(गुड मॉर्निंग: फाल्गुन, शुक्ल त्रयोदशी, विक्रम संवत २०७८, बुधवार, १६ मार्च २०२२)
फ्रैंकली, `कश्मीर फाइल्स’ जब रिलीज़ हुई उससे पहले सोशल मीडिया पर उसका खूब हाइप था फिर भी फिल्म को लेकर मैं थोड़ा साशंक था. फिल्म तो देखनी थी पर मन में काफी उहापोह था कि हिंदूवादियों को हिंदी फिल्म में अधिक अनुकूलता नहीं रही है, `उरी’ जैसे कुछ अपवादों के अलावा अपने लोग अच्छे से अच्छे विषय का भी कचरा देते हैं. उस पर भी बड़ी बात ये है कि विवेक अग्निहोत्री की पहले की कोई भी फिल्म रोचक नहीं थी, बॉक्स ऑफिस पर चली भी नहीं थी, चलने जैसी भी नहीं थी.
लेकिन फिल्म शुरू होते लगभग तीन मिनट के पहले दृश्य ही इस बात का विश्वास दिलाते हैं कि इसकी बात निराली है. ये कोई प्रपोगेंडा फिल्म नहीं बनाई गई है. हिंदी सिनेमा के कॉमन दर्शकों को भी पसंद आने जैसी मेन स्ट्रीम फिल्म की तरह एक सेन्सिटिव विषय को अत्यंत कलात्मक और प्रोफेशनल ट्रीटमेंट दिया गया है.
पटकथा या स्क्रीनप्ले इस फिल्म का सबसे सशक्त, सबसे दमदार तकनीकी पहलू है. रिसर्च तो कर लिया. खूब सारी सामग्री जुटी. अनेक कहानियां मिलीं जो नाट्यात्मक थीं, सच तो थी ही. उस पर लेख लिखे जाते हैं, रिपोर्ट बनती है, पुस्तक का आकार भी दिया जा सकता है. लेकिन उसी मटीरियल को हिंदी फिल्म देखनेवाले एक आम दर्शक को ढाई घंटे तक जकड कर रखनेवाली कथा के रूप में न कहा जाय तो सारी मेहनत बेकार हो जाती है.
`कश्मीर फाइल्स’ में पटकथाकार ने बहुत ही समझदारी से एक एक असली प्रसंग को गूंथने के लिए कहीं भी डॉक्युमेंटरी फिल्म जैसी शुष्कता लाए बिना, एक सुंदर, सुगढ़ कमर्शियल फिल्म का रूप देने के लिए उसमें एक एक पात्र को बड़ी ही सूझबूझ से गढ़ा है.
फिल्म देखकर लिब्रांडु गैंग के मुखियों द्वारा हमारी आलोचना करना स्वाभाविक है- मोदी ने भाजपा के सांसदों को संबोधित करते समय बहुत ही कम शब्दों में इस वामपंथी इकोसिस्टम के मैनेजरों को दुनिया के सामने निर्वस्त्र कर दिया.
सबसे पहला पात्र पुष्करनाथ पंडित का है जिसे अनुपम खेर निभा रहे हैं. अनुपम खेर की रेंज एक अभिनेता के रूप में बहुत ही बड़ी है. खुद कश्मीरी पंडित हैं इसीलिए उनके मुख से कश्मीरी भाषा में बोले गए संवाद और कभी कभी उनके द्वारा गुनगुनाए गए कश्मीरी लोकगीत बिलकुल सहज लगते हैं.
पुष्करनाथ के पौत्र कृष्णा पंडित की भूमिका दर्शन कुमार ने निभाई है (प्रियंका चोपडा की `मैरीकॉम’ के हीरो थे, हमारे लिए तो बिलकुल नए हैं). एक कनफ्यूज्ड यूथ के रूप में उन्होंने अच्छा अभिनय किया है. कृष्णा का ब्रेनवॉश करनेवाली राधिका मेनन बनी हैं पल्लवी जोशी.
