एक्स-रे और अपने दोष किसी को भी दिखाने नहीं चाहिए: आचार्य विजय रत्नसुंदरसुरीश्वरजी

गुड मॉर्निंग एक्सक्लुसिव – सौरभ शाह

(रविवार – ७ अक्टूबर २०१८)

खेत के चारों ओर बाड लगाने के पीछे किसान का क्या उद्देश्य होता है? खेत को बंधक बनाना या खेत की रक्षा करना.

खेत में घुसकर कोई प्राणी या मनुष्य फसल को नुकसान न पहुँचाए इसीलिए उसे सुरक्षा प्रदान करने के लिए बाड लगाई जाती है. ऐसा करने से खेत पर कोई रिस्ट्रिक्शन नहीं आ जाता.

यह उदाहरण और ये समझ एक उच्च कोटि के राष्ट्रीय संत से सुनने को मिलती है. आचार्य विजय रत्नसुंदरसुरिश्वरजी महाराज साहेब केवल जैन धर्म का दर्शन नहीं समझातेल बल्कि जीवन की अनेक बारीक बातों की गहराई में उतरकर, अच्छी रोचक शैली में इस तरह से रखते हैं कि किसी भी धर्म के अनुयायी के हृदय को वह स्पर्श करती है. उनकी ३०० से अधिक गुजराती पुस्तकें तथा उन पुस्तकों के हिंदी-अंग्रेजी सहित कई भारतीय – अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं में हुए अनुवादों द्वारा करोडों पाठकों को उनके इस ठोस चिंतन का लाभ मिल रहा है. ३००वीं पुस्तक का विमोचन नरेंद्र मोदी के हाथों हुआ था. अब वह आंकडा साडे तीन सौ के पार पहुंच रहा है.

वे खुद अपने मोती के दानों जैसे हस्ताक्षर में पुस्तकें लिखते हैं जो मानो गणपति से स्पर्धा कर सकते हैं. ७१ वर्ष की उम्र में भी युवाओं को भी शर्मा दे इतनी तेजी से और तनकर चलते हैं और प्रवचन स्थल पर प्रवेश कर एक घंटे तक अस्खलित वाणी से श्रोताओं के मन-मस्तिष्क पर हमेशा के लिए आधिपत्य स्थापित कर लेते हैं. मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर से एक घंटे की दूरी पर बसे बडनगर तहसील में वे चातुर्मास कर रहे हैं. प्रति दिन आसपास के सैकडों पंथानुयायी उनका प्रवचन सुनने के लिए बडनगर आते हैं. हमने भी इसका लाभ लिया.

महाराज साहेब की एक बात काफी साल पहले अपने कल्याण के मित्र से सुनी थी जो प्रवचन के दौरान फिर से ध्यान में आई. दो और दो चार ही क्यों होते हैं? पांच या तीन क्यों नहीं? इसीलिए क्योंकि कभी किसी को देना हो तो हमें दो धन दो बराबर तीन करने की लालच न हो और लेना हो तब पांच की लालच पैदा न हो. इतनी सीख देने के वर्षों बाद गुरुदेव ने कल्याण के मित्र से कहा था कि अब वो समय आ गया है कि जब किसी को देना हो तो दो और दो बराबर पांच की गिनती शुरू कीजिए. और किसी से लेना हो तब तीन की ही आशा रखिए.

दोष किसमें नहीं हैं? लेकिन ये दोष दूर नहीं होते. इसका क्या कारण है? महाराज साहब कहते हैं कि दोष का निवारण करने की पहली सीढी है दोष को स्वीकार करना. हम डॉक्टर के पास जाकर शारीरिक रूप से जो भी तकलीफ होती है उसके बारे में बिलकुल सच्चाई से बता देते हैं. पैर की बीमारी हो तो उसके बारे में, पेट की तकलीफ हो तो उसके बारे में स्पष्टता से डॉक्टर को अवगत कराते हैं. डॉक्टर को सच्चाई की जानकारी हो इसके लिए एक्स-रे निकाल कर उन्हें दिखाते हैं. रोग का निवारण करने के लिए जैसे डॉक्टर है उसी प्रकार से दोषों का निवारण करने के लिए संत-महात्मा हैं. दोष की स्वीकृति योग्य व्यक्ति के सामने ही करनी चाहिए. अपना एक्स-रे हम किसी को भी दिखाते फिरते नहीं हैं. जिसे एक्स-रे देखने का अधिकार है उसी को दिखाते हैं. दोष की स्वीकृति भी सबके सामने नहीं करनी चाहिए.

