मकर संक्रांति से पहले के दिनों को खर मास क्यों कहा जाता है

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, मंगलवार – १५ जनवरी २०१९)

आप एक व्यवसाय शुरू करते हैं. वह नहीं चलता है. नुकसान सहने के बाद उसे बंद करने का विचार करने लगते हैं. इस परिस्थिति में भविष्य में नया क्या करें, यह सोचने के बदले कुछ देर ठहर जाने में ही समझदारी है.

आपकी नौकरी छूट गई या फिर छोड दी. तुरंत दूसरी नौकरी के बारे में फैसला करना थोडा जल्दबाजी का कदम लगेगा.

आप जिसके प्यार में थे उस व्यक्ति ने आपको छोड दिया या फिर वह आपको छोडकर चला गया. आपका तलाक होने की स्थिति है. आपके जीवनसाथी की अकाल मृत्यु हो जाती है. ऐसे समय में नए प्रेमी, नए जीवनसाथी, नए स्पाउज की तलाश करने के बजाय या कोई सामने आ जाय तो उसे तुरंत स्वीकार कर लेने के बजाय परिस्थिति के सहज होने तक इंतजार करना चाहिए.

जीवन में जब जब भी परिवर्तन का दौर आता है, संक्रांति का समय आता है, तब उस अवधि को कुमुहूर्त मानकर कोई भी फैसला नहीं लेना चाहिए.

एक छोटी सी निजी बात. १९८५ के जनवरी मास का पहला सप्ताह. हरकिशन मेहता ने मेरे सबसे पहले उपन्यास को धारावाहिक स्वरूप में प्रकाशित करने का निर्णय लिया था और मुझे उन्हें इस उपन्यास के कुछ नाम सुझाने थे, जिसमें से वे अपना मनचाहा एक विकल्प चुन सकें. मैं एक कागज पर करीब सात शीर्षक लिख कर ले गया. उस समय कार्टूनिस्ट नारद भी वहां थे. हरकिसनभाई ने सभी नाम पढे. कुछ इधर उधर की बातें कीं और कोई भी निर्णय लिए बिना मुझे विदा कर दिया.

दो सप्ताह बाद पाठकों में मेरे पहले उपन्यास के नाम की घोषणा हुई और उसके बाद नारदजी मुझे मिले तक उन्होंने कहा: `हरकिसनभाई ने उसी दिन तुम्हारे द्वारा दिए गए सात नामों में से `वेर – वैभव’ शीर्षक पसंद कर लिया था. लेकिन आपके जाने के बाद मुझसे कहा कि लडके का पहला उपन्यास है, मकर संक्रांति बीच में आ रही है, इसीलिए उत्तरायण के बाद घोषणा करेंगे.’

यह छोटी सी घटना मेरे लिए बहुत बडी बात थी. तथाकथित साइंटिफिक मिजाज के इंटेलेक्चुअल्स कहेंगे कि मकर संक्रांति से पहले शीर्षक घोषित होता या उसका विज्ञापन किया होता तो भी उपन्यास तो वही का वही था. ऐसा अंधविश्वास किसलिए‍?

भारतीय परंपरा की ऐसी अनेक शकुन-अपशकुन या मुहूर्त-कुमुहूर्त की बातों को हमारे ही देश के लेफ्टिस्ट मानसिकतावाले लताडते हुए खुद को बुद्धिजीवी बताते रहते हैं. और यदि हमें भी उनकी तरह इंटेलेक्चुअल दिखना होगा तो ऐसे सारे `अंधविश्वासों’ से दूर जाना पडेगा, ऐसा हमारे दिमाग में भर दिया गया है.