उसके अलावा अन्य चार महत्वपूर्ण पात्र हैं जो पुष्करनाथ के मित्र हैं. उसमें से एक आईएएस अफसर ब्रह्मदत्त हैं- मिथुन चक्रवर्ती. दूसरे हैं आईपीजी हरि नारायण-पुनीत इस्सर. सरकारी सिविल अस्पताल के डॉ. महेश कुमार हैं जिसकी भूमिका में है प्रकाश बेलावडी. बैंगलोर के इस सीनियर ऐक्टर को आपने कई हिंदी फिल्मों में ब्यूरोक्रैट या उस टाइप के रोल में देखा है-देखकर आप पहचान जाएंगे. और चौथा है पत्रकार विष्णु राम- अतुल श्रीवास्तव ने वह रोल किया है, उन्हें भी देखकर पहचान जाएंगे.
इन चारों किरदारों के कारण फिल्म की बातें स्मूदली आगे बढती हैं. इतना ही नहीं, इन चारों का पुष्करनाथ के प्रति प्रेम के कारण आप भी पुष्करनाथ, कृष्णा और कृष्णा की मां के साथ निकटता और सहानुभूति का अनुभव करने लगते हैं और प्रो. राधिका मेनन को खलनायिका मानने लगते हैं. यासीन मलिक (फिल्म में फारूफ मलिक) की भूमिका मराठी अभिनेता चिन्मय मांडलेकर ने निभाई है-कोई चीखना चिल्लाना नहीं, कहीं भी खुन्नस भरी निगाहें या हावभाव नहीं, सारा काम शांति से होता है, सामने वाला कन्विन्स हो जाय बस इतने भाव से काम करते हैं ये लोग. आतंकवादियों के माथे पर कुछ लिखा नहीं होता कि वे खुद आतंकवादी हैं. समाज में आसानी से घुलमिल सकें, इस तरह का उनका बर्ताव होता है. बहुत ही सुंदरता से खूंखार आतंकवादी का पात्र लिखा गया है, निभाया गया है.
मुंबई में या गुजरात में या अन्यत्र कहीं भी यदि कोई क्रिकेट प्रशंसक पाकिस्तान के लिए तालियां बजाता है तो हम उसका धिक्कार करते हैं. इस धिक्कार का मूल कहां है? इस धिक्कार को किसने सबसे पहले जन्म दिया? इसे जानने के लिए आपके `कश्मीर फाइल्स’ का सबसे पहला क्रिकेट का दृश्य मिस नहीं करना चाहिए.
उसके तुरंत बाद के दृश्य में जिस तरह से एक पात्र आतंकवादी की गोली का शिकार बनता है उसे देखकर आपको ऐसा झटका लगता है जैसा कि हॉलिवुड कि किसी उम्दा फिल्म का शॉट देखकर लगता है. कश्मीर में आतंकवादियों का नारा था: या तो धर्म परिवर्तन करो, या यहां से भागो, या मरने के लिए तैयार रहो. इसी नारे के इर्द गिर्द सारी फिल्म घूमती है.

इस नारे को पोषण देने के लिए भारत के वामपंथी, लिबरल और सेकुलर लोगों ने `आजादी’ का नारा दिया. ऐसे तो ये शब्द पवित्र है- आजादी. लेकिन सेकुलर हर शब्द को टेढा मेढा करके उसके अर्थ इतना गंदा कर देते हैं कि वक्त बीतने पर वह शब्द सुनकर ही भौंहें तन जाती हैं. फिल्म में जेएनयूवादी गाते हैं: “हम क्या चाहते: आजादी. मनुवाद से: आजादी, संघवाद से: आजादी, मिलके बोलो: आजादी”, इत्यादि इत्यादि से आजादी. ये आजादी मतलब? कश्मीर की शेष भारत से आजादी. “भारत तेरे टुकडे होंगे-इंशाअल्लाह, इंशाअल्लाह” वाली आजादी. `कश्मीर फाइल्स’ में इन दृश्यों पर ध्यान दीजिएगा. एक तरफ आतंकवादी `आजादी` के नारे लगाते हैं. और जब युनिवर्सिटी का सीन आता है तब प्रोफेसर अपने ब्रेन वॉश्ड विद्यार्थियों से ये नारे बुलवाती है. फिल्म देखकर लिब्रांडु गैंग के मुखियों द्वारा हमारी आलोचना करना स्वाभाविक है- मोदी ने भाजपा के सांसदों को संबोधित करते समय बहुत ही कम शब्दों में इस वामपंथी इकोसिस्टम के मैनेजरों को दुनिया के सामने निर्वस्त्र कर दिया.
