न्यूज़ व्यूज़: सौरभ शाह
(newspremi.com, सोमवार, १७ फरवरी २०२०)
अंग्रेजी में जिसे डिस्सेंट कहा जाता है उस असहमति के लिए हिंदी में सुंदर शब्द है मत भिन्नता. सारी दुनिया किसी तरह टिकी रहती है जब मत भिन्नता का आदर किया जाता है, उसका दमन नहीं किया जाता. किसी एक विचार का, एक बात या एक मत का मैं समर्थन करूं और आप उसका विरोध करें, ऐसा संभव है. मुझे आपकी मत भिन्नता का आदर करना चाहिए. यही स्वस्थ नजरिया है और लोकतांत्रिक राष्ट्र व्यवस्था तथा लोकतांत्रिक जीवन पद्धति का ये मूल है. लेकिन अभी मेरी खिडकी के बाहर सूर्योदय हो रहा, आसमान में लालिमा छाई हुई है, और आप `मत भिन्नता’ के नाम पर कहें कि ये सूर्योदय थोडी है, सूर्यास्त है, तब मुझे क्या करना चाहिए? क्या `मत भिन्नता’ के नाम पर आपकी मूखर्ता का आदर करना चाहिए? निरी आंखों से दिख रहे सूर्योदय को जानबूझकर सूर्यास्त कहकर मेरे रंग में भंग डालनेवाले को क्या लोकतंत्र के नाम पर सह लेना चाहिए? नहीं. ऐसे लोगों को समझाने की कोई जरूरत नहीं है. वे लोग शरीर के एक विशिष्ट भाग पर पद प्रहार करने लायक होते हैं.
गांधीजी के साबरमती आश्रम में नॉन तो ठीक और भी कई सारी पाबंदियां थीं. गांधीजी आश्रम चला रहे थे, धर्मशाला या पिकनिक स्पॉट नहीं. आश्रमों के अपने नियम हुआ करते हैं. जो गांधीजी की अपनी विचारधारा में जन्मे होते हैं. यहां आकर आपको अनिवार्य रूप से रहना है, ऐसा तो गांधीजी किसी से नहीं कहते. लेकिन यदि यहां आकर रहने का निश्चय कर ही लिया है तो फिर आपको यहां के नियमों का पालन भी करना होगा. मत भिन्नता के नाम पर आप यहां आकर अपनी मनमानी नहीं कर सकते. ऐसा साबरमती आश्रम का अलिखित नियम था.
असहमति या मत भिन्नता स्वीकार्य है लेकिन खुद को जो अच्छा नहीं लगता, उसके बारे में अफवाहें फैला कर निर्दोषों को गलत राह पर ले जाना, दिखावा करना, समाज में अशांति फैलाना, मत भिन्नता की आड में देश में विभाजनकारी कृत्य करना, नागरिकों में असंतोष पैदा करना, दावानल जैसी परिस्थिति पैदा करना, दो संप्रदायों के बीच बेकार में तनाव पैदा करना, सिविल वॉर की तैयारी करना और देश के सम्मानित नेताओं के खिलाफ जहर उगलना- ये सब डिस्सेंट की व्याख्या में नहीं आता योर ऑनर. आप तो जानते हैं. मत भिन्नता के बारे में आपके विचित्र विचारों को मैं अभी शांति से, धैर्य से, एक एक दलील को आपके सामने रखकर जो असहमति दर्शा रहा हूं वह सही मायने में मत भिन्नता है. डिस्सेंट इसे कहा जाता है, चंद्रचूड साहब.
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस धनंजय यशवंत (डी.वाई.) चंद्रचूड एक ऐसे प्रतिभाशाली परिवार से आते हैं जिसने हमें सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस यशवंत विष्णु (वाय.वी.) चंद्रचूड दिया है. जिनके नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने १९८५ में शाहबानो केस का लैंडमार्क फैसला दिया था. सुप्रीम कोर्ट इस फैसले को राजीव गांधी की सरकार ने संसद में प्रचंड बहुमत होने के कारण निरस्त कर दिया. उनके यही सुपुत्र जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड यदि कोई अप्रत्याशित बात नहीं होती है तो २०२२ में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बनने की कतार में हैं.
अभी अहमदाबाद में जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड ने एक सार्वजनिक भाषण में सीएए का प्रत्यक्ष संदर्भ लिए बिना डिस्सेंट के बारे में थोडी चालाकी दिखाई और थोडी गड़बड़ हो गई. बाल की खाल निकाले बिना छटक कर निकलने का रास्ता खुला रखकर, कॉन्ट्रोवर्सी खडी करनेवाले कई लोग मैने सार्वजनिक जीवन में देखे हैं. पर्सनल लाइफ में भी देखे हैं. आपने भी देखे होंगे. विद्वानों को उसमें भी कानून के विशेषज्ञों को ये बहुत बड़ी बीमारी है.
वे स्पष्ट बोले बिना सार्वजनिक रूप से ऐसे बयान देते फिरते हैं कि कोई उन्हें अटका न सके.
