महाराष्ट्र के गुंडाराज में अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी

न्यूज़प्रेमी डॉट कॉम: सौरभ शाह

(६ नवंबर २०२०)

भारत की राजनीति में जिनका कहीं स्थान नहीं होना चाहिए, ऐसे किसी व्यक्ति का नाम कोई बताने को कहे तो मैं दो नाम दूंगा: भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी की अध्यक्षा बनने की योग्यता नहीं होने के बावजूद पार्टी की सर्वेसर्वा बन बैठी भूतपूर्व इटैलियन वेट्रेस एंटोनियो मायनो जो भारत में सोनिया गांधी के नाम से पहचानी जाती है और उनका प्रौढ़ हो चुका मूर्ख शिरोमणि पप्पू जिसे कई लोग राहुल गांधी के नाम से भी पहचानते हैं.

भारत के सबसे भ्रष्ट राजनेताओं में जिनका नाम पहली पंक्ति में रखा जा सकता है और सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस से अलग होकर नेशनलिस्ट कॉंग्रेस पार्टी नाम का अलग दल बनाकर अंत में कांग्रेस के साथ ही संबंध बनाने वाले अत्यंत धूर्त, शठ और शातिर राजनेता शरद पवार ने महाराष्ट्र में सोनिया- राहुल की कांग्रेस के साथ मिलकर भारतीय जनता पार्टी के तथा प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर मतदाताओं से वोट लेनेवाले के साथ हाथ मिलाया, वह कौन है?

शिवसेना. सरकार तो क्या पंचायत चलाने की भी जिनमें काबिलियत नहीं है ऐसे एक प्रतापी पिता के, बिलकुल नाकाम पुत्र उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनकर किसी जमाने में देश का सबसे प्रगतिशील राज्य माने जानेवाले महाराष्ट्र के गौरव को, महाराष्ट्र में रहनेवाली जनता के गौरव को अपनी सत्ता के बल पर गली के गुंडों को भी जो काम करने से डर लगे, शर्म आए ऐसे ऐसे काम करके कुचल दिया.

उद्धव ठाकरे, शरद पवार और सोनिया. हिंदी फिल्मों में भी कभी आपको तीन विलन्स एक साथ देखने को नहीं मिलेंगे, वे आज आपको महाराष्ट्र की गद्दी पर बैठे हुए दिख रहे हैं.

महाविकास आघाडी के नाम से पहचानी जानेवली महाराष्ट्र की जड़ खोद रही इस तिकड़ी के पापों की पूरी सूची कभी समय आएगा तो गिनाएंगे. अभी इस तिकड़ी के एक महापाप के बारे में बात करते हैं: अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी.

एक सवाल कई भोले भाले लोग पूछ रहें हैं कि एक पत्रकार की गिरफ्तारी के साथ आम जनता का क्या लेना देना. अर्णब गोस्वामी में और अन्य पत्रकारों में एक बड़ा अंतर ये है कि अर्णब बिना किसी निहित स्वार्थ के, रसूखदार लोगों की चापलूसी किए बिना, सच को छिपाए बिना औार राष्ट्र के हित में जो सच है उसे निर्भयता से खुलेआम पक्ष लेकर अपना व्यवसाय कर रहा है. ऐसा काम सभी पत्रकार नहीं कर सकते, करना नहीं चाहते और मान लीजिए कि करना भी चाहें तो उनके पास ऐसी दृढ़ता नहीं होती है या ऐसी बुलंदी भी नहीं होती. अर्णब गोस्वामी रिपब्लिक टीवी के एडिटर इन चीफ हैं. ये मीडिया कंपनी उन्होंने खुद, अपने मित्रों- प्रशंसकों की मदद से खड़ी की है. उनके ऊपर कोई बॉस नहीं है, खुद को जो सच लगता है और देश के लिए जो अच्छा लगता है उसके बारे में स्पष्ट राय रखते समय अर्णब गोस्वामी ने अपनी आजीविका छिन जाने का भय नहीं रखा है. अर्णब गोस्वामी में और अंग्रेजी-हिंदी टीवी चैनल्स पर (या फिर हिंदी सहित अन्य प्रादेशिक भाषाओं के टीवी चैनल्स पर) काम करनेवाले पत्रकारों में एक बड़ा अंतर है. टीवी चैलन्स ही क्यों, मेन स्ट्रीम प्रिंट और मेजर डिजिटल मीडिया में काम करनेवाले अधिकांश प्रत्रकारों के पास भी अर्णब जैसी ख़ुद्दारी, स्वतंत्रता तथा क्षमता का अभाव है.