अजादी की तरह सेकुलर शब्द भी इन लेफ्टिस्टोंने बदनाम कर दिया. प्रैक्टिकली हर टर्म का अर्थ उन्होंने अपनी तरह से बदल दिया, जिससे इस शब्दों की आड लेकर वे अपना अजेंडा चला सकें.
फिल्म में हिंदुओं को साफ – साफ चेतावनी दी जाती है:`कश्मीर में रहना है तो अल्लाह ओ अकबर कहना है, ओम नम: शिवाय नहीं.’
हमारे देश की सेकुलर जमात की जबान भी यही है: ओम नम: शिवाय बोलनेवाले सांप्रदायिक हैं, अल्लाह ओ अकबर बोलनेवाले धर्म निरपेक्ष माने जाते हैं.
पुष्करनाथ हर महाशिवरात्रि पर शिव का वेश धारण करते हैं (रामलीला में कोई राम तो कोई हनुमान बनता है उसी तरह) इसीलिए उनके चेहरे पर नीले रंग का मेकअप है. बॉलिवुड की चमचागिरी करने के लिए जाने माने एक फिल्म क्रिटिक (असल में पी.आर.) ने तो इस पर आपत्ति उठाई है- धर्म के प्रतीकों को फिल्म में क्यों आना चाहिए?
तावीज, बांग और ७८६ जब तक आ रहा था तब तक इन्हें कोई समस्या नहीं थी.
`कश्मीर फाइल्स’ केवल जेनोसाइड का इतिहास जानने के लिए ही नहीं, बल्कि ये सब जानने के लिए भी देखनी चाहिए. कई लोग कहते हैं कि उसमें जो हिंसात्मक दृश्य हैं उन्हें देखकर हमें घबराहट होती है, हम नहीं देखेंगे.`न देखे जा सकनेवाले’ दृश्य कुल मिलाकर दो-तीन मिनट के भी नहीं हैं. उसके कारण फिल्म देखने झिझकिएगा नहीं
पुष्करनाथ का पौत्र कृष्ण पंडित ए.एन.यू में जब पढ़ने गया तब वह सेकुलर नहीं था, उसे बड़े सलीके से सेकुलर बना दिया गया. प्रो. राधिका मेनन कुपवाडा, पूंछ, राजौरी इत्यादि इलाकों में मिली सामूहिक कब्रों के बारे में जब पूछती है तब कृष्णा अपनी प्रोफेसर से बटमजार में मिली (हिंदुओं की) सामूहिक कब्र के बारे में सवाल करता है. प्रोफेसर उसे उडता सा जवाब देकर चुप करा देती है. उसके बाद प्रोफेसर कृष्णा को बदलना शुरू करती है और अंत में वह कृष्णा को पक्का सेकुलर बनाने में सफल हो जाती है. ये सारी प्रक्रिया आपको अभी पढ़ने में शायद रूखी सी भले लगे लेकिन फिल्म में इस बहुत ही रोचक तरीके से चित्रित किया गया है. प्रैक्टिकली हम सभी के जीवन में स्कूल-कॉलेज के दिनों में ऐसा हुआ होगा. हमारे शिक्षक भले ही प्रो. राधिका जैसे कुटिल न रहे हों (थे भी नहीं) लेकिन उन्होंने जो कुछ भी पढा, वैसी ही शिक्षा, वही दृष्टिकोण हमें भी दिया. कुछ अपवाद होंगे इसमें, लेकिन कॉलेज-युनिवर्सिटी लेवल में तो राधिका मेनन जैसे खलनायक भरे पड़े हैं- उस समय भी थे और आज तो खूब सारे हैं. वामपंथियों ने नेहरू काल से शिक्षा क्षेत्र पर अपना कब्जा जमा लिया था, इसी का यह परिणाम है.
किस तरह से कांग्रेसियों द्वारा पोषित सेकुलरों का सारा ईको सिस्टम हमारे देशहित के विरुद्ध, हिंदुओं के विरुद्ध काम करने के लिए तैनात है, यह समझने के लिए ये फिल्म बहुत ही उपयोगी है.
