`कश्मीर फाइल्स’ का रिलीज़ होना एक वॉटरशेड घटना क्यों है : सौरभ शाह

( गुड मॉर्निंग : फाल्गुन, कृष्ण चतुर्थी, विक्रम संवत २०७८, मंगलवार, २२ मार्च २०२२)

`कश्मीर फाइल्स’ से साबित हो गया है कि एक भी मुस्लिम दर्शक थिएटर में नहीं आएगा, मीडिया भी कोई प्रचार नहीं करेगा, तब भी यदि फिल्म अच्छी होगी तो एक सप्ताह में सौ करोड से अधिक का बिज़नेस करेगी. ईद की डेट के भाग-दौड़ करनेवाले स्टार, प्रोड्यूसर, डिस्ट्रिब्यूटर के लिए इस सच्चाई को पचाना कठिन है.

तमाम बाधाओं के बावजूद `कश्मीर फाइल्स’ सुपर हिट साबित हुई और (इंशअल्लाह!) सौ करोड़ से कई गुना अधिक बिज़नेस करेगी. दर्शकों की तरह ही मतदाता भी जागृत हो जाय तो मुस्लिम वोट बैंक का भ्रम भी टूट कर चकनाचूर हो जाएगा.

और एक अन्य भ्रम भी हमारे मस्तिष्क पर अंकित कर दिया गया है- हिंदू संगठित नहीं है, उन्हें एक होकर अपनी शक्ति प्रदर्शित करना नहीं आता.

इतिहास की घटनाओं का अर्धसत्य बता कर उदाहरण दिए जाते हैं- मुस्लिम आक्रांताओं ने १२०० वीं सदी के आसपास किस तरह से भारत पर कब्जा किया था, ऐसा इतिहास तो खूब प्रचलित किया जाता है. दो बातें जान लीजिएगा. मुस्लिमों ने कभी भी भारत पर कब्जा नहीं किया. `भारत के कुछ प्रदेशों’ पर शासन किया है. ईशान्य भारत का काफी बड़ा प्रदेश, दक्षिण का तकरीबन पूरा प्रदेश और इसके अलावा भारत के अन्य कई इलाकों में वे अपने पांव नहीं फैला सके. दिल्ली और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों पर उन्होंने जोर-जुल्म से शासन किया जिसे आप `भारत’ के रूप में नहीं, `भारत के कुछ प्रदेश’ के रूप में चिन्हित कर सकते हैं. यह बात वामपंथी इतिहासकारों ने हम तक नहीं पहुंचने दी.

दूसरी बात. सातवीं सदी के आरंभ के बाद पांच-छह सौ वर्ष तक, बारहवीं सदी तक इस्लाम को माननेवाले आक्रांताओं को भारत के विभिन्न राजाओं ने मार भगाया है. मुस्लिम आक्रांताओं को मुंहतोड जवाब देने वाले भारतीय शासकों का इतिहास हमसे छिपाया गया है. भारत के इतिहास को छिपाया गया है और तोड मरोडकर और बाद में संशोधित करके एक नया इतिहास गढ़ा गया. यही काम वामपंथी इतिहासकारों ने नेहरू सरकार से (और नेहरू के उत्तराधिकारियों से) खूब सारा धन और सुविधाएं लेकर किया है. कश्मीर तो मुगलों ने `खोजा’ था और `बसाया’ था तथा `विकसित’ किया था और मुगल आक्रमणकारियों के आने से पहले कश्मीर में अंधकार का युग था ऐसे असत्य प्रचार की कलई `कश्मीर फाइल्स’ में इंटरवल के बाद अगले पंद्रह मिनटों में खोली गई है. ‘गर फिरदौस बर-रुए जमी अस्त हमीं आस्तो, हमी अस्तो, हमी अस्त’ वाला वाक्य जहांगीर के मुख में डालकर उसे इतना प्रचलित किया गया, इतना प्रचलित किया गया कि मुगलों ने कश्मीर की खोज की, विकसित किया, बसाया वाली छाप पक्की होती चली गई. उस उक्ति के बारे में आगे आने वाले लेख में बात करने से पहले `कश्मीर फाइल्स’ में एक ध्यान देने योग्य बात जान लेते हैं.

