बाबा आकर हमारा क्या क्या ले जाएगा

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, मंगलवार – १८ दिसंबर २०१८)

शोले का गब्बर सिंह वाला डायलॉग सलीम जावेद ने रजनीश के वाक्य का मिरर इमेज बना कर लिखा होगा.

रजनीश कहते हैं कि: जहां डर समाप्त होता है यहीं से जीना शुरू होता है.

ओशो के इन शब्दों ने मेरे भीतर जो हलचल मचाई है वह आपके साथ साझा कर रहा हूं. हम भयभीत होकर भटकनेवाले लोग हैं. इज्जत, पैसा, प्रेम, स्वास्थ्य- सभी के बारे में डरते हैं. कुछ करना हो तो विचार आएगा कि ऐसा करने से मेरी इज्जत चली गई तो? मैं हंसी का पात्र बन गया तो? कुछ नहीं करूंगा तो मेरी प्रतिष्ठा नहीं बढेगी, इस डर से हम दूसरों की उंगलियों के इशारे पर नाचने लगे हैं. जो भी पैसा कमाया है वह चला गया तो? जिंदगी में जो चाहा है उतना धन नहीं कमा पाए तो? जिसे चाहते हैं उसका प्रेम नहीं मिला तो? जिसका प्रेम मिला है उसका प्रेम कम हो गया तो? बीमार हो गए तो? मर गए तो?

सुबह जागने से लेकर रात को सोने तक हम डर डर कर जीते हैं. हम बेफिक्र हो कर जीना भूल गए हैं. बेफिक्र और गैरजिम्मेदार – दोनों अलग बातें हैं, इनमें जमीन आसमान का अंतर है. तबीयत की बेफिक्री ये नहीं है कि रोज आधा बोतल शराब पीकर ओशो को याद करके सोचें कि उन्होंने ही तो कहा है कि डरना नहीं चाहिए, हम भी बिना डरे जी रहे हैं, तबीयत का जो होना है सो हो, आज का पल जी लो, प्रवाह में बहते जाओ- तैरने का प्रयास मत करो, रजनीश ने ही तो कहा था.

सुविधाजनक तर्क देनेवालों के लिए रजनीश नहीं हैं. सुविधाजनक तर्क देनेवालों के लिए यह लेख भी नहीं है. सुविधाजनक तर्क देनेवालों के लिए यह दुनिया ही नहीं है.

शराब और सेहत वाले उदाहरण के बाद कोई प्रतिष्ठा, धन, प्रेम इत्यादि से जुडी कोई विकृत तर्क दे सकता है. उसे सिर्फ इतना ही समझाना चाहिए कि संभावित परिणामों के बारे में जानकारी होने के बावजूद, उन परिणामों में निहित दुष्प्रभावों का पक्ष जो लांघ जाए, ऐसी शक्ति जिनमें है वही बेफिक्र होकर जी सकते हैं.

दूसरी गैरजिम्मेदार वे लोग हैं जो परिणामों के बारे में सोचते ही नहीं और कभी भी सोचते हैं तो उसमें निहित दुष्परिणामों वाले पक्ष को पार करने का साहस नहीं रखते. इतना ही नहीं, अपनी गैरजिम्मेदारी के परिणाम के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराने की प्रवृत्ति जिनकी है उन लोगों के लिए न तो रजनीश हैं, न ही इस कॉलम के लेख हैं, न ही ये दुनिया.

डर हमसे दूसरों की मनचाही बात कराता है. अपने मन का करना हो तो मन से डर को निकालना होगा. कोई क्या कहता है उसका डर ही हमारे पैरों की जंजीर है. कोई क्या कहेगा ऐसा सोचते ही हमारे जीवन की लगाम किसी दूसरे के हाथ चली जाती है. वह क्या कहेगा, यही सोचकर सारी जिंदगी जीते रहेंगे.