अमावस्या को अशुभ माना गया होगा क्योंकि उस जमाने में बिजली नहीं थी. अमावस्या की रात के अंधेरे में कोई भी व्यक्ति न करने लायक काम करके आपका अहित कर सकता है. उपवास का महत्व स्वास्थ्य से जुडा था- विशेषकर वर्षा ऋतु के दिनों में. सूर्यग्रहण के समय घर से बाहर नहीं निकलने की परंपरा के पीछे का आशय ये है कि कोई निरी आंखों से सूर्यग्रहण देखकर अपनी आंख का नुकसान न कर बैठे. खगोलशास्त्र तथा अनेक वैज्ञानिक विषयों में हमारा देश शेष दुनिया से बहुत आगे था. हमारे ज्ञान की इस विरासत को हथिया कर अपने नाम कर लेनेवालों को आज दुनिया पूज रही है. हमारे देश के वामपंथियों ने भी उन उठाईगिरों को पूजने के काम में लगा दिया है. दुनिया जब तेजी से आगे बढ रही थी तब हम अपनी आक्रामकता विहीन नीति के कारण आक्रमणकारियों का शिकार बने. कोई आपका पर्स चुरा ले जाए तो आपको दूसरे का पाकिट मारकर खुद को हुए नुकसान की भरपाई करने की जरूरत नहीं है. आप अपने पाकिट की रक्षा कर सकें, इतनी ताकत तो आपमें जरूर होनी चाहिए. इस बारे में हम बोध लेकर अब सक्षम हुए हैं लेकिन हमें दूसरों की तरह लोगों को गुलाम बनाने, साम्राज्यवाद का विकास करने या दूसरों पर आक्रमण करने की आवश्यकता नहीं है. भारतीय परंपरा के अनूठे पहलुओं को समझें, मानें, जीवन में उतारें. आयुर्वेद, योग, प्राणायाम को अभी तक दुनिया स्वीकार नहीं करती थी और हम भी अपने देश के चंद साधारण लेफ्टिस्टों के कारण भ्रमित होकर ऐसा कहते थे कि `ऐसी पुरातन आरोग्य व्यवस्था में हमारा विश्वास नहीं है’ और अभी तक खुद को वेस्टर्न मेडिसिन पर `विश्वास’ रखने की बात कहते हुए खुद को `आधुनिक’ बताया करते थे. अब हमें अक्ल आई है. धीरे धीरे और भी कई बातों में अक्ल आनी है. गौमांस के नाम हिंदू समाज की आलोचना करनेवाले राजनीतिक उठाइगीरों ने मीडिया में आए एक महत्वपूर्ण समाचार को बिलकुल दबा दिया. गूगल करके देख लीजिए. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के प्रमुख ने स्विट्जरलैंड के डेवोस स्कीइंग रिसॉर्ट में आयोजित सम्मेलन में फोरम के सभी धनवान देशों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में अभी क्या कहा है पता है? कहा कि यदि इस दुनिया में यदि बीफ (गौमांस) न खाया जाए तो डायट संबंधी मौतों में २.४ प्रतिशत की कमी आ जाएगी, ऐसे अध्ययन को हम स्वीकार करते हैं और अमीर देशों में बीफ खाने की मात्रा अधिक होने के कारण वहां पर वहां पर तो मृत्यु दर में करीब पांच प्रतिशत की कमी आ जाएगी. प्रोटीन-विटामिन इत्यादि के लिए मांसाहार करना अनिवार्य नहीं है- अनाज, साग-सब्जियां, फल इत्यादि से यह पर्याप्त मात्रा में मिलता है, यह भी उन्होंने कहा है, जो कि हम सदियों से कहते आए हैं.

जो बातें जिस जमाने में प्रासंगिक होती हैं उनकी निंदा नहीं करनी चाहिए. उनमें से कई बातें तो आज भी प्रासंगिक होंगी. उनमें से कई बातें आज शायद प्रासंगिक न भी हों, इसके बावजूद हम उसका सम्मान कर सकते हैं तथा यदि किसी के लिए हानिकारक न हो तो परंपरा तथा संस्कृति के एक अंग के नाते उसे अपना सकते हैं.

अंग्रेजों के आने से पहे हम `धोती-लुंगी’ इत्यादि पहनते थे. पैंट-शर्ट उनकी तुलना में भारत जैसी जलवायु वाले समशीतोष्ण देश में असुविधाजनक है. मोटा जीन्स या कोट-पतलून-टाई पहनना तो निरी मूर्खता है. इसके बावजूद यदि हम उसे संस्कृति के नाम पर अपना सकते हैं तो हमारी परंपरा में आज अप्रासंगिक बन चुकी किसी बात को क्यों नहीं अपना सकते?

आपको लग रहा होगा कि मकरसंक्रांति बीत जाने के बाद यह लेख मैने क्यों लिखा? बस वही कारण है. संक्रांति आडे आ रही थी इसीलिए नही लिखा!

आज का विचार

यू.पी. में मायावती – अखिलेश का गठबंधन: सभी जोडियॉं स्वर्ग में नहीं बनतीं. कई पृथ्वी पर मोदी के खौफ से बन जाती हैं.

– वॉट्सएप पर पढा हुआ

एक मिनट!

बकी: बका, तुम सारा दिन फेसबुक पर फॉरेन की गारियों के साथ चैटिंग क्यों करते रहते हो?

बका: तुम्हें क्या लगता है कि भारत के अंतरराष्ट्रीय संबंधों को सुधारने में अकेले मोदी का ही हाथ है!

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