और यही बात उद्धव को, पवार को, सोनिया को तथा इन तीनों महाबदमाशों के साथ जुडे गांव के गुंडों जैसे कई लोगों को आंख में किरकिरी की तरह चुभ रही है.

अर्णब गोस्वामी जैसे पत्रकार लोकतंत्र में नींव के पत्थर के समान होते हैं. ऐसे पत्रकारों के कारण लोकतंत्र अडिग रहा है. ऐसे पत्रकार अपनी ख़ुद्दारी, स्वतंत्रता और क्षमता द्वारा देश की समस्त जनता की ख़ुद्दारी, स्वतंत्रता और क्षमता की रक्षा करते हैं. इसीलिए अर्णब गोस्वामी पर होनेवाला हर प्रहार हम सभी के अस्तित्व पर होनेवाले प्रहार के समान है- यदि हम लोकतंत्र में मानते हैं तो, यदि हम ख़ुद्दारी से जीने में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में और अपने तथा अपने परिवार के अस्तित्व को अधिक से अधिक सक्षम बनाने चाहते हैं तो.

अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी की घटना के बारे में दस महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में करने से पहले एक बात अधिक स्पष्ट कर देनी चाहिए कि क्यों यह घटना देश के एक एक नागरिक को स्पर्श करती है. भारत में यदि पाकिस्तान की तरह पर्दे के पीछे लश्करशाही होती या चीन की तरह एक ही राजनीतिक दल द्वारा चलाई जा रही राज्य व्यवस्था होती तो इतनी जद्दोजहद की जरूरत ही नहीं पडती. लेकिन भारत में लोकतंत्र है, गणतंत्र है. इतना ही नहीं बस्ती की दृष्टि से भारत संपूर्ण विश्व का सबसे बडा लोकतांत्रिक राष्ट्र है. लोकतंत्र में देश के नागरिक का कर्तव्य केवल चुनाव के समय घर से बाहर निकलकर मतदान केंद्र पर घूमकर आने से पूरा नहीं होता. बाएँ हाथ की पहली उंगली पर बैंगनी रंग का टीका लगा लेने से लोकतंत्र के प्रति तमाम जिम्मेदारियां पूरी नहीं हो जातीं. मतदान तो अनेक में से एक कर्तव्य है. यदि देश के लोकतंत्र को सुरक्षित रखना है, सदा तंदुरुस्त रखना है तो उसका प्रति दिन जतन करनाहोगा. ट्वेंटी फोर बाय सेवन.

अंग्रेजी की एक प्रचलित कहावत है: डेमोक्रेसी इज नॉट अ स्पेक्टेटर सपोर्ट, इट्स अ पार्टिसिपेटरी इवेन्ट. इफ वी डोन्ट पार्टिसिपेट इन इट, इट सीजेस टू बी अ डेमोक्रेसी.

सौ प्रतिशत सही बात है ये. लोकतंत्र कोई किनारे खडे होकर तमाशा देखना नहीं है. लोकतंत्र के खेल में खुद ही भाग लेना चाहिए. लोकतंत्र में यदि आप दर्शक की भूमिका निभानेवाले हैं तो नहीं चलेगा. आपको खुद पानी में डुबकी लगाकर तैरना पडेगा, मैराथन में दौडना पडेगा. रोज सुबह चाय पीते पीते, सरकार क्या कर रही है जैसे सवाल करने के बजाय आप खुद इस लोकतंत्र के लिए क्या कर रहे हैं, यह सवाल खुद से पूछना होगा. हर महीने जैसे अपने घर के नौकरों या दुकान-फैक्ट्री-ऑफिस स्टाफ को वेतन देने के बाद उनसे पूछा जाता है कि आज तुमने कितना काम किया, उसी तरह से पांच साल में एक बार वोट देकर आप हर दिन सरकार से जवाब मांगें कि आज क्या काम हुआ और फलाना काम क्यों नहीं हुआ, ऐसी सेठगिरी के लिए लोकतंत्र में कोई जगह नहीं है. आपको खुद से पूछना है कि देश के एक नागरिक के रूप में जो भी अधिकार मुझे मिले हैं, उसके बदले में आज मैने देश के प्रति कौन कौन से कर्तव्य निभाए, कल क्या करूंगा, परसों क्या… हर दिन पूछना है. तभी इस देश का लोकतंत्र अडिग रहेगा, अक्षुण्ण रहेगा. तभी आपकी भारतीयता की लाज बची रहेगी, आपकी भारतीयता का तेज चमकता रहेगा.

अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी केवल पत्रकारिता के क्षेत्र से जुडा मुद्दा नहीं है. इतना समझ लीजिएगा. ये हम सभी के दिन प्रति दिन के जीवन से जुडी बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है. दस मुद्दे:

१. इस वर्ष १६ अप्रैल को मुंबई के करीब पालघर के पास दो निर्दोष साधुओं को पीट पीट कर महाराष्ट्र पुलिस की मौजूदगी में मार डाला गया.

आज से लगभग दो दशक पहले, २३ जनवरी १९९९ को उडीसा के वनवासी लोगों में जोरशोर से धर्मांतरण का काम कर रहे ऑस्ट्रेलियाई पादरी ग्राहम स्टेन्स की हत्या हुई थी, याद है? इसाई प्रेमी वामपंथियों ने सारा देश सिर पर उठा लिया था. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी चिल्लाहट को सुना गया था. सोनिया गांधी सहित कांग्रेसियों ने उस समय इस देश के हिंदुत्व के संस्कारों को लज्जित करने का बडा प्रयास किया था.

महाराष्ट्र के पालघर में बिना किसी अपराध के, पुलिस की मौजूदगी में दो हिंदू साधुओं की बीच चौराहे पर हत्या हो जाती है और महाराष्ट्र की सरकार में हिस्सेदारी रखनेवाली कांग्रेस की अध्यक्षा उस बारे में आश्वासन के दो शब्द भी नहीं बोलतीं.

अर्णब गोस्वामी ने उचित तरीके से यह मुद्दा रिपब्लिक टीवी पर उठाया. जोरशोर से उठाया. परिणाम क्या निकला?‍ सोनिया गांधी का `अपमान’ करने के अपराध में अर्णब पर कांग्रेसी पिट्ठुओं द्वारा देश में जगह जगह पर सैकडों पुलिस शिकायतें दर्ज करवाई गईं. उद्धव सरकार की पुलिस ने सारे केस को गलत रास्ते पर ले जाकर रफा -दफा करने की कोशिश की. जिस पुलिस की मौजूदगी में दो साधुओं की लिंचिंग हुई, उनके नाम एफ.आई.आर. में से गायब हैं. हत्या के आरोपी होने चाहिए थे लेकिन वे पुलिसवाले आज खुले घूम रहे हैं.

ये शुरूआत थी अर्णब गोस्वामी द्वारा उद्धव सरकार की असलियत दिखाने की. प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांगकर चुने गए शिवसेना के विधायकों द्वारा महाराष्ट्र के हिंदूवादी मतदाताओं के साथ द्रोह हुआ है, ये सारी चालबाजी अब खुल रही थी. अर्णब हर दिन सवाल करते, जिसका कोई जवाब सत्ताधीशों के पास नहीं था. अर्णब को चुप किए जाने की कोई संभावना नहीं थी. और यहीं से शुरूआत हुई उद्धव सरकार के इशारे पर कोई भी नीच हरकत करने के लिए आतुर महाराष्ट्र पुलिस की गटरछाप गतिविधियॉं.

