तडकभडक : सौरभ शाह
(`संदेश’,संस्कार पूर्ति, रविवार ८ मार्च २०२०)
भारत में नारी शक्ति की महिमा का गान युगों से होता चला आया है. हमारी तमाम देवियों के पास अपने अपने हथियार हैं जिसके द्वारा उन्होंने असुरों का संहार किया है. कराटे और ताइक्वांडो से प्रभावित होनेवाले हम भारतीय अपनी परंपरा को भूल जाते हैं तब हमें आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिन के हौव्वे को मनाने का मन करता है. बाकी दुनिया को ये इसीलिए मनाना पडता है क्योंकि उनके यहां युगों से स्त्री को पैर की जूती जैसा मानने की प्रथा थी. हमारे यहां जिस ग्रंथ का कई लोग गलत इरादे से अपमान करते हैं उस ग्रंथ मनुस्मृति में हजारों साल पहले लिखा गया था: यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तथ देवता:- जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं.
हमारे यहां हजारों साल से देवताओं का वास है. अर्थात हजारों साल से नारी पूजनीय मानी जाती है. पश्चिम के देशों में या इस्लामिक बन चुके देशों में नारी का स्थान थर्ड क्लास सिजिटजन का था. स्त्री की गवाही अदालतों में मान्य नहीं होती थी. स्त्रियों को मताधिकार नहीं था. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जोर शोर से आधुनिकता की बात करने वाले अमेरिका में स्वतंत्रता मिलने के कई दशकों बाद और समानता की बातें करने वाले रूस में राजशाही समाप्त होने के दशकों बाद स्त्रियों को वोट देने का अधिकार प्रदान किया गया. स्विट्जरलैंड ने तो १९१७१ में जाकर स्त्रियों को मताधिकार दिया.
भारत को स्वतंत्रता मिलने की घडी से ही, १९४७ से ही स्त्रियों को मताधिकार प्राप्त हो गया था. ये है भारत और वो है शेष दुनिया. आप हमें स्त्री के अधिकारों के बारे में क्या सिखाएंगे. और उन लोगों के देशों में तो महिलाओं ने प्रदर्शन किए, आंदोलन चलाए तब जाकर उन्हें मताधिकार प्राप्त हुआ.
विदेश में महिलाओं को जो छीनकर लेना पडता है वह हमारे देश में उन्हें सहजता से मिल चुका है. वामपंथी प्रचार के झांसे में आकर ये कहते हुए हमें खुद को चाबुक लगाने की जरूरत नहीं है कि भारत में स्त्रियों पर कितने अत्याचार होते हैं, महिलाओं को घूंघट में रहना पडता है इत्यादि. वामपंथियों से ये कहने की भी जरूरत नहीं है कि क्या आप इस्लामिक देशों में जाकर बुरखा प्रथा के विरुद्ध बोल सकते हैं? हर संस्कृति की अपनी अपनी प्रथाएं होती हैं, उसका आदर करना चाहिए.
भारत में महिलाओं का स्थान, उनकी जिम्मेदारी तथा उनके अधिकार के बारे में बाहर से आए लोगों ने जो कुप्रचार किया, उससे हम भारतीय भ्रमित हो चुके हैं. उन देशों ने बीसवीं शताब्दी में युद्ध लड़े जिसके कारण घर आंगन में उत्पादन बढाने की जरूरत पडी. महिलाओं को घर से बाहर निकलकर काम करना पडा. हम वर्ल्ड वॉर वन या टू के स्वार्थी युद्धों में नहीं जुडे. हमारे यहां ऐसी कोई जरूरत नहीं थी. पहले के जमाने में जो आक्रमण भारत पर हुए उस समय महिलाएं घर में रहकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करती थीं. अमेरिका -ब्रिटेन इत्यादि की जनता बचत करने के बजाय बेतहाशा खर्च में विश्वास करने लगी. क्रेडिट कार्ड और लोन के बिल भरने के लिए परिवार को अधिक आय के स्रोत खडे करने पडे. पुरुष ओवरटाइम करता तब भी कम पडता. स्त्री को घर से बाहर जाकर आजीविका कमाने के लिए मेहनत करनी पडी जिसका सीधा असर परिवार के सुख पर पडा. पतिपत्नी एक दूसरे से दूर होते गए और बच्चे बेसहारा हो गए. `डिंक’ नामक शॉर्ट फॉर्म प्रचलित हुआ. डबल इनकम ना किड. दो जन कमाते हैं और बच्चा पैदा नहीं करते. सामाजिक जीवन अस्तव्यस्त हो गया.
