क्या मायनॉरिटीज देश का अहित कर रही हैं?


न्यूज़ व्यूज़: सौरभ शाह

(newspremi.com, रविवार, २३ फरवरी २०२०)

गोवा के इसाई युवा हैं. वे बता रहे थे कि मुझे `मायनॉरिटी’ कहलाना अच्छा नहीं लगता. मैं `अल्पसंख्यक वर्ग’ का हूं ऐसा कहा जाता है तो मुझे लगता है कि मुझे साइडलाइन कर दिया गया है. मैं एक भारतीय हूं. मुझे `मायनॉरिटी’ का लेबल पसंद नहीं. `इंडियन’ मेरी असली पहचान है.

एक आदरणीय नेता से सुना कि कई मुसलमान हमसे कह रहे थे कि भारत हमारी जन्मभूमि है और हम उन लोगों को हिंदू-मुसलमान के रूप में पहचानना चाहते हैं.

जिन इसाई मिशनरियों का उद्देश्य भारत में धर्मांतरण करके हिंदुओं की संख्या कम करके इसाइयों की संख्या बढाना हो उनके सामने हम जरूर शक्ति प्रदर्शित करें. याद नहीं आ रहा है लेकिन शायद स्वामी विवेकानंद या फिर किसी महापुरुष ने कहा था कि धर्मांतरण के कारण एक हिंदू कम ही नहीं होता बल्कि धर्मांतरण करके वह इतना कट्टर हो जाता है कि हिंदुओं का एक दुश्मन बढ़ जाता है.

बात सौ फीसदी सच है. लेकिन जो दो चार छह पीढी पहले से धर्मांतरित हो कर भारत की संस्कृति में घुलमिल गए हैं उनकी बात अलग है. नए नए धर्मांतरित हुए लोगों के संस्कारों में और दशकों सदियों पहले हिंदू धर्म छोडकर अन्य रिलिजन को अपनाने वालों को एक तराजू में तौलने की गलती नहीं करनी चाहिए. जनता में धिक्कार फैलानेवाले, लोगों को कंन्वर्ट करने की आशय रखनेवाले, आतंकवादियों को पनाह देनेवाले- उन्हें बढावा देने वाले जो इसाई या जो मुसलमान हैं उनके खिलाफ और उनका पक्ष लेनेवाले मीडिया के खिलाफ लडने में हम अपनी सारी ऊर्जा चैनलाइज करें. पर गेहूं के साथ घुन भी न पिस जाय यह ध्यान में रखना चाहिए. उस गोवानीज मित्र को या खुद को हिंदू-मुसलमान के रूप में प्रस्तुत करना चाहनेवाले इस्लाम के बंदों को अपने साथ रखें.

इस देश से `मायनॉरिटी’ वाली संकल्पना ही दूर करनी जरूरी है. पारसी, सिख, जैन, बौद्ध भी तकनीकी रूप से मायनॉरिटी में गिने जाते हैं लेकिन उन्होंने न तो कभी गैरवाजिब मांगें की हैं, न ही कभी इस देश के विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचा है. उन्होंने यानी उनके नेता, उनकी ओर से अन्य कोई लीडर इस सारी जनता के पर्सेंटेजवाइज एक दो प्रतिशत होने के बावजूद खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. जब कि मुसलमान बारह-पंद्रह प्रतिशत होने के बाद भी असुरक्षित महसूस करते हैं. ये कथन फिर से पढिए: `मुसलमान बारह पंद्रह प्रतिशत होने के बावजूद सुरक्षित महसूस करते हैं.’ क्या ये बात सच है? क्या इस देश में बसनेवाले बीसेक करोड मुसलमान असुरक्षित महसूस करते हैं?

नहीं भाई, ऐसा बोलने वाले तो रोनेवाले लोग हैं. उदाहरण के लिए नसीरुद्दीन शाह. किसी जमाने में आमिर खान अपनी पत्नी के नाम से ऐसा कहता था. तो कभी जावेद मियां और उनका स्वच्छंद पुत्र ऐसी बकवास करते हैं.

