झंझावाती दौर में बड़े तूफानों का सामना करते करते

संडे मॉर्निंग

सौरभ शाह

चलते चलते जब थकान लगती है, सांस फूलने लगती है और पैरों में जकडन आ जाती है तब आत्मविश्वास की कमी महसूस होती है. ऐसे समय में किसी सहारे की जरूरत पडती है. किसी व्यक्ति या किसी विचार के सहारे की जरूरत. दोनों ही सहारों का अपनी तरह से विशेष महत्व होता है. आपकी तबीयत के जो अनुकूल हो ऐसे सहारे की तलाश लेनी चाहिए. यदि विचारों का सहारा आपकी प्रकृति के अनुकूल हो तो आधी शताब्दि पहले निर्मित हिंदू फिल्म का एक गीत मौजूद है. कई बार आपने सुना होगा लेकिन शायद आप अंतरे तक न पहुंचे हों तो संभव है कि उसके ये तीन शब्द आपके हृदय की गहराई तक न धंसे हों. कौन से तीन शब्द हैं वे?

बताता हूं.

लेकिन इससे पहले जरा इस गीत का बैकग्राउंड निर्धारित करते हैं. एक वातावरण निर्मित करते हैं. देव आनंद की `गाइड’ फिल्म शुरू होती है और टाइटल्स आते हैं तब करीब छह मिनट तक ये गीत होता है. जेल के विशाल गेट से देव आनंद बाहर निकल रहे हैं और कहां जाएं, इस दुविधा को मुखरित करनेवाला गीत शुरू होता है: वहां कौन है तेरा, मुसाफिर जाएगा कहां. दम ले ले घडी भर ये छैंया पाएगा कहां. एस.डी. बर्मन के स्वर में उन्हीं का संगीतबद्ध किया हुआ, शैलेंद्र का लिखा गीत. बाद के दो अंतरे बहुत ही सुंदर हैं, लेकिन हमारे आज के विषय के लिए असंगत हैं. चौथा अंतरा भी वैसा ही है. हमें इसके तीसरे अंतरे का काम है:

तूने तो सबको राह बताई,
तू अपनी मंज़िल क्यों भूला.
सुलझा के राजा औरों की उलझन,
क्यों कच्चे धागों में झूला
क्यों नाचे सपेरा
मुसाफिर जाएगा कहां….

कई बार हम खुद भूल जाते हैं कि हमारा पिंड क्या है, हम किस मिट्टी से बने हैं. एक लंबी जिंदगी बीत चुकी है और उतनी ही लंबी दूसरी ज़िंदगी जीने की आतुरता है. आपने सिर्फ अपनी ही डिफिकल्टी को सॉल्व नहीं किया. आपकी खुली किताब को पढकर दूसरे अनेक लोगों ने अपनी समस्याएं सुलझाई हैं, लेकिन कभी कभी जीवन में ऐसा समय आता है कि जब हम दूसरों को दी गई सीखों, सलाहों, सूचनाओं का पालन खुद अपनी जिंदगी में, अपने लिए करना होता है. लेकिन ऐसा करने में चूक जाते हैं. तब कोई याद कराता है कि सोल्यूशन तो आलरेडी आपके पास ही है. उसे अन्य कहीं भी खोजनी की जरूरत नहीं है.

लेकिन नाजुक पलों में घडी भर के लिए हम अपना भूतकाल भूल जाते हैं, भूतकाल की उपलब्धियों और अतीत की अपार सफलताओं के शिखरों को भूल जाते हैं और जो नहीं करना चाहिए, वो कर बैठते हैं:

क्या?

यहां वे तीन शब्द आते हैं:

क्यूं नाचे सपेरा?

सपेरे का तो काम सांप को नचाना होता है. – उसके पास ये कला है, हुनर है- सुलभ साधन भी है, बीन. उसकी तान छेड कर उसे सांप को नचाना है, उसे खुद नहीं नाचना है.

कवि शैलेंद्र ने इन तीन शब्दों में एक विशाल दर्शन प्रस्तुत किया है, एक पूरा शास्त्र रच डाला है. हम जब अपना स्वयं का काम छोडकर, अपना आत्मविश्वास खोकर, अपनी श्रद्धा गंवाकर भटक जाते हैं तब प्रकृति के साथ हम अन्याय कर बैठते हैं. प्रकृति ने आपको सांप नहीं बनाया है. आपको सपेरे की जिम्मेदारी सौंपी है.

इसके लिए आपको लगनशीलता प्रदान की है. उतना अधिकार, उतना अनुभव आपके पास है. उन सभी को छोडकर आप डेस्परेट होकर दूसरों की शरण में चले जाते हैं तब आप खुद के साथ ही नहीं बल्कि प्रकृति के साथ भी अन्याय करते हैं, अपनी जिंदगी बर्बाद कर लेते हैं.

झंझावाती दौर में बडे तूफानों का सामना करते करते यदि आप अपना मूल भूलकर बांवरे बन जाते हैं तब थोडे शांत होकर, खुद को संभाल कर आईने में देखकर पूछ लेना चाहिए‍: क्यों नाचे रे सपेरा?

आज का विचार

गुरु के ऋण से मुक्त होने का एक ही उपाय है. जो आपने गुरू से पाया है उसे दूसरों में बांट दीजिए.

– ओशो रजनीश

संडे ह्यूमर

बकी: रह रह कर आज एक सत्य समझ में आया है, पकी!

पकी: कौन सा?

बकी: अच्छा पति तो हर एक को मिलता है, लेकिन उसकी परख पत्नी को नहीं, पडोसन को होती है!

(मुंबई समाचार, रविवार – २९ जुलाई २०१८)

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