सच्चे रचनाकार की पहचान उसके शब्द-उसकी शैली हैं, न कि उसकी तस्वीर

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, मंगलवार, १९ मार्च २०१९)

१९४७ में सात दशक पहले, दिलीप कुमार की एक फिल्म आई थी- ‘जुगनू’. उसमें मोहम्मद रफी ने अभिनय भी किया था. एक सीन में दिलीप साहब और रफी साहब एक साथ हैं और रफी साहब गा रहे हैं: ‘वो अपनी याद दिलाने को एक इश्क की दुनिया छोड गए, जल्दी में लिपस्टिक भूल गए, रुमाल पुराना छोड गए.’

गुलजार साहब ने ‘बंटी और बबली’ के कजरारे वाले गीत में ‘पर्सनल से सवाल’ का उपयोग करने से दशकों पहले हिंदी फिल्मों में अंग्रेजी शब्दों का अनायास ही उपयोग हो रहा था. गुलजार से एक बार ए.आर. रहमान ने ‘साथिया’ के ओ हमदम वाले गीत में सनम शब्द का उपयोग करने के लिए कहा था. गुलजार ने पूछा: क्यों? तब रहमान ने कहा: मैने ट्यून कंपोज करते समय डमी शब्द डाले हैं जिसमें सनम शब्द आया था जो कि अब मेरी जबान पर चढ गया है, उसके बिना मुझे गीत अधूरा लगेगा. गुलजार साहब ने कहा: रहमान, मैं इस शब्द का उपयोग अपने गीत में नहीं करूंगा. रहमान ने पूछा: क्यों? क्या इसका कोई उल्टा अर्थ भी निकलता है? गुलजार साहब कहते हैं : नहीं. लेकिन सनम शब्द हिंदी फिल्मी गीतों में इतनी बार घिसा गया है कि उसकी चमक अब बिलकुल फीकी पड चुकी है.

गुलजार कहते हैं कि ‘बलम’ का हाल भी ऐसा ही है, लेकिन ग्रामीण परिवेश का जब गीत होता है तब मुझे ‘बलम’ शब्द’ का उपयोग अगर करना पडे तो जरूर करूंगा.

जीवन में आप क्या क्या करते हैं, यह जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण है आप क्या क्या नहीं करते हैं. जीवन की ये बात हर व्यक्ति के काम के लिए भी लागू होती है. लिखने के काम पर भी यह बात खरी उतरती है.

‘हर रचनाकार का मिजाज हमेशा उसके काम में झलकता है- चाहे वह सिंगर हो, चित्रकार हो, संगीतकार हो,’ ऐसा गुलजार ने नसरीन मुन्नी कबीर को दिए अत्यंत दीर्घ इंटरव्यू की किताब जिया जले में कहा है: ‘आपकी लेखन शैली से, शीर्षक और उपशीर्षक बनाने की शैली से ही भी आप पहचान जाते हैं. आप कैसे शब्दों का चयन करते हैं. (और किन शब्दों का उपयोग नहीं करते, इससे आप अनूठे बनकर दूसरों की तुलना में एक स्तर ऊँचे उठ जाते हैं.’

जावेद अख्तर ने एक बार गुलजार साहब से कहा था: ‘मैं जब कोई गीत सुनता हूँ तब उसकी पहली पंक्ति से ही बता देता हूँ कि ये गीत आपने लिखा है.’

गुलजार साहब कहते हैं कि,‘मेरे लिए ये बडा कॉम्प्लीमेंट था, क्योंकि मुझे पता है कि किसी भी रचनाकार के लिए उसकी अलहदा आवाज खडी करने का काम कितना कठिन होता है. जावेद साहब कवि हैं और बहुत ही अच्छे गीतकार हैं, इसीलिए उनके शब्दों का मूल्य मेरे लिए बहुत बडा है. मैंने उनकी कविता पढी है और मुझे भी पता चल जाता है कि फलॉं गीत उन्होंने लिखा है. उदाहरण के लिए उन्हें उपमा अलंकार का उपयोग करना बहुत ही अच्छा लगता है (एक लडकी को देखा तो ऐसा लगा, जैसे खिलता गुलाब, जैसे शायर का ख्वाब, जैसे उजली किरण, जैसे बन में हिरन, जैसे चॉंदनी रात, जैसे नग्मे की बात, जैसे मंदिर में हो एक जलता दिया…..’ मैं इंदीवर, हसरत जयपुरी और शकील बदायुनी के गीतों को भी पहचान सकता हूँ. वे कौन से शब्द पसंद करते हैं, उसके आधार पर ध्यान में आ जाता है कि कौन सा गीत किसने लिखा है.’