महाराज साहेब ने इस संदर्भ में एक अद्भुत बात कही है. डॉक्टर आपको स्वास्थ्य प्रदान नहीं करते. आपका रोग दूर करते हैं. रोग दूर होते ही आपमें निहित स्वास्थ्य प्रकट हो जाता है, जो कि रोग के कारण ढंक गया था. महापुरूष-संत आपको गुणवान नहीं बनाते, वे आपके दोषों की स्वीकृति को सुनकर उसका निवारण करने के लिए आपका मार्गदर्शन करते हैं और इस दोष, या दुर्गुण के दूर होते ही हमारे भीतर निहित सद्गुण प्रकट हो जाते हैं. हर मनुष्य में सभी गुण हैं. कोई भी महापुरुष आपमें नए गुण नहीं डालता, बल्कि सृजनकर्ता ने ऑलरेडी प्रत्येक मनुष्य को वे गुण दिए हैं. संत हमारे अंदर निहित दुर्गुणों को दूर करके सद्गुणों को उभारते हैं, जो हमारे हैं उनके साथ हमारा परिचय करवाते हैं. महाराज साहेब की ये मौलिक बात है, बहुत ही बडी बात है.

साहेबजी और भी गहराई में ले जाते हैं. पांच बातें समझाते हैं. पहली बात- मनुष्य को अर्जनशील बनना है. अर्जन करना यानी कमाई. धन के अलावा अन्य वस्तुएँ कमाने की बात है. अच्छी अच्छी जीवनोपयोगी बातें, नीति-रीति और सिद्धांत, उदारता और प्राणी मात्र पर दया – ये सब कमाने की बात है. अर्जनशील बनने के बाद संग्रहशील बनना है. जो कमाया है उसका संग्रह करना. जो कुछ भी कमाया है वह सब खर्च कर देना नहीं होता. बचाना होता है. बचत करने की आदत हो गी तो ही तीसरे दौर में पहुंचा जा सकेगा. तीसरा चरण है वर्धनशील बनने का. कमाई और बचत में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहनी चाहिए. अन्यथा उसमें क्रमश: कमी होती जाएगी और अंत में वह नामशेष हो जाएगी. चौथा चरण है निग्रहशीलता का. निग्रह अर्थात नियंत्रण. प्रत्येक प्रवृत्ति पर काबू रखना, उस पर लगाम लगाना. पानी गंगा का हो या गटर का- यदि उसे ढलान मिलेगी तो उसकी दिशा नीचे की तरफ ही रहेगी. संयमी पुरुषों को भी ऐसी ढलान से बचना चाहिए. अंत में आता है पांचवां चरण. वो है उपग्रहशील बनने का चरण. उपग्रह यानी उपकार. उपकार के बिना जीवन नही चल सकता. हमारी मदद करनेवाले तो हम पर उपकार करते ही हैं, जो लोग हमारे आडे नहीं आते हैं, वे भी हमारे बीच में नहीं आकर उपकार ही करते हैं.

महाराज साहेब से विदा लेते समय एक ऐसी बात सुनी जो हमेशा के लिए मस्तिष्क पर अंकित रह जाएगी. मुंबई लौटने तक रास्ते में लगातार यह बात याद आती रही. लाभ कमाना है तो व्यवसाय करना होगा, दुकान पर बैठना होगा, दस दिन तक ग्राहक न आएं तो भी रोज दुकान पर बैठना होगा. लाभ होना होगा तो वह दुकान खुली रखकर व्यापार करने से ही होगा. ग्राहक नहीं आने की बात कहकर शटर गिरा कर घर पर बैठे रहेंगे तो कभी भी मुनाफा नहीं होगा.

आचार्य विजय रत्नसुंदरसुरीश्वरजी महाराज साहेब की सैकडों पुस्तकों में निहित विचार सामग्री के बारे में यदि बात करने बैठूंगा तो आनेवाले चार दशकों तक मुझे रोज एक कॉलम उस बारे में लिखना होगा. इनमें से एक अद्भुत पुस्तक `वन मिनट प्लीज’ में माता सरस्वती के आशीर्वाद से वेद-उपनिषद-गीता की बराबरी में रखे जा सकते हैं ऐसे सटीक और जीवनोपयोगी मौलिक सूत्र गुरुदेव ने रचे हैं जिसमें डुबकी लगाने पर मोतियों का भंडार मिलेगा. कल से एक छोटी श्रृंखला द्वारा इस मोतियों की माला के सौंदर्य को निहारेंगे. यह लघु लेखमाला आप www.newspremi.com पर गुजराती में तथा   https://www.newspremi.com/hindi/ पर हिंदी में पढ सकते हैं.

 

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