कोरोना वायरस की तरह ये संक्रमण भी भारत आ गया. जो औरत नौकरी व्यवसाय करने के लिए घर से बाहर जाती है, वही प्रोग्रेसिव है. जो स्त्री गृहिणी बनकर घर संभालती है, बच्चों का लालन पालन करती है, पति-सास-ससुर की सेवा करती है वह पिछडी हुई है, ऐसी गलत मानसिकता से समाज ग्रस्त हो गया. जो महिलाएं खेत में काम करती हैं, सब्जी बेचती हैं, दुकानें चलाती हैं, गृह उद्योग की वस्तुओं के व्यापार में हैं या फिर जो स्त्रियां पढ लिख कर बैंकों में नौकरी करती हैं, सीए-डॉक्टर-कंप्यूटर इंजिनियर बनती हैं, रक्षा क्षेत्र में जुडती हैं उन सभी स्त्रियों को हमारे समाज ने आदरणीय माना है. उनका सम्मान तो किया ही है. उनके लिए गर्व का अनुभव किया ही है. ये स्त्रियां जितनी आदरणीय हैं उतनी ही पूजनीय वे स्त्रियां भी हैं जिन्हें `गृहिणी’ के नाम से जाना जाता है. लेकिन पश्चिम की देखादेखी करके हमने कुछ ऐसा माहौल बना लिया है कि जो घर में रहकर पति के कामकाज में मदद करती है, घर का संचालन करती है, परिवार के सदस्यों तथा मेहमानों की सेवा सुश्रूषा के लिए अपनी शक्ति लगाती है, उन स्त्रियों को घर से बाहर निकल कर नौकरी – व्यवसाय या बिजनेस करनेवाली स्त्रियों से कम आंका जाता है. इस मानसिकता को बदलने की जरूरत है. गृहिणियों का मान सम्मान भी कंपनी के सी.ई.ओ. जितना ही होना चाहिए, ये समझने की जरूरत है- पश्चिम का अनुकरण बहुत हो गया. स्त्रियों को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए- उन्हें नौकरी करनी है या गृहिणी बनना है- इसकी स्वतंत्रता.
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिन वे लोग मनाते हैं तो मनाएं, हमें मनाने की जरूरत नहीं है. हमारे लिए जो बातें हमारे रोजमर्रा के जीवन में जीवन में घुलमिल गई हैं- युगों से- साल के हर दिन और दिन के हर एक घंटे हम जिसका एहसास करते हैं वह उन लोगों के लिए साल में एक बार मनाया जानेवाला त्यौहार भर है. मदर्स डे का दिखावा उन लोगों को करना पडता है. हम तो रोज सबेरे उठकर माता पिता के चरण छूते हैं. स्वर्गस्थ हों तो उनकी स्मृति को वंदन करते हैं. ८ मार्च के दिन का महिमा गान हम युगों युगों से प्रतिदिन के जीवन में करते आए हैं.
पर क्या ऐसे फितूर के कुप्रभाव आपने देखे हैं? `पुरुष से समानता’ के चक्कर में कितनी लडकियां सिगरेट पीने लगी हैं, शराब पीने लगी हैं. हमें याद है कि मुंबई की सिडनहम कॉलेज की कैंटीन में किसी जमाने में मिस इंडिया कॉन्टेस्ट में भाग लेनेवाली नयना बलसावर को जब सिगरेट पीते देखा था तब हम खुद स्मोकर होने के बावजूद चक्कर खाकर गिर पडे थे. आज जब हमने धूम्रपान के दुष्प्रभावों को जानने के बाद उसे तिलांजलि दे दी है तब हमारे घर के नीचे ही स्टारबक्स के बाहर खडे होकर आस पास के स्कूल कॉलेजों की लडकियों या पास के बीपीओ में दिन रात प्रमाणिक रूप से मेहनत करनेवाली युवतियों को सिगरेट पर सिगरेट पीता देख फिर से चक्कर आने लगता है. शराब का नशा गलत बात है. पुरुष करे तो भी ये गलत ही है. पुरुषों के समान बनने के लिए ये लडकियां- महिलाएं प्रतिस्पर्धा में पुरुषों से भी अधिक नशा करने में गौरव का अनुभव करने लगी हैं. बाय द वे, आपको पता है कि अपने प्रधान मंत्री पीते नहीं हैं. लेकिन क्या आपको पता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी नहीं पीते! (उनके बडे भाई की ४० साल की उम्र में अलकोहलिक होने के कारण मृत्यु हो गई थी).
