को लिखते समय भी ध्यान में रहे तो उसका कार्य अधिक उज्ज्वल होगा. आदि-मध्य-अंत के तीन पडावों के बदले सुमन शाह ने चार चरणों की अनोखी प्रक्रिया दर्शाते हुए कहा है:`कथा चार बिंदुओं को स्पर्श करती है: पहला बिंदु आरंभ, दूसरा विस्तार. विस्तार दो प्रकार के होते हैं: सूत्र विस्तार और मंत्र विस्तार. थोडे में अधिक कह देना और विचारों का विस्तार करना. तीसरा बिंदु है समेटना- धीरे धीरे प्रत्याहार. चौथा है समापन. मैने देखा है कि उनका इन चारों बिंदुओं पर समान रूप से नियंत्रण रहता है और वे हर एक को पुष्पित प्ल्लवित करते हैं. उन्हें केवल रामकथा कहने में रुचि नहीं होती. उनके माध्यम से कथा का तिरोधान होता है- कथा गहराई में उतरती जाती है. बापू लीला करते हैं, कथन करते हैं, कैमरे की तरह दृश्यों को साकार करते हैं. विस्तार से वर्णन करते हैं, रस स्थान पर बहलाते हैं, गान करते हैं. संगीत बापू की रामकथा का अविभाज्य अंग है.”

“(बापू ने) आंसुओं की सात श्रेणियां गिनाई हैं: हर्ष के आंसू, शोक के आंसू, क्रोध के आंसू (जब आदमी क्रोध में रोक पडता है), योग के आंसू, वियोग के आंसू, कपट के आंसू (आदमी जब झूठमूठ का रोता है तब) और अंत में प्रेम-करूणा के आंसू’.”

बापू की रामकथा के विभिन्न पहलुओं को एक के बाद एक आपके समक्ष स्पष्ट करते हुए सुमन शाह कहते हैं:`कथा के दौरान बापू अपने समस्त सामर्थ्य का उपयोग करते हैं: गाना, शेरो शायरी या काव्यपंक्तियों का पाठ करना, गीता-भागवत या उपनिषद की वाणी हो तो शुद्ध उच्चारण करना, शिष्ट और लोक दोनों भाषा स्वरूपों का प्रयोग करना, प्रसंगों और दृष्टांत कथाओं से मुद्दों को अत्यंत सहजता से रखते हैं, उसी प्रकार से जरूरत पडने पर सिंहनाद करना, उसके बावजूद संतुलन और मर्यादा कभी नहीं चूकना. और हास्य? वह तो होता ही है. बापू हंसाते ही हैं और हंसनेवाले कभी निष्फल नहीं जाते. इन सब बातों से रामकथा रस सभी के अंतर में सुखद रूप से उतरती जाती है.’

लेख के अंत में बापू की सैकडों रामकथाओं में से रस की एक बूंद सुमनभाई आपको चखाते हैं:`…(बापू ने) आंसुओं की सात श्रेणियां गिनाई हैं: हर्ष के आंसू, शोक के आंसू, क्रोध के आंसू (जब आदमी क्रोध में रोक पडता है), योग के आंसू, वियोग के आंसू, कपट के आंसू (आदमी जब झूठमूठ का रोता है तब) और अंत में प्रेम-करूणा के आंसू’. इस आखिरी श्रेणी के आंसू को विस्तार से समझाते हुए लिखते हैं:`कोई काम नहीं, कोई उद्देश्य नहीं, अनपेक्ष भाव होने पर भी आंसू आते हैं, केवल प्रेम के कारण, केवल भक्ति के कारण भक्त रोता है. प्रभु को पूरी तरह से पा लेने पर अहोभाव के आंसू झरते हैं.’

ये रामकथा बापू को और हम सभी को कहां से कहां ले गई इसका चित्रण `आहुति’ के पन्ने पन्ने पर हुआ है. बापू कहा करते हैं कि,`मेरे करीब कोई नहीं है, और मैं किसी से दूर नहीं हूं.’

`आहूति’ द्वारा आपको पता चलता है कि बापू ३६५ दिन अनेक गतिविधियां करते रहते हैं. इसके बावजूद जब जब आप, उनसे मिलते हैं तब उनके पास दुनिया भर का सुकून होता है. कोई बेचैनी नहीं होती, दिमाग में किसी कोलाहल का संकेत नहीं होता. उनके साथ जब बात होती है तब बात करनेवाले को ऐसा लगता है कि मानो बापू ने आपकी बात को सुनने के लिए धरती पर जन्म लिया है. इतनी सहज एकाग्रता, सभी की चिंता, हम जैसे सामान्य मनुष्य लाख उठापटक करें तब भी नहीं प्राप्त कर सकते. बापू असामान्य हैं. बापू का कार्यक्षेत्र विराट है, विशाल है क्योंकि उन्हें निजी तौर पर इन सभी कार्यों से कुछ भी पाने की चाह नहीं है. उन्हें कुछ नहीं चाहिए क्योंकि उनकी जरूरत बहुत कम है. मुकेश द्वारा राज कपूर के लिए गाए गीत की एक पंक्ति के ये शब्द बापू कभी कभी कथा में गाते हैं, और सचमुच में बापू `थोडे में गुजारा होता है’ के आदमी हैं.

`थोडे में गुजारा होता है’ की भावना से जीनेवाले कई लोग किस तरह से बडे बडे कार्यों में ओतप्रोत हो सकते हैं,कल इसके कुछ और उदाहरण देखेंगे.

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