मेरा कहना है कि आपको `कश्मीर फाइल्स’ केवल जेनोसाइड का इतिहास जानने के लिए ही नहीं, बल्कि ये सब जानने के लिए भी देखनी चाहिए. कई लोग कहते हैं कि उसमें जो हिंसात्मक दृश्य हैं उन्हें देखकर हमें घबराहट होती है, हम नहीं देखेंगे. खैर हिंदुओ जागो. वे लोग तो बचपन से मुर्गे-बकरे जिंदा काटकर तडपता देखने के आदी हैं. जब हम पहली बार रक्त दान करने जाते हैं तब बाटली में टपकता अपना ही खून देखकर हमें चक्कर आ जाता है और डॉक्टर कॉफी पिलाकर हमें रवाना करते हैं.
`न देखे जा सकनेवाले’ दृश्य कुल मिलाकर दो-तीन मिनट के भी नहीं हैं. उसके कारण फिल्म देखने झिझकिएगा नहीं. फिल्म में और भी बहुत कुछ देखने, समझने लायक है. किस तरह से कांग्रेसियों द्वारा पोषित सेकुलरों का सारा ईको सिस्टम हमारे देशहित के विरुद्ध, हिंदुओं के विरुद्ध काम करने के लिए तैनात है, यह समझने के लिए ये फिल्म बहुत ही उपयोगी है.
आतंकवाद सहित कोई भी वॉर, कोई भी यानी कोई भी, दो स्तरों पर लडा जाता है. एक भौतिक स्तर पर-जहां गोलियां चलती हैं, बम फटते हैं, पैसों का लेन देन होता है इत्यादि. और दूसरा युद्ध मानसिक स्तर पर चलता है जहां ब्रेन वॉशिंग होती है जिसमें राजनेता, मीडिया, शिक्षाविद बडी भूमिका निभाते हैं. `कश्मीर फाइल्स’ में पहली बार इस सारे गेम को समझाया गया है. हिंदी फिल्मों में पहले कभी भी इस नेक्सस को और उसकी विभिन्न कडियों को प्रकाश में नहीं लाया गया और इसीलिए कांग्रेसियों को, वामपंथियों को और आतंकवादियों को यह फिल्म आंख में किरकिरी की तरह चुभ रही है- यह भी `कश्मीर फाइल्स’ की एक बहुत बडी उपलब्धि है.
हाईपर हिन्दु बार बार यह सवाल उठातें है की बाकी सब छोडो, ये बताओ की मोदीने हिन्दुओं के लिये किया ही क्या?
`कश्मीर फाइल्स’ देखने के बाद इसका जवाब मिल जाएगा- मोदी ने क्या किया. २०१४ के बाद के कालखंड में उन्होंने देश में ऐसा वातावरण पैदा किया जहां `कश्मीर फाइल्स’ जैसी मुखरित होकर काने को काना कहनेवाली फिल्म बनाने की हिम्मत आ सकती है. सोनिया की गुलामी करने वाले शासन में क्या किसी का साहस हुआ होता? मान लीजिए हिम्मत की भी होती तो उस समय के वामपंथियों से लबालब सेंसर ने उसे पास किया होता? (राजदीप की माता नंदिनी सरदेसाई ने वर्षों तक सेंसर बोर्ड में `सेवा’ दी है). मान लीजिए कि सेंसर पास भी कर दी होती तो क्या डिस्ट्रिब्यूटर उसे रिलीज होने देते? मान लीजिए रिलीज हो भी जाती तो उस प्रतिबंध लगाने के लिए कोर्ट में सैकडों अर्जियां कर दी गई होतीं, थिएटर जलाने के लिए आतंकियों के समर्थक और कांग्रेसी सडकों पर उतर आते और `टेररिस्टों की रखैल’ बनी मीडिया ने इस फिल्म को नोच डाला होता, उधेड दिया होता उसके रचनाकारों को.
मोदी ने देश में जो निर्मल वातावरण पैदा किया है उसके कारण हम सभी विरोधों के बावजूद `कश्मीर फाइल्स’ को हंड्रेड करोड क्लब की दिशा में जाते हुए देख सकते हैं.
