राजू गाइड का बचपन

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, गुरुवार – २० सितंबर २०१८)

आर.के. नारायण के अंग्रेजी उपन्यास `द गाइड’ हमें याद है देव आनंद की फिल्म `गाइड’ के कारण, फिल्म के गीतों, वहीदा रहमान और विजय आनंद के निर्देशन के कारण. सुंदर फिल्म है. लेकिन मूल उपन्यास उससे भी सुंदर है. उपन्यास को फिल्म के जरिए उकेरने के लिए बहुत कुछ छोडना पडता है, कुछ जोडना पडता है, कई बातों को छोटा करना पडता है, कॉम्प्रेस करना पडता है तो कई मामलों में लाउडनेस का शुमार करना पडता है. आर्ट और क्राफ्ट का बेहतरीन संगम होने के बाद ही ऐसी कृति बन सकती है.

`गाइड’ फिल्म तो आपने देखी है. यदि किसी ने न देखी हो तो आज ही नई सीडी/ डीवीडी खरीदकर देख सकता है. लेकिन यह फिल्म देखने वाले कराडों दर्शकों में से बहुत कम ऐसे होंगे जिन्होंने उपन्यास पढा होगा.

नवीं या दसवीं कक्षा की छुट्टियों में `गाइड’ का हिंदी अनुवाद हाथ में आया और पढा. फिल्म १९६५-६६ में बन चुकी थी. यही गिन कर कुछ आठ-नौ साल पहले. फिल्म के गीत खूब सुनने को मिलते थे. लेकिन फिल्म अभी तक देखी नहीं थी जिसे कॉलेज के जमाने में देखा. उस जमाने में देव आनंद वीक, गुरुदत्त वीक चलता था. लैमिंग्टन रोड के भव्य `मिनर्वा’ थिएटर में एक सप्ताह तक रोज मॉर्निंग शो में देव आनंद वीक था. मैटिनी से रात तक के चार शोज में `शोले’ चलती थी. मैटिनी से पहले के मॉर्निंग शो में बहुत ही सस्ते में टिकट लेकर सप्ताह भर में देव आनंद की सात फिल्में देखीं. सिर्फ गाइड को छोडकर सारी फिल्में ब्लैक एंड व्हाइट थीं. दादर के `कोहिनूर’ सिनेमा में गुरुदत्त वीक लगा था. `प्यासा’, `कागज के फूल’ और `साहब बीबी और गुलाम’ सहित गुरुदत्त की सात फिल्में देखीं थीं.

आर.के. नायरायण की `द गाइड’ को अंग्रेजी में काफी समय बाद पढा. उसे पढने के बाद नारायण की `स्वामी एंड हिज फ्रेंड्स’ के साथ ही उनके कई लेख संग्रह पढे. उनका पूरा नाम था रासिपुरम कृष्णस्वामी अय्यर. रासिपुरम मूल गांव, कृष्णस्वामी पिता का नाम और अय्यर जाति. साउथ इंडियन नामों में तकरीबन `आधार’ कार्ड जैसी आयडेंटिटी प्रकट होती है. लक्ष्मणस्वामी उनके छोटे भाई. पॉपुलरली नोन ऐज आर.के. लक्ष्मण, द कार्टूनिस्ट.

फिल्म में जिन जिन बातों को नहीं लिया गया है, नहीं लिया जा सकता है या फिल्म माध्यम के लिए जो अनावश्यक है या अप्रस्तुत मानकर छोड दिया गया है, ऐसी बातें करनी हैं. काफी अच्छी अच्छी बातें हैं. कभी तो लगता है कि इन तमाम छूट चुकी बातों को समाकर फिर एक बार `गाइड’ बननी चाहिए- वेबसिरीज के रूप में. लेकिन देव आनंद का चार्म, वहीदाजी का गलैमर और शैलेंद्र तथा एस.डी. बर्मन के अमर गीत उसमें नहीं होंगे और इसीलिए वह वेबसिरीज फीकी लगेगी. लेकिन मूल उपन्यास की अब जो बातें आपको पढने को मिलेंगी उससे आपको विश्वास हो जाएगा कि `गाइड’ फिल्म में जो दमदार प्लस पॉइंट्स आपको गिनाए गए हैं उनकी क्षतिपूर्ति करने में सक्षम रसीली बातों को शामिल करने से वेब सिरीज फीकी नहीं लगेगी.

 

उपन्यास का आरंभ जेल से दो साल की सजा काटकर निकल रहे राजू गाइड से नहीं होता. पहला ही दृश्य राजू के उस अनजान गांव में आ जाने का है (जहां उसकी अनिच्छा से उसे साधु मान लिया गया है.) भोला के साथ हुई थोडी सी बातचीत के बाद यह छोटा सा सीन खत्म होता है. भोला का नाम नॉवेल में वेलान है. इस पहले सीन में अनायास ही राजू और वेलान का परिचय हो जाता है.

दूसरा दृश्य निकट के भूतकाल का है, फ्लैशबैक का है. वेलान को मिलने से पहले राजू जेल से छूटने के बाद नाई की दुकान पर शेव करा रहा है. नाई बडा ही बातूनी है. दाढी करते करते राजू से पूछ्ता है: `डेढ -दो? कितने साल की सजा काटी?’

राजू को आश्चर्य होता है: इसे कैसे पता चला कि मैं जेल से आ रहा हूँ. और उसे यह भी अंदाजा है कि कितने साल की सजा, ऐसा कैसे हो सकता है?

नाई राज बताता है कि जेल की इमारत खत्म होने के बाद सबसे पहली दुकान यही है. सारे कैदी यही पर दाढी बनवाकर अपने गांव जाते हैं.