फेमिनिज्म और वुमन एम्पावरमेंट के उकसावे में आकर सबसे बडी उलझन क्या पैदा हुई है, आप जानते हैं? हमने अपनी बेटियों को उच्च शिक्षा दी, करियर में उसे आगे बढने के लिए प्रोत्साहित किया. यहां तक तो ठीक था. बेटियों को उच्च शिक्षा और ऊंचा करियर बनाने के लिए प्रोत्साहन देना ही चाहिए. लेकिन बाद में उसी बेटी से अपेक्षा रखने लगे कि कोई अच्छा पात्र खोजकर वह घर बसाए, बच्चे पैदा करके मातृत्व की महिमा का संरक्षण करे और पति के साथ सुख से जिए. जिन माता पिता ने जिस बेटी को घर कैसे संभालना, बच्चों का पालन कैसे करना, पति के साथ किस तरह से रहना, रसोई कैसे बनाना, इसके संस्कार ही नहीं दिए. ऐसे संस्कार भले न दिए हों, इसमें कुछ गलत भी नहीं है. लेकिन बेटी बडी हो जाने के बाद उन्हीं माता पिता का ये अपेक्षा रखना कि जिसकी ट्रेनिंग ही उसे नहीं मिली है, वह वैसी जिंदगी जीने लगे तो वह बेटी पर एक बडा अन्याय है. पढ लिख कर करियर में मग्न हो जानेवाली बेटी एक आदर्श पत्नी के रूप में घर भी संभाले, ऐसा आग्रह नहीं रखना चाहिए. घर चलाना और करियर बनान, ये दोनों ही फुल फ्लेज्ड जिम्मेदारियां हैं. दही और दूध दोनों में पांव रखने की इच्छा रखनेवाले इन दोनों में से कोई भी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभा सकते. और जब इन जिम्मेदारियों में कमतरता रह जाती है तो उसे मन मारकर चला लेना चाहिए. शिकायत नहीं करनी चाहिए या एक दूसरे की गलती नहीं बतानी चाहिए. विमेन एम्पावरमेंट का पाठ पढाते समय समाजशास्त्र और परिवारशास्त्र में शामिल हुई इस नई बात से अवगत कराना काफी जरूरी है- बेटियों को और बेटों को भी. करियर में खूब आगे बढने की चाह रखनेवाले बेटे अपने घर-परिवार से अन्याय करने ही वाले हैं. उनके पास पत्नी-बच्चों के लिए पर्याप्त समय नहीं रहेगा. ये बात बेटियों को समझनी चाहिए. उसी तरह से बेटों को भी पैरेंट्स द्वारा ये समझाना चाहिए- उनकी टीनेज में ही.
`स्त्री समानता’, `विमेन्स लिबरेशन’, `विमेन एम्पावरमेंट’ या `फेमिनिज्म’ इन सारी टर्मिनोलॉजीज की हमें कोई जरूरत नहीं है क्योंकि हमारे यहां ये सब पहले से ही है. जहां नहीं है वहां के लोग भले ही ये नारेबाजी करते रहें. आप भोजन में पर्याप्त मात्रा में सब्जी, अनाज, दालें, फल इत्यादि लेते हैं तो आपको विटामिन की गोलियां खाने की कोई जरूरत नहीं होती. जिनके भोजन में इन सबका नियमित रूप से समावेश नहीं है उन्हें भले ही ये कृत्रिम विटामिन दिए जाते रहें. हमें क्या? उनके कर्म!
दुनिया में फेमिनिज्म के उकसावे में आकर पुरुषों को निस्तेज, र्बिल बनाने की प्रतिस्पर्धा चल रही है. शरीर विज्ञान कहता है कि स्त्रियां सशक्त पुरुष चाहती हैं. फेमिनिज्म की लडाई निर्बल पुरुष पैदा कर रही है. पुरुषों को खुद को संभालनेवाली, घर की शोभा बढानेवाली, बच्चों में संस्कारों का सिंचन करनेवाली और परिवार का गौरव बढानेवाली स्त्रियां अच्छी लगती हैं. फेमिनिज्म की लडाई ऐसी महिलाओं को गंवार, पिछडी और दकियानूसी बताकर उनका अपमान करती है.
८ मार्च का इंटरनेशनल विमेन्स डे महिलाओं को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए मनाया जाता है या पिछडा हुआ बनाने के लिए? जरा सोचिएगा. और सूचित कीजिएगा.
पान बनारसवाला
कार्येषु मंत्री,
करणेषु दासी,
भोज्येषु माता,
शयनेषु रंभा.
धर्मानुकूला क्षमया धरित्री,
भार्या च षाड्गुण्यवतीह दुर्लभा.
(गरुड पुराण, पूर्व खंड, आचार कांड ६४/६)
कामकाज के समय मंत्री,
गृहकार्य में दासी,
भोजन के समय माता,
रति के समय रम्भा,
धर्म में सानुकूल
क्षमा के समय धरित्री (पृथ्वी)
ये छह गुण जिसमें हों, ऐसी पत्नी मिलना दुर्लभ होता है.