क्या ये लोग बीस करोड मुसलमानों के प्रतिनिधि हैं? नहीं. इवन जो मुसलमान विधायक हैं या सांसद हैं जो देश के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं वे भी असल में भारत के तमाम मुसलमानों की आवाज नहीं हैं. ये समझना अत्यंत जरूरी है. मुसलमानों को `मायनॉरिटी’ के खाने में रखकर उनका लाभ लेने की साजिश नेहरू के जमाने से चली आ रही है. उन्हें विशेष आर्थिक सहायता दी जाती रही है जिसमें से अधिकांश राशि तो ये नेता ही हजम कर गए- मुसलमान जनता तो वहीं की वहीं रही. न तो उन तक शिक्षा पहुंचने दी गई, न स्वास्थ्य सुविधाएँ, न सामाजिक प्रगति होने दी. न उन्हें मुख्य धारा में शामिल होने दिया गया, न उनके भविष्य की चिंता की गई. इसके बावजूद इस देश का आम मुसलमान तो सुरक्षित ही महसूस करता है. उसे उकसाने की लाख कोशिशें गाहेबगाहे होती रही हैं फिर भी उसने कभी भारत छोडकर पाकिस्तान – बांग्लादेश तो क्या सऊदी अरब या यूएई जैसे समृद्ध देशों की नागरिकता लेना का या वहां जाकर शरण मांगने का विचार तक नहीं किया है. आम मुसलमान ने इस देश को अपना देश माना है. गोवा के युवा मित्र की तरह आम मुसलमान भी अपने ऊपर लगा हुआ `मायनॉरिटी’ का तमगा फेंककर केवल `भारतीय’ के रूप में तो कभी हिंदू-मुसलमान के रूप में पहचाने जाने के लिए आतुर है.

अनेक स्वार्थी राजनेता और उठाईगिरे मीडिया द्वारा हमारे मन में ऐसा वातावरण पैदा किया गया है और अब भी ऐसी ही हवा फैलाई जा रही है कि: ये मायनॉरिटीज देश का अहित कर रही हैं. असलियत ये है कि मॉयनॉरिटीज के नाम पर जिन्होंने जमकर लूटा है वे नेता तथा मीडिया देश का अहित कर रहे हैं. ये बात बार बार कहनी पड रही है क्योंकि ये समझना अत्यंत जरूरी है जिससे कि इस देश को हो रहे नुकसान को रोका जा सके और देश में रहनेवाले देश के दुश्मनों जैसे अनेक नेता तथा मीडिया हाउसेस को हो रहा फायदा बंद किया जा सके. लडकियों से छेडछाड की घटना निंदनीय है लेकिन ऐसा घृणित कार्य करनेवाले लडके `जय श्रीराम’ के नारे लगा रहे थे ऐसी गलत रिपोर्टिंग होना उससे भी घृणित है. मेन स्ट्रीम मीडिया की एक महिला जर्नलिस्ट ने रिपोर्टिंग करते समय `जय श्रीराम’ वाला झूठ जोड दिया और वामपंथियों की टोलियां होहल्ला मचाने के लिए उमड पडी. सीएए के बारे में गलतफहमी फैलाने में मीडिया का बडा योगदान रहा है. मीडिया को तो सीएए या फिर ३७० के बारे में रही गलतफहमियों को दूर करने का कर्तव्य निभाना चाहिए. उसके बजाय मीडिया खुद ही गलत जानकारी फैला रहा है. ये बरसों से चल रहा है. बाबरी के समय, गोधरा के समय मीडिया ने पेट भरकर दुष्प्रचार किया जिसके आधार पर देशविरोधी राजनेताओं ने जनता को उकसाया. जनता तो उकसावे में आने ही वाली है. जब भीड जुटती है तो उसे अक्ल नहीं होती. केवल भीड को दोष नहीं देना चाहिए. सबसे पहली गलती गलत जानकारी फैलानेवालों की और गलत जानकारी के आधार पर उकसानेवालों की है. पहले उन्हे खोज कर चुप कराना चाहिए. लेकिन मीडिया के खिलाफ आप इस लोकतंत्र में कडे कदम नहीं उठा सकते. लगातार झूठ पर झूठ बोलनेवाली मीडिया की बोलती आप बंद नहीं कर सकते. और उकसानेवाले दमदार राजनेता होते हैं इसीलिए वे भी बच निकलते हैं. अंत में जिन्हें गलत राह पर ले जाकर उकसाया गया है ऐसे प्रदर्शनकारियों को पकडा जाता है. जो इन प्रदर्शनों में शामिल नहीं होते उनकी राय भी इन प्रदर्शनकारियों जैसी ही है ऐसा मान लेने की गलती हम करते हैं. वे इन प्रदर्शनकारियों के साथ नहीं हैं या कम से कम इस मुद्दे पर अभी असमंजस में हैं, ऐसा हम नहीं मान सकते.

मीडिया की तोडमरोड को प्रभावी तरीके से पूरी तरह रोकना संभव नहीं है क्योंकि चीन, सिंगापुर या यू.ए.ई. जैसे कानून हम नहीं बना सकते. अमेरिका-ब्रिटेन की तरह हमारे यहां भी हरामखोर मीडिया को छूट देनी पडती है ये दुर्भाग्यपूर्ण है. मीडिया जो मिस रिपोर्टिंग करती है उसकी स्पष्टता या उसका क्लैरिफिकेशन आने में घंटों, या कभी कभी कई दिन निकल जाते हैं. मीडिया का झूठ प्रसारित होने पर तुरंत ही रीयल टाइम में स्पष्टीकरण हो ऐसी प्रणाली खडी करने की अत्यंत आवश्यकता है. सोशल मीडिया में कई विशेषज्ञ काम कर रहे हैं पर अभी भी ये काम करनेवालों की संख्या ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है.