हमने कल्पना कर ली है कि मैं यदि ऐसा नहीं करूंगा तो समाज में मेरी प्रतिष्ठा नहीं रहेगी. इस कारण हमें जो करना है, जिस तरह से जीना है वह नहीं कर सकते, उस तरह से जी नहीं सकते. समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए मैं इस तरह का बर्ताव नहीं करूंगा या अमुक काम नहीं करूंगा तो नहीं चलेगा, ये हमने मान लिया है. इस डर के कारण हम खुलकर नहीं जी सकते. घुट घुट कर जीने के बाद जब एक दिन पता चलता है कि इस तरह से जीने का कोई अर्थ नहीं है तब ध्यान में आता है कि इस कैद से निकलने का कोई रास्ता नहीं है.

मार्ग है. उस मार्ग का नाम है ओशो महामार्ग, उसे रजनीश एक्सप्रेस वे कहते हैं, जहां मोटे अक्षरों में लिखा हुआ बोर्ड है: जहां आंख खुली, वहीं सवेरा.

अपने जीवन पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए हमें डरा दिया जाता है. मेरा कहा नहीं माना तो बाबा आकर पकड ले जाएगा, ऐसा कहनेवाली मां बच्चे में भय पैदा करती है ताकि बच्चा उसके कहे में रहे. ऐसे एकाधिक भय से सिंची हुई जिंदगी टीनेजर बनने तक लकीर की फकीर बन जाती है. पढाई करते समय, कमाते समय, संसार बसाते समय, बच्चों का पालन-पोषण करते समय, बच्चों के बडे हो जाने के बाद निरंतर डर से भरी जिंदगी जीनेवाले लोग अब दूसरों को डराने लगते हैं. खुद अपनी जिंदगी को काबू में नहीं रख सके इसीलि, अब वे दूसरों के जीवन पर नियंत्रण करने के लिए उतावले हो गए हैं. उनके पास भी हथियार तो यही है- डर का.

दूसरों में डर पैदा करेंगे तो ही वह आपके नियंत्रण में रहेगा. बाबा आकर आपकी प्रतिष्ठा, धन, प्रेम सारा कुछ ले जाएगा ऐसे डर में लोगों को रखते हैं. तभी लोग आपकी बातों में रहेंगे.

बहुत देर से ये बात समझ में आती है कि मां जिसका डर दिखाती थी वह बाबा कौन है. यह बाबा यानी समाज. यह बाबा यानी परिवार, ये बाबा यानी दोस्त-सगे-संबंधी-परिचित. ये बाबा यानी आपके अलावा इस दुनिया का हर व्यक्ति फिर चाहे वह आपके घर में रहता हो, या आपके परिवार का हो.

डर का भाव प्रकृति ने हमारा अस्तित्व खतरे में पडने पर सावधान करने के लिए घंटी के रूप में रखा है. लेकिन पता नहीं क्यों इस घंटी का टंकार हमें इतनी पसंद आ गई है कि हम चौबीसों घंटा उसे बजाते रहते हैं. जलती लकडी हाथ में लेते हुए मैं डरता हूँ या बत्तीसवीं मंजिल की छत से नीचे कुदने से आप डरते हैं तो यह अच्छा है, क्योंकि ऐसा करते समय आपके अस्तित्व के लिए जोखिम खडा हो जाता है.

किसी का खून करने या बैंक लूटने या किसी को गाली देने से हम डरते हैं तो डरना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने के बाद होने वाले दुष्परिणामों से हम नहीं बचनेवाले. ऐसे डर से मुक्त होने की बात बताने में बहादुरी नहीं है. साहस ऐसे सारे भय को दूर कर जीने का काम शुरू करने में है जिस डर-भय के कारण अभी तक हम कुंठित होकर जीते रहे हैं. खुले मन से जीने का आरंभ करने के हिस्से के रूप में भयमुक्त होना है.

बाकी आप तो जानते ही हैं: जो डर गया सो मर गया.

आज का विचार

सुख समझी रही दुनिया जिसे

उस दुख की दवा करे कोई

– `मरीज़’

एक मिनट!

बका: लंदन से कुछ मंगाना है तुम्हें?

पका: क्यो? कौन आ रहा है?

बका: माल्या.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here