गुड मॉर्निंग
सौरभ शाह
बाईस अक्टूबर की तारीख सिर्फ जम्मू-कश्मीर के ही नहीं बल्कि भारत के इतिहास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण तारीख है. २२ अक्टूबर २०१८ को पाकिस्तान द्वारा कबाइलियों के वेश में आए सैनिकों के आक्रमण को ७१ वर्ष पूर्ण होंगे. कबाइली सन १९४७ के उस दिन एबटाबाद के रास्ते कश्मीर में घुसे थे और ४८ घंटे से कम समय में श्रीनगर से केवल ४० किलोमीटर दूर बारामुला गांव तक आ पहुंचे थे. २४ अक्टूबर को महाराजा हरि सिंह ने भारत सरकार से सेना भेजने की अपील की. डिप्टी प्राइम मिनिस्टर और गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने भारत की ओर से सेना भेजने की शर्त राजा हरि सिंह को बताई. भारत उसी प्रदेश की सुरक्षा के लिए अपनी सेना भेज सकता है जो प्रदेश भारत का हो. स्वराभाविक और सिम्पल बात थी. राजा हरि सिंह ने अपने राज्य का विलय भारत के साथ करनेवाले दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दिए. भारतीय सेना ने कबाइलियों को दूर तक खदेडने के लिए जान की बाजी लगा दी. इस मामले में सेना को पूरी सफलता मिल पाती इससे पहले ही १ जनवरी १९४८ के दिन (यानी हमले के सिर्फ ढाई महीने में ही) पंडित नेहरू ने सरदार पटेल के सारे किए कराए पर पानी फेर दिया और इस मामले में संयुक्त राष्ट्र संघ को बीच में पडने के लिए कहा. सरदार नेहरू के इस कदम के सख्त खिलाफ थे. यशवंत दोशी (मासिक पत्रिका `ग्रंथ’ के संपादक जिनके मार्गदर्शन में १८ साल की उम्र में पत्रकारिता के जीवन की शुरुआत की) ने सरदार पटेल की जीवनी लिखी है, उस बायोग्राफी में तथा सरदार के पत्रों के संकलन में आपको इस बारे में ऐतिहासिक प्रमाण मिल जाएंगे. गांधीजी की प्रकाशन संस्था `नवजीवन’ ने इन दोनों प्रमुख पुस्तकों का प्रकाशन किया है.
पंडित नेहरू की अल्प दृष्टि के कारण पाकिस्तान के कबाइलियों को पाकिस्तान वापस भेजने की कोशिश अटक गई और कबाइलियों ने जिन प्रदेशों में घुसपैठ कर ली थी उनमें भारतीय सेना के प्रवेश पर पाबंदी लग गई, युद्ध विराम हो गया जिसके परिणामस्वरूप कश्मीर का बहुत बडा भाग भारत को `पाक ऑक्युपाइड कश्मीर’ (पी.ओ.के.) या पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के रूप में पहचानना पड रहा है.
पिछले ७१ वर्ष से भारत के नक्शे में राजस्थानी पगडी के आकार जैसा दिखनेवाला कश्मीर का काफी बडा पश्चिमोत्तर का हिस्सा भारत के कब्जे में नहीं है. अभी तक दुनिया का कोई भी महत्वपूर्ण देश उस प्रदेश को भारत की भूमि नहीं मानता था और वैसी भौगोलिक परिस्थिति दर्शाने वाले नक्शे छापते थे. ऐसे कोई भी नक्शा, पगडी के बाएं ऊपरी सिरे को काटकर बनाया नक्शा, भारत में आनेवाले विदेशी मैगजीनों में जब प्रकाशित होता था तब उसकी हर नकल भारत सरकार लंबे रबर स्टैंप लगाकर अभी तक स्पष्टीकरण देती थी. २०१४ में नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बने उसके बाद यह रबर स्टैंप वाली हास्यास्पद स्वीकृति बंद हो गई, अब ऐसा करना फौजदारी अपराध माना जाता है. ऐसे नक्शों को छापना भारत के कानून के अनुसार सख्त सजा का पात्र हो सकता है. अब वे लोग सीधे होकर भारत सरकार द्वारा मान्य नक्शे छापने लगे हैं. कॉन्ग्रेस सरकार इतना भी नहीं कर सकती थी.
भारत जिस प्रदेश को पी.ओ.के. मानता है उसे पाकिस्तान `आजाद कश्मीर’ मानता है. इतना ही नहीं, उस प्रदेश के सरपंच जितनी सत्ता पानेवाले पदाधिकारी को आजाद कश्मीर का `प्रधान मंत्री’ मानता है!
शेख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फरेंस, महाराजा हरि सिंह और पंडित नेहरू की उस समय की सरकार- इन तीनों पक्षों ने मिलकर जो खिचडी पकाई और जम्मू-कश्मीर को नोंचकर इस मामले को जो अंतिम स्वरूप दिया वह भारतीय संविधान की धारा ३७० है जो आज गले की घंटी बनकर भारतीय नागरिकों के सिर पर बडी जिम्मेदारी के समान बन गई है.
पंडित नेहंरू के दबाव में भारत के संविधान निर्माताओं ने जम्मू – कश्मीर राज्य को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार धारा ३७० के तहत दिया. इस अधिकार के तहत १९५१ में कश्मीर में संविधान सभा की रचना हुई और १९५२ को उसने डोगराओं के वंशानुगत शासन का अंत होने का प्रस्ताव पारित कर दिया. १९५४ में राज्य की संविधान सभा ने ड्राफ्टिंग समिति बनाकर संविधान का प्राथमिक मसौदा तैयार किया. उसमें हुए सुधारों के बाद राज्य की संविधान सभा ने १७ नवंबर १९५६ के दिन संविधान को स्वीकार किया और २६ जनवरी १९५७ के दिन से यानी भारत के संविधान के लागू होने के ठीक सात वर्ष बाद जम्मू-कश्मीर के स्वतंत्र संविधान का अमल आरंभ हुआ.
आज का विचार
मूर्खों के साथ आप बुद्धिमानी की बात करेंगे तो वे आपको मूर्ख कहेंगे.
– अफ्रीकी कहावत
एक मिनट!
१०२ वर्ष पर नॉट आउट रहे बका के दादा नटुकाका को पत्रकार ने पूछा:`आपकी लंबी उम्र का रहस्य क्या है?’
नटुकाका: कभी दलील न करना.
पत्रकार: मुझे नहीं लगता है कि इतना ही काफी है. कसरत, पौष्टिक आहार, पर्याप्त नींद. ये सारे कारण भी होने चाहिए.
नटुकाका: तो ऐसा हो सकता है….