गुड मॉर्निंग – सौरभ शाह
अटल बिहारी वाजपेयी १९८४ में ग्वालियर की लोकसभा सीट से हार गए थे जिसका कारण सिर्फ इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में फैली कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की लहर नहीं था. इसके अलावा भी एक कारण था जिसके बारे में वाजपेयी ने विस्तार से लिखा है जिसे हम जानेंगे. इंदिरा गांधी की हत्या के कारण कांग्रेस को जो सहानुभूति मिली उसमें ५३३ सीटों वाली लोकसभा में उनके ४१४ सदस्य चुनकर आए थे और भाजपा को केवल दो सीटें मिली थीं. लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार व्यंग्य में १९८४ के उस चुनाव को `लोकसभा नहीं बल्कि शोकसभा का चुनाव’ कहा था!
ग्वालियर के उस चुनाव के बारे में बात करने से पहले जान लेते हैं कि ग्वालियर के साथ वाजपेयी का काफी पुराना संबंध है. बहुत पुराना यानी? उनके जन्म के समय से. जी नहीं, उससे भी पुराना. वाजपेयी का जन्म २५ दिसंबर १९२४ को ग्वालियर की शिंदे छावनी में स्थित संकरी गली के रूप में पहचानी जानेवाली गली के कमलसिंह के बाग के पास स्थित छोटे से घर में हुआ था. पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी अध्यापक थे, देश प्रेम की कविताएँ भी लिखते थे और ग्वालियर स्टेट के राज दरबार में उनका काफी मान-सम्मान था. अटलजी के दादा पंडित श्यामलाल वाजपेयी संस्कृत के विद्वान थे और वे आगरा के पास प्रसिद्ध तीर्थस्थल बटेश्वर में रहते थे. वट से बटेश्वर. भगवान शंकर ने इस स्थान पर वट वृक्ष के नीचे कुछ समय विश्राम किया था. बटेश्वर के शिवमंदिर की बडी महिमा है. वाजपेयी परिवार शिवभक्त था. अटलजी खुद प्रति दिन महादेव की प्रार्थना करते थे ऐसा लिखा है. उनकी ईश्वर में खूब आस्था थी.
पुराणों में लिखा है कि द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण के दादा शूरसेन की राजधानी बटेश्वर थी. यमुना निकट ही बहती थी. इससे पहले, त्रेता युग में भगवान राम के छोटे भाई शत्रुघ्न ने इस नगरी को बसाया था. द्वापर युग में कंस का वध करने के बाद कृष्ण और बलराम बटेश्वर आए थे. कंस के ससुर जरासंध को यह जानकारी मिली गई इसीलिए उसने छह बार शूरसेन नगर (बटेश्वर) पर हमला किया, लेकिन बलराम-कृष्ण का बाल भी बांका नहीं हुआ. बटेश्वर को `ब्रज की काशी’ भी कहा जाता है. भगवान विष्णु ने कहा था कि बटेश्वर का दर्शन करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं.
ऐसे बटेश्वर में वैदिक सनातन कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में जन्मे श्यामलाल वाजपेयी ने अपने पुत्र कृष्ण बिहारी वाजपेयी को ग्वालियर जाकर बसने की सलाह दी थी. अटलजी का जन्म माता कृष्णा देवी की कोख से ग्वालियर में हुआ. परिवार में चार भाई थे: अवध बिहारी, सदा बिहार, प्रेम बिहारी और अटल बिहारी. कवि पिता की संतानों के नाम कितने सुंदर हैं. तीन बहनें: विमला, कमला और उर्मिला.
कवि पिता के साथ बचपन से अटलजी कवि सम्मेलनों में जाते रहे. बीए तक की पढाई ग्वालियर में ही हुई. विक्टोरिया कॉलेज में. अब उस कॉलेज को लक्ष्मीबाई कॉलेज के रूप में जाना जाता है. इस कॉलेज की स्टूडेंट्स यूनियन के सेक्रेटरी और वाइस – प्रेसिडेंट के पद पर भी अटलजी रहे. डिबेट्स और वक्तृत्व स्पर्धाओं में भाग लिया करते थे. वे स्कूल के दिनों से (१९४० ) आरएसएस में जुड गए थे. नियमित शाखा पर जाते थे. वाजपेयी को शाखा में लाने का श्रेय नागपुर से ग्वालियर आए संघ के आजीवन प्रचारक नारायण राव तर्टे को जाता है. अटलजी ग्वालियर की लक्ष्मीगंज शाखा में जाते थे.
