वामपंथियों ने भारत का इतिहास विकृत कर दिया

संडे मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, रविवार – २४ फरवरी २०१९)

अंग्रेजों ने जिसे १८५७ के `विद्रोह’ के रूप में दर्ज किया और स्वतंत्रता के बाद साम्यवादी इतिहासकारों ने भी जिसे `विद्रोह’ या `म्युटिनी’ के रूप में ही संबोधित किया वह असल में भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम था. वे घटनाएं जब घटित हुईं तब स्वाभाविक रूप से उसका नामकरण किसी भारतीय द्वारा भी `पहले’ स्वतंत्रता संग्राम के रूप में नहीं हुआ होगा. १९१४ में शुरू हुए और १९१९ में समाप्त हुए पहले विश्वयुद्ध को उसका नाम १९५९ में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद ही मिला. १९१४ – १९१९ के दौरान जो लोग ये युद्ध लड रहे थे, वे ऐसा थोडे ही कहेंगे कि हम `पहला’ विश्वयुद्ध लड रहे हैं.

किंतु दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इतिहास की सभी पुस्तकों में उसका उल्लेख प्रथम विश्वयुद्ध के रूप में होने लगा. तिलक-गोखले-गांधी-सरदार-नेहरू तथा सुभाष-सावरकर-भगतसिंह द्वारा जब भारत का दूसरा स्वतंत्रता संग्राम चलाया गया उसके बाद एक वर्ष से अधिक समय तक चले १८५७ के `विद्रोह’ को इतिहासकारों द्वारा भारत की सभी पाठ्यपुस्कों तथा इतिहास की पुस्तकों में `भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम’ के रूप में ही उल्लेख किया जाना चाहिए था.

भारत के गौरवशाली इतिहास का उल्लेख होते ही वामपंथियों के पेट में मरोड उठने लगती है. वामपंथी देश के दुश्मन हैं यह बात मैने पहले `गुड मॉर्निंग’ में ही लिखे लेखों की एक लंबी श्रृंखला में साबित की है और वामपंथी रोजाना अपने देशद्रोहीपने को साबित करते रहते हैं. बात १८५७ के इतिहास की हो या फिर वर्तमान घटनाओं की. इस सप्ताह सउदी प्रिंस भारत के दौरे पर जब आए तब आपने देखा होगा कि इतना सारे वामपंथी अखबारों तथा टीवी चैनलों ने भी भारत के खिलाफ प्रचार करना शुरू कर दिया था, जिसमें भारत को नीचा दिखाने की दृष्टि से ऐसे समाचार छापकर पाठकों को भ्रमित किया गया. कई सारे उदाहरण दिए जा सकते हैं, लेकिन ये हमारा विषय नहीं है, १८५७ के संग्राम की हम बात कर रहे हैं. फिर भी उदाहरण चाहिए तो एक ले ही लो. सी.एन.एन. से संबद्ध न्यूज एटीन ने अपनी डिजिटल आवृत्ति में एक लेख प्रकाशित किया. भारत के लिए सऊदी अरब का कितना महत्व है?

देखने में तो आपको ये बिलकुल निर्दोष एंगल लगता है. इस एंगल से भी सऊदी प्रिंस के दौरे को देखा जा सकता है, इसमें कोई गलत बात नहीं है, लेकिन जरा समझिए कि सऊदी प्रिंस खुद भारत आए हैं. सऊदी अरब के लिए भारत का महत्व होगा तभी तो ये यहां आए हैं ना. विषय ये होना चाहिए, लेकिन वामपंथी हमेशा भारत का गलत ही देखना चाहते हैं.

१८५७ के संबंध में भी यही हुआ. भारत के इतिहास को वामपंथियों ने हमेशा अपने लाल चश्मे से देखा है. अब समय आ गया है कि भारत के इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में रखा जाए.