वैसे योर ऑनर, आप जिस स्कूल में पढ़े हैं, उस स्कूल के हम…. समझ गए ना? सेकुलर्स या वामपंथी या सेल्फ प्रोक्लेम्ड लिबरल्स को दो किलोमीटर दूर से ही सूंघ लेते हैं, इतनी तेज नाक भगवान ने हमें दी है.
चंद्रचूड साहब को समझना चाहिए (और वे समझते भी हैं) कि अहमदाबाद में दिए गए उनके व्याख्यान को मीडिया किस तरह से लेगा. सीएए के संदर्भ में शाहीनबाग में चल रही राष्ट्र विरोधी बदमाशी को जस्टिफाई करने के लिए अपना यह भिन्न मत या डिस्सेंटवाला बयान उपयोग में लाया जाएगा, इस बात की जानकारी उन्हें है और इसीलिए उन्होंने ऐसा किया है.
जस्टिस चंद्रचूड की सुप्रीम कोर्ट की नौकरी जारी है. वे निवृत्त नहीं हुए हैं. उन्होंने अपने कर्तव्य के तहत भी यह हंगामेदार बयान नहीं दिया है. हम ऐसे लोगों को क्या सिखाएं, उन्हें तो पता ही होगा (पिता चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया थे.) कि जज साहबान को ऑनरेबल रहने के लिए किस तरह की तहजीबों का पालन करना पडता है. सुप्रीम कोर्ट तथा हाईकोर्ट के ही नहीं बल्कि सेशन्स तथा फर्स्ट क्लास मैजिस्ट्रेट की अदालतों के जज साहबान के लिए भी अदालतों में आने जाने के लिए अलग से सीढियां और अलहदा लिफ्टें होती हैं ताकि श्रीमान की पद की गरिमा बरकरार रहे और उससे भी बड़ी बात कि- उन्हें `फालतू’ पब्लिक के संपर्क में न आना पड़े.
हर कक्षा के जज साहब के लिए अलिखित नियम है कि उन्हें हम जैसी `फालतू’ पब्लिक से दूर रहना चाहिए. कई जज साहब स्ट्रिक्टली इस नियम का पालन करते हैं और सामाजिकता की खातिर वे क्लबों या समारोहों में जाना भी टालते हैं. अपने ब्रदर जज साहबान के साथ मिलना जुलना तथा पारिवारिक समारोहों तक ही उनकी सोशलाइजिंग सीमित होती है ताकि अन्य लोग उन्हें एक या अन्य तरह से प्रभावित न कर सकें.
लेकिन कुछ बातूनी जज साहब नौकरी जारी रहने के बावजूद अपना मत फैसले में लिखने के बजाय सार्वजनिक भाषणों में डालते रहते हैं. ऐसे कई जजसाहब हो गए. जस्टिस चंद्रचूड उसी में से एक हैं.
शाहीनबाग की चाल को तथा देश में अनेक जगहों पर उकसाने के लिए आयोजित किए जा रहे प्रदर्शनों को आप सीएए के प्रति असहमति दर्शाना नहीं कह सकते. ये प्रदर्शन मत भिन्नता की अभिव्यक्ति नहीं हैं, डिस्सेंट का प्रदर्शन नहीं हैं- सिविल वॉर करने की पूर्व तैयारी है. असमहति इसे कहते हैं. जब जस्टिस चंद्रचूड के बयान के विरोध में लेख लिखा जाय तो उसे डिस्सेंट कहा जाता है. लेकिन जस्टिस चंद्रचूड अपने बंगले से बाहर न निकल सकें, इस प्रकार से पांच हजार लोगों की भीड प्रदर्शन करने के लिए जुट जाए तो क्या इसे मत भिन्नता कहा जाएगा? अब आप ही बताइए जस्टिस चंद्रचूड साहब.
साहब के इस तूफान मचानेवाले बयान से वामपंथी पिल्ले तो मौज में आकर फ्रंट पेज पर और प्राइम टाइम में उछल कूद करने लगे हैं. खैर जाने दीजिए. ऐसे पिल्लों को कच्चा चबा जानेवाले राष्ट्रप्रेमी उनकी तुलना में काफी बडी संख्या में हैं. जज साहब जैसे धिक्कार करनेवाले धीरे धीरे बढेंगे. क्योंकि प्राइम मिनिस्टर ने `टाइम्स नाव’ की समिट में साफ कह दिया है: `ये तो अभी ट्रेलर है.’
आगे क्या क्या आनेवाला है इसकी जानकारी मोदी को है, शाह को है. हमे भी जानते हैं. और शाहीनबाग वाले तथा जज साहबों को भी पता है. इसीलिए ही तो बारिश से पहले मेड बनाने की कोशिश हो रही है- डिस्सेंट की.
आज का विचार
पिता के साथ असहमत होनेवाले पुत्र को अब शांति से बैठकर अपनी मत भिन्नता के बारे में उन्हें समझाना चाहिए, पास पडोस में सुनाई दे इस तरह से घर में शोर नहीं मचाना चाहिए.
– चाणक्य का घर जवांई
एक मिनट!
पत्नी: खाली बैठे हो तो जरा कपडे धो दो.
पति: वर्ना?
पत्नी: वर्ना मैं धो डालूंगी….आपको.