उन्हें चिंता थी कि बीए पास करने के बाद आगे पढने के लिए पैसे कहां से आएंगे. पिता निवृत्त हो चुके थे. दो बहनों की शादी भी शेष थी. उस समय ग्वालियर के महाराजा श्रीमंत जीवाजीराव सिंधिया ने अटल बिहारी वाजपेयी को उच्च शिक्षा के लिए हर महीने ७५ रूपए की स्कॉलरशिप प्रदान की थी. इसी छात्रवृत्ति के कारण वाजपेयी कानपुर के डी.ए.वी. कॉलेज में एम.ए. की पढाई शुरू कर सके और एमए में फर्स्ट क्लास आने के बाद उन्होंने एल.एल.बी. की पढाई भी शुरू की.
वाजपेयी जिनकी स्कॉलरशिप से पढे ऐसे महाराजा जीवाजी राव सिंधिया १९२५ में अपने पिता के अवसान के बाद केवल नौ वर्ष की उम्र में ग्वालियर की गद्दी पर बैठे. पिता का नाम माधोराव था और १९४१ में शादी के बाद १९४५ में जन्मे पुत्र का नाम भी माधवराव सिंधिया रखा गया. १९८४ में ग्वालियर का चुनाव वाजपेयी को इन माधवराव सिंधिया के सामने कैसे लडनी पडी इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है. कल वह बात करने से पहले जान लेते हैं कि राजीव गांधी के परम मित्र के रूप में पहचाने जानेवाले माधवराव सिंधिया का ३० सितंबर २००१ को विमान दुर्घटना में अवसान हो गया था. उनकी चार बहनों में से एक वसुंधरा राजे सिंधिया अभी राजस्थान की मुख्यमंत्री हैं और दूसरी बहन यशोधरा राजे भाजपा की सांसद हैं. ये पांचों राजसी संतानों की मात राजमाता विजयाराजे सिंधिया (जन्म: १९१९) भारतीय राजनीति का एक बहुत बडा नाम है. उनका मायके का नाम लेखा दिव्येश्वरी देवी था. उनके नाना नेपाल के राजपरिवार से थे. उस जमाने में ब्यूटीक्वीन जैसी छाप थी. पढी लिखी तो थी ही. १९६१ में महाराजा दिवंगत हुए. उससे पहले राजमाता १९५७ में ही राजनीति से जुड गई थीं. गुना (मध्यप्रदेश) की लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर जीतीं. १९६२ में ग्वालियर से जीतीं. लेकिन १९६७ में कांग्रेस छोडकर स्वतंत्र पार्टी में गईं और फिर से गुना सीट से जीतीं. उसके बाद राजमाता जनसंघ और फिर भाजपा के साथ रहकर राजनीति में सक्रिय रहीं. इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी ने राजमाता को जेल में डाल दिया था, उनके पुत्र माधवराव सिंधिया की मां के साथ नहीं बनती थी. राजीव गांधी के करीबी मित्र थे. राजमाता और बेटे के बीच इतना बडा मतभेद इसीलिए था कि उन्होंने अपने विल में लिखा था और घोषित भी किया था कि मेरी अंत्येष्टि में मेरा एकमात्र पुत्र उपस्थित न रहे. २००१ में, बेटे की अकाल मृत्यु से कुछ नौ महीने पहले, जनवरी में राजमाता दिवंगत हो गईं.
वाजपेयी को ग्वालियर के राजपरिवार के प्रति बचपन से ही विशेष लगाव था. राजनीति में कद बढने के बाद भी राजमाता विजया राजे सिंधिया के प्रति उतना ही आदर रहा. उनके बेटे के साथ राजनीतिक मतभेद होने के बावजूद उन्हें परिवार का सदस्य मानकर प्रेम करते थे. १९८४ के चुनाव में वाजपेयी को किस तरह से इन्हीं माधवराव सिंधिया के खिलाफ चुनाव लडना पडा था, उसकी बात कल करेंगे. उससे पहले यह भी जान लेते हैं कि ३० सितंबर २००१ को माधवराव की अकाल मृत्यु के बाद उनकी अंतिम क्रिया के समय प्रधान मंत्री विशेष रूप से दिल्ली से ग्वालियर गए थे. दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने ऐसे व्यक्ति को फोन किया जिसने स्मशान में उनका फोन रिसीव किया. माधवराव सिंधिया के प्लेन में तीन पत्रकार – टीवी कैमरामैन थे. दुर्घटना में सभी की मृत्यु हो गई थी. `आज तक’ चैनल के कैमरामैन का दिल्ली में अंतिम संस्कार जब हो रहा था तब स्मशान में वाजपेयी का फोन जिसने उठाया उन्हें विधि खत्म होने के बाद पीएम हाउस में बुलाया गया. रात में आमने सामने मुलाकात हुई. कहा गया कि आपको गुजरात जाना है, चीफ मिनिस्टर केशुभाई पटेल की जगह लेनी है!
शेष कल.
आज का विचार
मौत की उम्र क्या
दो पल भी नहीं,
मैं जी भर जिया
मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा
कूच से क्यों डरूं.
– अटल बिहारी वाजपेयी
(मुंबई समाचार, मंगलवार – २१ अगस्त २०१८)