मीडिया की बदमाशी का विरोध सभ्यतापूर्वक होना चाहिए, बिना किसी आक्रोश के उनकी कलई खोलनी चाहिए. हममें से कइयों के अंदर गुस्से का कल्चर घुस चुका है. इसे तत्काल हटाने की जरूरत है. गालियां देने से कुछ नहीं होगा. वे लोग गलत होंगे और आपकी बात सौ प्रतिशत सच होगी तो भी गालीगलौज करने से और गुस्से वाले नजरिए से हमारा उद्देश्य आहत होता है, हम अपने समर्थकों का समर्थन खो देंगे और विरोधी दुगुनी ताकत से हम चढाई कर देंगे. वे भी हमें उकसाने के लिए गालीगलौज करेंगे, क्रोध करेंगे और संदर्भ विहीन अतार्किक बातें करेंगे. ऐसा करके वे हमें कीचड में कुश्ती लडने का निमंत्रण देते हैं. उनके जाल में फंसने की कोई जरूरत नहीं है.

अखबार पढकर, पुस्तकें पढकर पली बढी एक पीढी है जिसे एनेलॉग जनरेशन कहते हैं. अब तो डिजिटल जनरेशन आ गई है जो मोबाइल पर न्यूज प्राप्त करती है. सोशल मीडिया पर सक्रिय है. इस एनेलॉग और डिजिटल- दोनों जनरेशन तक एक साथ प्रभावी रूप से पहुंचना कठिन है. पर करना होगा. हमारे पास सबकुछ है. संख्या है. इरादे हैं, सुविधा है और संसाधन भी हैं. दिशा नहीं है. बस दिशा तय करके आगे बढने की जरूरत है.

भारत विविधता में एकता का देश है ऐसा कहने के बजाय ये कहना चाहिए कि भारत में हर विविधता का अनन्य साधारण महत्व है. ये विविधताएं एक दूसरे में समाहित नहीं हुई हैं. हमने हर समाज की अनूठी पहचान को सुरक्षित रहने दिया है और उसका उत्सव मनाया है. सेल्फ प्रोक्लेम्ड लिबरल्स मानो खुद बहुत ही सहिष्णु हैं इस प्रकार से कहते हैं कि हम हर विचार को टॉलरेट करते हैं. जब भी कोई कहता है कि `आय टॉलरेट यू’ तब उसमें से इनटॉलरेंस की बू आ रही होती है. मैं आपको सह रहा हूं कहने वाला अंदर से आपको सहन नहीं करना चाहता, सहन करने जितनी उदारता भी उसमें नहीं है इसीलिए तो ऐसी भाषा बोलता है.

अच्छी बात है कि ऐसे वामपंथियों, स्यूडो सेकुलर्स, लिब्रांडुओं की संख्या धीरे धीरे घट रही है, संकुचित होती जा रही है और हमारे मत को समर्थन देनेवाले आगे आते जा रहे हैं. अभी तक उनका समर्थन अदृश्य था जो अब प्रत्यक्ष हो रहा है. ये सच्चाई है. हमें बस इतना ही करना है कि उनकी रणनीति को समझें, उसकी परत खोलें और उन्हें विफल बनाएं. फिर हमें जो करना है वो करते रहें.

अपने विचारों के प्रचार प्रसार के लिए अपना नैरेटिव अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए कई दिशाओं से प्रयास किए जा रहे हैं. अधीर होकर किसी को कोसने की जरूरत नहीं है. राम मंदिर और ३७० के मुद्दे को लेकर हम ही कई बार अपने लोगों को गालियां देते थे. समझना चाहिए कि हर बात का एक वक्त होता है. वटवृक्ष चाहिए तो धैर्य भी होना चाहिए. अभी अभी बोए पौधे को खींच कर लंबा करके वृक्ष बनाना संभव नहीं है. राम मंदिर और ३७० ये दोनों मुद्दे किस तरह से सुलग रहे थे. यदि उनका हल उचित तरीके से न किया जाता तो समाधान आने के बाद वे अधिक सुलगते. इसके बजाय आप देख सकते हैं कि कितनी सहजता से, शांति से वह सुलझ चुका है. आनेवाले दिनों में उससे भी बडे बडे काम होने हैं जिसका संकेत प्रधान मंत्री ने `टाइम्स नाव’ की समिट में दिया है. इसीलिए अब किसी को भी मुंह में १३५ का मावा दबाकर युनिफॉर्म सिविल कोड तो अभी तक आया नहीं जैसे तर्क नहीं देने चाहिए. हमें अपना काम करना चाहिए. साहब को उनका काम करने दें.

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