पर ये डेढ-दो साल का अनुमान?

नाई राजू से कहता है कि तूने कोई खून-वून किया हो ऐसा तो नहीं लगता. खुन के लिए अधूरे प्रमाण हों तो भी कम से कम सात साल की सजा होती है. कोई बडा आर्थिक घोटाला किया हो तो भी सात साल में आदमी बाहर आ जाता है. बीस साल से मैं इस धंधे में हूं. तूने कोई बडी घपलेबाजी नहीं की है, छोटा मोटा मामूली अपराध किया है इसीलिए तू डेढ – दो साल की सजा काटकर बाहर आया होगा.

पर पता कैसे चला?

सात साल जेल में रहकर आनेवाले का चेहरा बदल जाता है. उसके चेहरे की रेखाओं पर से पता चल जाता है. तुमने किसी का मर्डर तो किया ही नहीं है, तुमने किसी का रेप किया हो ऐसा भी नहीं लगता, किसी अपहरण भी नहीं किया, किसी के घर में आग भी नहीं लगाई है- तुम्हारा चेहरा ही बता रहा है.

राजू नाई से पूछता है कि तुम जेल में जाकर कैदियों के बाल काटने का काम नहीं करते?

नाई ना कहता है. वह काम उसने अपने भतीजे को सौंप दिया है. क्यों? तो कहता है: रोज रोज जेल में कौन जाएगा?

राजू कहता है: जेल जैसा कि सबको लगता है, उतनी खराब जगह नहीं है, बहुत सारे अच्छे लोग भी होते हैं वहां.

तो जाओ ना वहीं फिर से, नाई उसका मजाक उडाता है और कहता है: बाजार में जाकर किसी की जेब काटो, तो पुलिस फिर से तुम्हें वही ले जाकर रख देगी.

राजू भी मजाक के मूड में है: वहां तो यार, रोज सुबह पांच बजे उठना पडता है. मुझे अच्छा नहीं लगता!

दाढी पूरी करने के बाद नाई राजू के चमकते चेहरे को देखते हुआ उस्तरा बगल में रखकर कहता है: `ले, महाराज जैसा लग रहा है, तू तो.’

फिर से वर्तमान. वेलान (भोला) के साथ थोडी बातचीत.

और अब राजू अपनी बचपन की यादों में खो जाता है.

उसका गांव है मालगुडी. आर.के. नारायण का रचा गया यह काल्पनिक नगर अब तो साहित्य प्रेमियों के बीच विश्व प्रसिद्ध हो चुका है. `गाइड’ में मालगुडी की जगह उदयपुर है. `गाइड’ फिल्म के इंग्लिश वर्जन पर आर.के. नारायण की बडी आपत्ति थी. लेकिन वे कांन्ट्रैक्ट करके बंध चुके थे, पछता रहे थे. `लाइफ’ मैगजीन में `मिसगाइडेड गाइड’ नामक लेख लिखकर नारायण ने अपना दुख व्यक्त किया था. यह उनके एक निबंध संग्रह में है.

`गाइड’ का पूरा प्लॉट तैयार करके नारायण ने अपने उपन्यासकार मित्र ग्रेहाम ग्रीन को सुनाया था और पूछा था कि क्या अंत में राजू गाइड को जीवित रखूं….? ग्रेहाम ग्रीन के सुझाव के अनुसार ही नारायण ने इस उपन्यास का अंत किया था. अत्यंत कलात्मक तरीके से.

१९५६ में नारायण पहली बार अमेरिका गए. वहां कैलिफोर्निया के बर्कले शहर में एक होटल में रहकर नॉवेल का पहला ड्राफ्ट कुछ ही सप्ताह में लिख डाला. शुरू में टाइप करके लिखना चाहते थे. दोनों हाथों की एक-एक उंगली से टाइप किया करते. लेकिन इसमें मजा नहीं आया इसीलिए महीने भर के लिए भाडे पर लिए गए टाइप राइटर को तीन ही दिन में लौटा दिया. पूरा उपन्यास अपने ही हस्ताक्षर में लिखा. फिर उसे टाइप करवाकर सुधार कर और फाइनल वर्जन की मेनुस्क्रिप्ट उस यात्रा के दौरान ही वहां के प्रकाशक को सौंप कर नौ महीने में भारत लौट आए. `द गाइड’ १९५८ में प्रकाशित हुई. नारायण ने अपना सबसे पहला उपन्यास `स्वामी एंड हिज फ्रेंड्स’ १९३५ में लिखा था- उनतीस साल की उम्र में.

१९८७ में दूरदर्शन पर प्रसारित मालगुडी डेज आपको याद होगी. उसमें छोटे स्वामी की चतुराई, उसकी मासूम हरकतें और मालगुडी का जो वातावरण है उस वातावरण को `गाइड’ उपन्यास में राजू अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए ताजा करता है. बातें सारी नई हैं, अलग हैं, लेकिन वातावरण मालगुडी का है. कल उसकी बात करेंगे तो आपको भी लगेगा कि वेब-सिरीज के लिए उसमें कितनी समृद्ध सामग्री है.

आज का विचार!

मेरी पत्नी इतनी इंटेलिजेंट है कि मैं कुछ बोलने के लिए मुंह खोलूं उससे पहले ही वह कह देती है कि आप झूठे हो!

– व्हॉट्सएप पर पढा हुआ.

एक मिनट

पत्नी: ऑफिस से आकर सीधे कहां चले?

बका: भजन संध्या है, भक्ति गीत सुनने जा रहा हूं.

पत्नी: चुपचाप दोस्तों के साथ बार में जाकर दारू पियो. खबरदार अगर भजन संध्या में गए तो…..

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