पुष्करनाशथ पंडित का पौत्र कष्ण पंडित ए.एन.यू. में दाखिल हुआ तब सेकुलरगिरी नहीं किया करता था. पहले तो वह एक नॉर्मल भारतीय विद्यार्थी जैसे ही था जिसके मन में इस देश के संस्कारों, इस देश की सनातन परंपरा के बारे में कोई अधिक जानकारी भले न हो लेकिन आदर तो था ही. भारतीय इतिहास के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं थी फिर भी वह अपने देश को हीन दृष्टि से नहीं देखता था या इस देश की विरासत का अनादर भी नहीं करता था. लेकिन कॉलेज में-युनिवर्सिटी में उसका ब्रेन वॉश होता है-उसके अध्यापक-प्रोफेसर्स द्वारा, जो कि वामपंथी विचारधारा वाले ईको सिस्टम का हिस्सा बन चुके हैं. कृष्णा जैसे निर्दोष मन के, कोरी स्लेट वाले करोडो विद्यार्थियों की ब्रेन-वॉशिंग करने का काम भरत की तमाम (तमाम यानी तमाम-जाने माने, अनजाने सभी) कालेजों, युनिवर्सिटियों में तथा स्पेशलाइज्ड शिक्षा देनेवाली संस्थाओं में (जैसे कि आईआईटी, आईआईएम, स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर इत्यादि में) हुआ करता है. इसमें कहीं किसी कोने में कोई संस्था अपवाद भी हो सकती है और सेकुलर मिजाज के शैक्षिक संस्थानों में अपवादस्वरूप ऐसे अध्यापक या प्रोफेसर मिल सकते हैं जो कि राष्ट्र निष्ठ हों. २०१४ के बाद ऐसे अपवाद बढने के बावजूद अकेडमिक क्षेत्र का मौहौल अब भी वैसा ही है. सात दशक से मलाई खा खाकर मोटे हो चुके वामपंथी शिक्षाविदों के दीमकों को साफ करने का काम पेस्ट कंट्रोल वाले कर रहे हैं- ये काम रातों रात नहीं होगा.

मुंबई में जिस जगह मैं वर्षों से रहता हूँ, उस इलाके में आईआईटी के प्रतिष्ठित संस्थान का अतिविशाल और प्रभावी संकुल है. उसके दीक्षांत समारोह में प्रधान मंत्री मोदी एक बार आए थे. इस आईआईटी के सेकुलर मिजाज को चुनौती देनेवाली गतिविधियॉं २०१४ के बाद आरंभ हो गईं. कई विद्यार्थी (जिसमें गुजरात के ग्रामीण इलाकों से आनेवाले गुजराती युवा भी हैं) सप्ताह में एक निश्चित दिन जुटते हैं और संघ की शाखा जैसे वातावरण में देश की समस्याओं पर चर्चा करते हैं. आईआईटी के प्रबंधन की नजरें चुराकर यह गतिविधि नहीं होती, स्वीकृति से होती है. २०१४ से पहले ऐसी या ऐसी शिक्षा संस्थाओं में इस प्रकार की गतिविधियां भूमिगत होकर करनी पडती थीं और यदि `पकड़े’ गए तो मैनेजमेंट –प्रोफेसर्स के गुस्से का शिकार होना पडता था जिसका सीधा असर परिणामों पर और प्लेसमेंट पर पडता था.