कल (मंगलवार को) प्रधान मंत्री ने भाजना संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए `कश्मीर फाइल्स’ का उल्लेख करके सुंदर बात कही. उन्होंने कहा कि, ‘इतिहास को उसके उचित परिप्रेक्ष्य में समय पर लोगों तक पहुंचाने के लिए पुस्तकें, कविता, साहित्य के माध्यमों का महत्व है, ठीक उसी तरह फिल्मों का भी महत्व है. लेकिन जो लोग फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की बडी बडी बातें करते हैं… वे इमरजेंसी पर, इतनी बडी घटना पर, फिल्म नहीं बनाते, पार्टिशन के बारे में नहीं बनाएंगे. सत्य को दबाने का प्रयास लगातार होता रहा है… आज कल आप जानते हैं कि `कश्मीर फाइल्स’ फिल्म की चर्चा चल रही है. जो लोग हमेशा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडा लेकर घूमते हैं, वह सारी जमात पिछले पांच-छह दिन से हक्कीबक्की रह गई है… यदि इस फिल्म की विवेचना आपको करनी है तो उसमें निहित सच्चाइयों को चुनौती दें, उसकी कला दृष्टि पर सवाल खडे करो लेकिन ऐसी तात्विक चर्चा करने के बदले फिल्म को डिसक्रेडिट करने के लिए एक अभियान शुरू हो गया है. एक पूरा ईको सिस्टम (इस फिल्म को बदनाम करने में लगा है). यहां पर कोई भी सत्य प्रस्तुत करने का साहस कर रहा है- उन्हें जो सच लगा वह प्रस्तुत करने का प्रयास उन्होंने किया… लेकिन इस सत्य को समझने या स्वीकार करने के लिए वे लोग तैयार नहीं हैं, इतना ही नहीं दुनिया इस सत्य को देखे, यह भी वे नहीं चाहते. जिस प्रकार का षड्यंत्र पिछले पांच-छह दिन से चल रहा है… मेरा विषय कोई फिल्म नहीं है, मेरा विषय ये है कि जो सत्य है उसे उसके योग्य स्वरूप में देश के सामने रखा जा रहा है तब यह काम देश की भलाई के लिए हो रहा है… जिन्हें लगता है कि फिल्म ठीक नहीं बनी है, वे लोग इसी विषय पर अपनी तरह से अलग फिल्म बनाएं. उन्हें कौन रोक रहा है? पर वे लोग परेशान हो गए हैं कि जो सच्चाई वर्षों तक दबाकर रखी गई ती उसे कोई मेहनत से बाहर ला रहा है, तब उसे रोकने के लिए सारी जद्दोजहद की जा रही है…’
कपिल शर्मा ने भले ही `कश्मीर फाइल्स’ को प्रमोट नहीं किया, लेकिन अब ये फिल्म १०० करोड की कमाई जरूर करेगी.
फिल्म की अनेक बातें अभी शेष हैं और क्यों इस फिल्म के कारण पूरा एक इको सिस्टम बदल सकता है, इसकी भी बात बाकी है. `कश्मीर फाइल्स’ के निमित्त हिंदी सिनेमा से लेकर शिक्षा, मीडिया इत्यादि अनेक क्षेत्रों में सुषुप्तावस्था में पडे तत्वों की चिंगारी पर से राख हटाई जाएगी, कई लोग अभी भी खौफ में जी रहे हैं कि वामपंथी इको सिस्टम को नाराज करेंगे तो फिल्मों से, बिजनेस से, कॉर्पोरेट जगत से, शिक्षा-साहित्य-पत्रकारिता से बाहर फेंक दिए जाएंगे-ऐसे सभी लोगों को साहस मिलेगा. दो पैसे कमाने हैं तो हर क्षेत्र के `पॉलिटिकली करेक्ट’ जैसे सेकुलर माफियाओं की शरण में जाना पडेगा, यह धारणा भी खंडित होगी.
और भी बहुत कुछ ध्वस्त होगा.
शेष कल.
સરસ
I wish he can make one more movie for black days of emergency by Indira Gandhi.
Every Hindu has to watch this movie two or three times.