२. पुलिस का खौफ दिखाकर उद्धव सरकार केवल अर्णब को चुप कराना नहीं चाहती. सारे देश में फैले अर्णब की पत्रकारिता के करोडो प्रशंसकों और अर्णब की तरह निर्भीक और राष्ट्र निष्ठ पत्रकारिता करनेवाले तमाम पत्रकारों को तथा सोशल मीडिया में अपनी राय व्यक्त करके उद्धव-पवार-सोनिया की कलई खोलकर उनके विरुद्ध जनता को जगाने की कोशिश करनेवाले हर नागरिक को चुप कराना चाहती है. अर्णब गोस्वामी का नाम राष्ट्रीय स्तर पर जाना माना है लेकिन नागपुर के समित ठक्कर नामक गुजराती को बहुत कम लोग जानते हैं, हालांकि ट्विटर पर उनके ६३,००० फॉलोवर्स हैं. इस समित ठक्कर को पुलिस पकड ले गई. क्यों? समित ठक्कर उद्धव ठाकरे या उनके पेंग्विन जैसे दिखने वाले पुत्र के बारे में कुछ `अशोभनीय’ कमेंट कर रहे थे इसीलिए. कोर्ट ने उन्हें १४ दिन की पुलिस रिमांड पर रखने का आदेश दिया. नागपुर की कोर्ट ने अवधि बीतने के बाद उन्हें जमानत दे दी और उसी समय मुंबई पुलिस ने आकर समित ठक्कर को गिरफ्तार कर लिया, उसे मुंबई ले जाया गया. समित की ट्विटर पर केवल एक लिखित घटना थी. उसने किसी को मारने या दंगे करने के लिए किसी को उकसाया नहीं था और न ही किसी की धार्मिक भावना को आहत करने के लिए कोई शब्द लिखे. इसके विपरीत शिवसैनिकों के खिलाफ जब मारपीट की पुलिस शिकायत हुई तब तुरंत ही ये गुंडे जमानत पर छूट गए. कौन सी घटना थी याद कीजिए. दो महीने पहले. ११ सितंबर को मुंबई के एक सेवा निवृत्त नौसेना अधिकारी ने उद्धव का कार्टून व्हॉट्सऐप पर फॉरवर्ड कर दिया जिसके कारण शिवसैनिकों ने उस ६२ वर्षीय मदन शर्मा को कांदिवली पूर्व के लोखंडवाला कॉम्प्लेक्स में उनके घर में घुसकर उन्हें बाहर बुलाकर खूब मारा था. ये सारी घटना सीसीटीवी पर रेकॉर्ड हो गई. आठ से दस गुंडों ने उनके साथ मारपीट की. मदन शर्मा पुलिस में शिकायत करने गए तो पुलिस ने उल्टे उनके ही खिलाफ शिकायत दर्ज की और उन लोगों को तुरंत जमानत पर छोड दिया.

समित ठक्कर का अपराध क्या इन गुंडों से अधिक गंभीर है कि पुलिस बार बार उसे गिरफ्तार कर रही है और कोर्ट भी उसे पुलिस रिमांड में भेज रही है? उद्धव-पवार-सोनिया की सरकार तानाशाही कर रही है: जो हमसे टकराएगा मिट्टी में मिल जाएगा. लेकिन सत्ता के नशे में चूर होकर बेकाबू बन चुकी इस तिकडी को पता नहीं है कि एक समित ठक्कर की जबान बंद करोगे तो अन्य लाखों समित ठक्कर ट्विटर पर, अन्य सोशल मीडिया में, पूरे समाज में आपकी सच्चाई खोलकर रखने से डरेंगे नहीं. आप कितनों को जेल में डालोगे? अर्णब गोस्वामी जैसे पत्रकारों की लेखनी के आप दो टुकडे कर देंगे तो वे पत्रकार पेंसिल के दोनों टुकडों से दुगुना लिखना शुरू कर देंगे. ये पढ रहे सभी पाठकों को आज लगना चाहिए कि जिस लोकतंत्र में आप खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं, ये समय उसी लोकतंत्र को बचाने का है. ये समय दूर खडे रहकर तमाशा देखने का नहीं है, सामने उतर कर गुंडाराज को चुनौती देना का ये अवसर है, जिसे हाथ से निकल जाने देंगे तो एक सुनहरा मौका चूक जाएंगे- इस देश के एक सच्चे नागरिक की तरह कर्तव्य करने का मौका.

(शेष कल)

1 COMMENT

  1. Excellent work of detailed information & analysis
    Paragraphs on democracy are superb

    It’s rightly said that Vigilance is the price of liberty
    We the people must play the vigilante role

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