गुलजार इस पडाव पर कविता के अनुवाद की प्रक्रिया के बारे में एक महत्वपूर्ण बात करते हैं. (कविता के अनुवाद के बारे में गुजराती के लेखक सुरेश दलाल ने एक बार अपने अनूठे अंदाज में लिखा था:‘कविता का अनुवाद करना इत्र की एक शीशी से दो शीशियॉं भरने जैसा कार्य है. थोडी सी सुगंध तो कम हो ही जाती है.’ सुरेशभाई की इस अभिव्यक्ति को कई उठाईगिरों ने इस तरह से इस्तेमाल किया है मानो वे उन्हीं के शब्द हों. भगवान उनका भला करें. गुलजार साहब कहते हैं कि ‘किसी कविता का अनुवाद करते समय मैं उस कवि ने जो चित्र खडा किया है उससे बंधता नहीं हूँ. मैं तो कविता के शब्द मुझमें जो भाव पैदा करते हैं, उन भावों की उंगली थाम कर अनुवाद करता हूँ. वह शब्दश: अनुवाद नहीं होता. कवि अपनी कविता में क्या कहना चाहता है, काव्य का केंद्रीय विचार क्या है, उसके आधार पर अनुवाद होता है.’

अब सुनिए अधिक महत्वपूर्ण बात: ‘अनुवाद करते समय प्रास मिलाने की माथापच्ची करने के कारण आपको ऐसे ऐसे शब्दों का उपयोग करना पडता है जो बिलकुल ही अनुकूल नहीं होते. कविता का अर्थ, उसके पीछे निहित विचार महत्वपूर्ण होता है, न कि प्रास (यानी रदीफ-काफिये का मेल).’

गुलजार-नसरीन मुन्नी कबीर की बातचीत का दौर कल आगे बढाने से पहले आज के लेख की शुरुआत में गुलजार साहब ने जो बात की उसे विस्तारित करते हैं, थोडी सी निजी बात करके. मार्केटिंग के जमाने में कई लेखक अपनी पुस्तकों पर अपनी बडी बडी तस्वीरें छपवाने का आग्रह करने लगे थे, ये उस जमाने की बात है. कई तो अंतिम पेज पर संपूर्ण रूप से अपनी तसवीर का उपयोग करने का आग्रह करते हैं तो कई लोग प्रकाशक पर दबाव डालते हैं कि अंतिम पेज पर नहीं, बल्कि पूरे मुखपृष्ठ पर छा जाय इस तरह से अपनी फोटो छपवाना चाहते हैं.

मेरा दृढ विश्‍वास है कि जिस प्रकार ऐक्टर को अपने विचार उसके पाठकों तक नहीं पहुँचाने होते हैं, उसे अपनी पहचान अपने चेहरे के माध्यम से दर्शकों तक पहुँचानी होती है. इसीलिए अभिनेताओं की तस्वीर जितनी भी छपे, वह कम होती है. उनके प्रोफेशन के लिए उनकी तस्वीरें छपें, छपती रहें, ये जरूरी होता है, लेकिन लेखक-कवि-उपन्यासकार-साहित्यकार-पत्रकार को अपना चेहरा पाठकों तक नहीं पहुँचाना होता बल्कि उसे अपने विचार अपनी अनूठी शैली में पाठकों तक पहुँचाने होते हैं. इसीलिए मेरी पुस्कों के विभिन्न प्रकाशकों ने जब भी मेरी फोटो मेरी पुस्तक में छापने की बात की, मैने उनसे कहा है कि: ‘मैं थिएटर में या किसी सार्वजनिक स्थान पर जाऊँ और पाठक मुझे देखकर पचहना ले तो मुझे संतोष मिलने का एहसास बिलकुल नहीं होगा. लेकिन भेलपुरी या सींग चना खाते समय पाठक को खोलकर पढने की आदत होती है और मेरी कॉलम के हिस्सेवाला कागज या मेरे उपन्यास के किसी अध्याय के पृष्ठ को किसी मैगजीन के पन्ने पर पढकर, और उसमें से मेरा नाम कट गया हो, तब भी वह पढकर बता दे कि ये लेखन और किसी का नहीं हो सकता, बल्कि सौरभ शाह का ही हो सकता है, तो मुझे रीयली खुशी होगी.’

खैर पसंद अपनी अपनी. अब तो सोशल मीडिया का जमाना है. आपकी डीपी या आपके प्रोफाइल पिक्चर्स के कारण लोग आपको पहचान लेते हैं- ऐसा तर्क मेरे प्रकाशक ने हाल में दिया था, इसीलिए अंत में मैने अपनी फोटो छापने की अनुमति दे दी, लेकिन अब भी गुलजार साहब की बात तो सौ प्रतिशत सत्य ही है. रचनाकार का अपनी रचना के जरिए पहचाना जाना ही उसकी असली महत्ता है.

आज का विचार

कइयों का मौन ही,

संसार में होता है शोभनीय,

औ’ कइयों की बातें ही,

देती हैं आनंद के अवसर,

आदतन करता फरियाद है

इंसान वर्षों तक,

असल में जन्म लेने के बाद

बस आनंद ही आनंद है.

-हेमांग नायक

एक मिनट!

पका: हे बका, क्या होली खेलते समय पानी की बर्बादी को रोका नहीं जा सकता?

बका: हे, वत्स! ग्लोबल वॉमिंग के बिना भी डायनासोर लुप्त हो गए. तो तुम अपनी मस्ती में होली खेलो!

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