जेएनयू तो सेकुलरवादियों के कारण तथा टुकडे टुकडे गैंग के बिरादरों की मौजूदगी के कारण सारे देश में बदनाम है. `कश्मीर फाइल्स’ में जेएनयू का एएनयू करके जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी की सेकुलर बदमाशियों की पोल खोली गई है. फिल्म में एक सीन ऐसा है जहां सैकडों विद्यार्थियों को पट्टी पढ़ा रही प्रो. राधिका मेनन को कृष्ण पंडित चैलेंज करता है. राधिका पांच अलग अलग स्थानों के नाम देकर सात हजार मुस्लिमों की कब्र का उल्लेख करती है(जो कुछ सौ वर्ष पहले की बात होगी) तब कृष्णा एक लाख हिंदुओं को जिंदा दफनाने और उससे पहले उनके जनेऊ काटकर बडा टीला बनाने की ऐतिहासिक घटना (बट मजार) की बात करता है. प्रो. मेनन कुछ पल के लिए कृष्णा के चैलेंज से सकपका जाती है लेकिन तुरंत ही बात को घुमा देती है.

सभी सेकुलरवादी, वामपंथी, लिबरल बदमाश लोग ऐसी इंटेलक्चुअल मव्वालीगिरी में माहिर होते हैं. जब आप उन्हें चुनौती देते हैं तब वे यह जानते ही हैं कि आपकी जानकारी सच है और आपके व्यू पॉइंट में दम है. लेकिन वे आपकी ऐसी कोई भी बात स्वीकार नहीं करेंगे और आप पर हावी होने के लिए कोई ऐसा मुद्दा ले आएंगे जिसके कारण आप उनके सामने हीनता महसूस करने लगेंगे

लेक्चर खत्म होने के बाद, कृष्णा विवेकशील और आज्ञाकारी विद्यार्थी की तरह प्रोफेसर के पास जाकर उसे सॉरी कहता है- मैं आपको ऑफेंड नहीं करना चाहता था लेकिन मुझे इसीलिए (बट माजार की) बात करनी पडी क्योंकि कश्मीरी हिंदुओं की ओर से कोई भी बोलनेवाला नहीं है. कृष्णा की एक लाख हिंदुओं वाली बात सुनकर वह कहती है कि ऑफिशियल आंकडा २९४ का ही है. कृष्णा तुरंत कहता है कि आधिकारिक आंकडा कम इसीलिए है कि किसी ने असली आंकडा दर्ज ही नहीं करवाया. वह पूछती है: `कोई यानी?’

कृष्णा कहता है:`एडमिनिस्ट्रेशन, प्रेस, पॉलिटिशियन्स, प्रोफेसर्स…’

वह चौंक कर पूछती है,`तुम कहना क्या चाहते हो कि ये सभी तुम्हारे खिलाफ हैं?’

कृष्णा पूरे आत्मविश्वास से कहता है:`यस.’

वह फिर पूछती है:`पिछले तीस सालों से?’

कृष्णा फिर आत्मविश्वास से कहता है,` हां जी.’

कृष्णा का आत्मविश्वास तोडने के लिए प्रोफेसर मेनन सेकुलरवादियों की पुरानी और जानी मानी चाल चलती है और पूछती है :`टेल मी हू वॉज़ द ग्रेटेस्ट लीडर ऑफ कश्मीर?’

कृष्णा भोलेपन से जवाब देता है `शेख अब्दुल्ला’. क्योंकि उसने अभी तक यही सुना है.

अब राधिका उसे ज्ञान देते हुए कहती है कि `ललितादित्य’.

राधिका का जवाब सच है लेकिन ललितादित्य का नाम वह कृष्णा को चुप कराने के लिए लेती है. राधिका कहती है :`हिंदू राजा थे वह..देखो हम सबको लगता है कि हमें सब पता है लेकिन ऐसा होता नहीं है… हो सकता है जिसको तुम पिछले तीस सालों से सच मान रहे हो, वह सच हो ही नहीं….’