इससे पहले एक बात. भारत के इतिहास के बारे में यह जानकारी होनी चाहिए कि हमारे इतिहास को विकृत बनाकर उसका इतना प्रचार किया गया है कि आज की तारीख में अगर कोई भी हमें असली इतिहास बताएगा तो भी हम संदेह करते हैं, प्रमाण मांगते हैं. भारत के इतिहास के कई सारे पृष्ठ मुगल इतिहासकारों, अंग्रेज इतिहासकारों तथा स्वतंत्रता के बाद के वामपंथी इतिहासकारों ने फाड दिए हैं या फिर छिपा दिए हैं या उपेक्षा की है. दूसरी बात, दूसरे विश्वयुद्ध में अमेरिका-ब्रिटेन जैसे अलाइड कंट्रीज (साथी राष्ट्रों) की जीत हुई और जर्मनी बुरी तरह से परास्त हुआ, हिटलर ने पैशाचिक अत्याचारों के बाद शर्मिंदगी से अत्महत्या कर ली- यह सब हम जानते हैं. वह इतिहास हिटलर या उसके साथियों ने नहीं, बल्कि अमेरिका-ब्रिटेन के इतिहासकारों ने लिखा है. युद्ध में छोटी-बडी लडाइयों में छोटी बडी लडाइयों में अपनी बहादुरी की खबरें उस समय के अमेरिकी-ब्रिटिश सेनाधिकारी हेडक्वार्टर्स पर जब भेजते थे तब अपनी नाकामी को छिपाते, अपनी बदमाशियों को ढंकते, तथा अपने ही साथियों का श्रेय छीन लेते थे.

किताब में छपी बातों को अंतिम सत्य माननेवाले दोनों तरफ से मूर्ख बनते हैं. वे स्रोतों की जांच किए बिना अन्य लोगों की बहादुरी को तथा अपने पक्ष की कायरता को – यथावत्‌ स्वीकार कर लेते हैं. यह जानकारी भी हासिल नहीं करते हैं कि लिखनेवाले की विश्वसनीयता कितनी है.

१८५७ के इतिहास का भी यही हाल हुआ है. ब्रिटिश इतिहासकारों ने ऐसी कई जानकारियों को ढंका है या विकृत रूप में प्रकट किया है जिसमें उन्हें नीचा दिखाया गया है. ऐसे नीतिवान लोग बिरले ही होत हैं जो सत्य कह देते हैं. डग्लस एम. पियर्स ऐसे ही एक अनोखे इतिहासकार है. उन्होंने `इंडिया अंडर कोलोनियल रूल: १७००-१८८५’ पुस्तक में लिखा है कि १८५७ के `विद्रोह’ में भारत में रहे ४०,००० यूरोपियनों में से ६,००० मारे गए. और इसके सामने कितने भारतियों का कत्ल हुआ. डग्लस एम. पियर्स लिखते हैं आठ लाख से अधिक. हिटलर की नाजी सेना ने दूसरे विश्वयुद्ध में जितने यहूदियों को नहीं मारा था उससे भी अधिक भारतीय १८५८ के संग्राम में बलिदान हुए. बेशक ये आंकडा (८,००,००० से अधिक) बडा न लगे इसलिए डग्लस एम. पियर्स ने भी थोडी चालाकी से लिखा है कि इसमें अकाल तथा रोगों से मरे हुए लोग भी शामिल हैं. वामपंथी इतिहासकारों ने ऐसी चालाकी अंग्रेजों से ही सीखी है. खुद के लिए सुविधाजनक न हो तो ऐसी जानकारियों को बिलकुल अलग संदर्भ देकर छिपा दिया जाता है ताकि जब कोई चैलेंज करेगा तब कहा जा सकता है कि हमने ये जानकारी तो दी ही है. आजादी के बाद भी भारत की तीन तीन पीढियां भारत के इतिहास के बारे में गुमराह होती रही हैं. अब समय आ गया है कि इस सारे ऐतिहासिक अंधकार को दूर करके वास्तविक इतिहास को उजागर किया जाय. अगले रविवार को पर्दा खोलेंगे.

आज की बात

सत्य कडवा नहीं होता. अभी तक आपको झूठ के स्वाद की ही जानकारी है.

ओशो रजनीश

संडे ह्यूमर

बका: पका, एक सवाब का मुझे जवाब दो.

पका: पूछो.

बका: अगर औरत सच्ची होती है और पुरुष झूठा होता है तो यदि पुरुष औरत से ऐसा कहे कि तूम सच्ची हो, तब क्या कहा जाएगा कि पुरुष ने सच कहा है या झूठ कहा!

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