प्रोफेसर राधिका मेनन और सभी सेकुलरवादी, वामपंथी, लिबरल बदमाश लोग ऐसी इंटेलक्चुअल मव्वालीगिरी में माहिर होते हैं. जब आप उन्हें चुनौती देते हैं तब वे यह जानते ही हैं कि आपकी जानकारी सच है और आपके व्यू पॉइंट में दम है. लेकिन वे आपकी ऐसी कोई भी बात स्वीकार नहीं करेंगे और आप पर हावी होने के लिए कोई ऐसा मुद्दा ले आएंगे जिसके कारण आप उनके सामने हीनता महसूस करने लगेंगे, अपनी हीन भावना के कारण आप उन्हें सुपीरियर फील कराने लगेंगे, मानो आपसे कोई बड़ा अपराध हो गया हो. वन अप मेनशिप में होशियार राधिका राजा ललितादित्य को पेडेस्टल पर बिठाना नहीं चाहती, शेख अब्दुल्ला का महत्व कम करने का तो वह सपने में भी नहीं सोच सकती. लेकिन यहां पर उसने कृष्णा को चुप करा कर उसमें इंफीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स पैदा कर दिया ताकि भविष्य में वह अपनी वास्तविक मान्यताओं को कुत्ता समझकर कंधे से उतार दे. ऐसा होने पर इन लोगों का काम आसान हो जाता है, वे आपको बदलने लगते हैं, आपका ब्रेन वॉश करने लगते हैं. आप उनकी बातों में आ जाते हैं तब वे किसी न किसी प्रकार से स्कॉलरशिप, कॉन्फरेंस के बहाने विदेश यात्राओं, पुस्तक लिखने के कॉन्ट्रैक्ट इत्यादि देकर अपनी ईकोसिस्टम का एक अभिन्न अंग बना देते हैं. कृष्णा के मामले में उसे एएनयू के स्टूडेंट्स यूनियन का प्रेसिडेंट बनाने का झुनझुना थमा दिया जाता है.

हममें से कई भारतीयों के साथ किसी एक दौर में ऐसा हुआ होगा. स्कूल कॉलेज जाने तक हमारी स्लेट कोरी होती है. पढाई बढती जाती है या हम अपने अपने क्षेत्र में स्थापित होते जाते हैं, तब हमें मार मार कर मुसलमान/ सेकुलर बना दिया जाता है.

सेकुलर कृष्णा दादा पुष्करनाथ की मृत्यु के बाद उनकी अस्थियां लेकर दिल्ली से कश्मीर जाता है, तब उसे पता चलता है कि डेढ दो दशक पहले वह पांच-सात साल का था तब उसके माता पिता की मृत्यु दुर्घटना के कारण नहीं हुई-बल्कि आतंकवादियों ने उन दोनों को एक एक कर अत्यंत क्रूरता से मारा था. चावल से भरे ड्रम में छिपे पिता पर एके-४७ से गोलियों की बौछार करके और उसकी माता को सरेआम निर्वस्त्र करके आरा मशीन में डालकर खडा चीर दिया गया था.

कृष्णा की आंखें खुल जाती हैं और कश्मीर से लौटकर वह एएनयू के विद्यार्थियों के सामने प्रो. मेनन द्वारा पढाई पट्टी के अनुसार अजेंडा वाला चुनावी भाषण देने के बजाय कश्मीर की सच्चाई बयान करता १५ मिनट का लंबा भाषण प्रस्तुत करता है, जिसमें हम आगामी दिनों में गहराई तक उतरनेवाले हैं.

हममें से कई भारतीयों के साथ किसी एक दौर में ऐसा हुआ होगा. स्कूल कॉलेज जाने तक हमारी स्लेट कोरी होती है. पढाई बढती जाती है या हम अपने अपने क्षेत्र में स्थापित होते जाते हैं, तब हमें मार मार कर मुसलमान/ सेकुलर बना दिया जाता है. किसी के साथ वैमनस्य नहीं बढाने के इरादे से, हमारे विकास में बाधा पडने के डर से या आस पास के सभी लोगों के साथ हिलमिल कर रहने के आशय से या फिर उदार दिल और खुले दिमाग का दिखने की चाहत में हम सेकुलरगिरी करने लगते हैं. और जब कोई बडी, जबरदस्त घटना होती है तब हमारे दिमाग में कृत्रिम तरीके से खडे किए गए सेकुलरिज्म का ताजमहल बाबरी के जर्जर, निरुपयोगी और कलंकित ढांचे की तरह घंटों में ही धराशायी हो जाता है.

२००२ के गोधरा हिंदूहत्याकांड के बाद कई मार्क्सवादी, गांधीवादी, सर्वोदयी, तथा कांग्रेस वादी और मुस्लिमवादी भी हिंदूवादी बनते देखे हैं. उससे पहले ६ दिसंबर १९९२ को अनेक लोगों की आंखें खुली थीं और वे सेकुलरवाद पर थू थू कर भारत की असली परंपरा की तरफ वापस खिंचे थे. २०१४ के बाद, किनारे पर बैठे अनेक सेकुलरवादी ताल ठोंकते हुए हिंदुत्व का गुणगान करने लगे. इसमें मधु किश्वर जैसे कई मौकापरस्त लोग शामिल हैं (यासीन मलिक की मौजूदगी में उस आतंकवादी का बचाव करनेवाला वीडियो देखा क्या आपने? यूट्यूब पर देख लीजिएगा. सौ चूहे खाकर हज पर जानेवाली मधु आंटी का हिजाब उतरने के बाद भयावह चेहरा देखकर आप कांप जाएंगे.) २०१९ के बाद सेकुलरवादियों को अलविदा कहकर भारत की सनातन परंपरा में विश्वास रखनेवालों की संख्या में भारी बढोतरी हुई है और २०२२ में `कश्मीर फाइल्स’ रिलीज़ होने के बाद यह संख्या कई गुना बढने लगी है.

कृष्णा की तरह अपनी जड़ों को भूलकर सेकुरवाद के शिकंजे में आए लोग कृष्णा की तरह ही सेकुरवादियों की चालबाजी को समझकर फिर से अपने वातावरण में आकर भारत के लिए, भारत की संस्कृति के लिए गौरव महसूस करने लगे हैं. इस तरह से कई अर्थों में `कश्मीर फाइल्स’ को समकालीन इतिहास की एक वॉटरशेड घटना कहा जा सकता है.

कल बात आगे बढाएंगे लेकिन आज की बात पूर्ण करने से पहले जेएनयू के बारे में एक बात. ज्यादा उछलकूद करनेवाले हाइपर लोग मोदी को ताने मारते रहते हैं कि मोदी जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी का नाम बदलकर सरदार पटेल युनिवर्सिटी क्यों नहीं करते? जो मोदी सर्जिकल स्ट्राइक कर सकते हैं, अयोध्या की रामजन्म भूमि पर सदियों से चले आ रहे विवाद को खत्म करके शांतिपूर्ण तरीके से भगवान राम का विशाल मंदिर बना सकते हैं, नेहरू द्वारा भारत पर लादी गई धारा ३७० को एक झटके में दूर करके, कश्मीर में गृहयुद्ध न हो जाय, इसके लिए चाकचौबंद तैयारियों के साथ काम कर सकते हैं, तो उस मोदी के लिए जेए‍नयू पर सर्जिकल स्ट्राइक करना तो बच्चों का खेल है. मोदी ऐसा नहीं करते. मोदी ऐसे किसी शॉर्ट कट में नहीं मानते. वे थूकपट्टी जॉब नहीं, बल्कि परमानेंट सोल्यूशन वाले आदमी हैं. जेएनयू की टेढी पूंछ को सीधा करने के लिए मोदी ने क्या किया है, जानते हैं?
(शेष कल)

3 COMMENTS

  1. अगर भारत के विषय में जानना है तो अङ्ग्रेजी समाचार माध्यमों का त्याग करें। कोई दमदार बात समझकर अंग्रेजी में कहे तो कहें कि इसका अनुवाद कर अपनी मातृभाषा में कहो। यह लेख एक उदाहरण है हिन्दी में कितना ज्ञान बाँटा जा सकता है। धन्यवाद।

  2. Fantastic write-up with thought provoking views Saurabhbhai. One has rightly said, The Kashmir Files movie has been produced (with main motive) not to earn 100 crores, but to awaken 100 crores (people)”.

  3. बहुत ही सुन्दर लेख , जो आज तक हिंदुस्तानी जनता से छुपाया गया , यह फिल्म देश में जबरदस्त परिवर्तन का संचार करेगी ।

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