(न्यूज़प्रेमी डॉट कॉम, ७ नवंबर २०२०)
महाराष्ट्र की जनता में आतंक फैलाकर राज कर रही उद्धव-पवार-सोनिया की सरकार द्वारा रिपब्लिक टीवी की आवाज़ को, अर्णब गोस्वामी की आवज़ को और हम सभी की आवाज़ को दबाने के लिए बिलकुल निचले दर्जे पर पहुंच कर जो हरकतें की जा रही हैं उसके बारे में कल जो बात शुरू की थी उसे आगे बढ़ाते हैं. बात के दस मुद्दे हैं जिनके दो मुद्दों के बारे में कल विस्तार से विश्लेषण किया था: अब शेष मुद्दे:
३. अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी जिस केस में हुई है उसका बैकग्राउंड आपके पास होना जरूरी है. रिपब्लिक टीवी का स्टूडियो मुंबई के लोअर परेल में बना है जहां किसी जमाने में बॉम्बे डाइंग की मिल हुआ करती थी. स्टूडियो के अंदर प्रबंधन कार्यालय, न्यूज रूम, शूटिंग फ्लोर्स, एडिटिंग रूम तथा विजिटर्स रूम्स इत्यादि बनाने के काम और साथ ही उसकी इंटीरियर डिजाइनिंग का काम जिस पार्टनरशिप फर्म को दिया गया था, उसके एक साझेदार ५३ वर्षीय अन्वय नाईक ने अपनी ८० वर्षीय माता के साथ २०१८ में आत्महत्या की थी. क्यों? आत्महत्या करने से पहले लिखी चिट्ठी में अन्वय नाईक ने इस आशय से कुछ लिखा है कि अर्णब गोस्वामी ने मेरा बिल नहीं चुकाया है जिसके कारण मेरे लेनदार मेरा खून पी रहे हैं, मेरा जीना हराम हो गया है, केवल मौत ही मुझे इससे उबार सकती है. अन्वय के अनुसार कुल मिलाकर कुछ सवा पांच से साढे पांच करोड रूपए जितनी राशि उन्हें नहीं मिली थी. सुसाइड नोट में अर्णब गोस्वामी के अलावा फिरोज़ शेख (स्किमीडिया) तथा नीतीश सारडा (स्मार्ट वर्क्स) को भी नाईक ने अपनी आर्थिक बदहाली के लिए जिम्मेदार ठहराया है. (इन दोनों का रिपब्लिक टीवी के साथ कोई संबंध नहीं है).
अन्वय नाईक की आत्महत्या के केस के बारे में पर्याप्त जांच करने के बाद पुलिस को संतोष हो गया कि इस घटना में अर्णब गोस्वामी (या फिरोज़ शेख/ नीतीश सारदा) किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं हैं. केस की फाइल बंद कर दी गई. अब खेल देखिए कि इस फाइल को रातोंरात री-ओपन कर दिया जाता है और अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी की जाती है.
केस रिओपन करने के लिए कोर्ट की अनुमति नहीं ली गई, जो कानून के अनुसार अनिवार्य है. कोर्ट भी तभी केस को रिओपन करने की अनुमति देती है जब बंद हुए केस में कोई नया सुराग निकलता है, कोई नई बात बाहर आती है, कोई नया प्रमाण, नया साक्ष्य हाथ लगता है. यहां इनमें से कुछ भी नहीं है. गिरफ्तार करने के बाद अर्णब को रिमांड पर लेने के लिए कोर्ट में पेश किया गया तब कोर्ट ने इसी बात को ध्यान में लिया और पुलिस कस्टडी को नामंजूर करके अर्णब को न्यायिक हिरासत में रखने को कहा.
न्यायिक हिरासत (या अदालत की हिरासत में) में आरोपी को जेल में रखा जाता है जहां पर पुलिस उसे प्रताडित नहीं कर सकती. पुलिस हिरासत में पुलिस के पास आरोपी का कब्जा होता है और पुलिस चाहे तो आरोपी पर शारीरिक, मानसिक दबाव/ अत्याचार करके आरोपी को उत्पीडित कर सकती है.
सुसाइड नोट में नाम लिख जाने से आरोपी अपने आप मृतक की मौत का जिम्मेदारी बन जाता है, ऐसा नहीं है. अन्वय नाईक ने अपनी पत्नी नहीं बल्कि माता को अपनी फर्म में हिस्सेदार बनाया था. माता ने भी अन्वय के साथ ही आत्महत्या की और यह संयोग शंका को जन्म देता है. क्या अन्वय ने मां को आत्महत्या करने के लिए उकसाया होगा या दबाव डाला होगा या फिर माता की हत्या करके खुद आत्महत्या कर ली होगी? इस सवाल का जवाब तो अब भगवान ही दे सकते हैं.
एक संभावना ऐसी है कि अन्वय नाईक ने बकाया राशि के बारे में परिवार को बढा चढा कर बात की होगी और लेनदारों (सप्लायर्स) को किन्हीं अलग ही कारणों से लटकाकर बिल की राशि किसी अनैतिक जगह पर खर्च की होगी. रिपब्लिक के हिसाब किताब के अनुसार अन्वय नाईक को इतनी भारी रकम देय थी ही नहीं और जो भी मामूली राशि देना शेष थी, उसमें काफी सारी विवादित थी या उसे बाद में चुका दिया गया था.
कोई भी प्रतिष्ठित बिजनेसमैन आर्थिक कारणों से आत्महत्या कब करता है? ये सोचने जैसा सवाल है. किसी से आपको साढे पांच करोड जितनी बडी राशि लेना बाकी हो तो क्या आप आत्महत्या करके अपनी जान ले लेंगे या फिर सामनेवाले पर राशि वसूलने के लिए केस करके, पुलिस में शिकायत करके उसका जीना हराम करेंगे? विचारणीय मुद्दा है.
पुलिस ने इन सभी और हमारी समझ से बाहर हो सकते हैं ऐसे अन्य तमाम मुद्दों की जांच करके इस केस को बंद कर दिया था.
उद्धव-पवार-सोनिया सरकार के काले कारनामों को एक के बाद एक बाहर लाने में अर्णब गोस्वामी सफल हो रहे हैं, ऐसा लगने के बाद ही गुंडाराज के अनुभवी लोगों ने एक के बाद एक शिकारी कुत्ते अर्णब को फाडने के लिए छोड़ दिए. टीआरपी स्कैम में असल में कोई तक तक करनेवाला चैनल संलिप्त है लेकिन उसमें अर्णब को अपराधी बताने का आभास दिलाया गया. मुंबई पुलिस अक्सर प्रेस कॉन्फरेंस नहीं करती. पुलिस कमिश्नर खुद प्रेस कॉन्फरेंस बुलाते हैं और ऐसा बिरले ही होता है. अर्णब और रिपब्लिक की विश्वसनीयता पर डामर लगाने के लिए ऐसी प्रेस कॉन्फरेंस मुंबई के पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह ने की. (इस आदमी को देवेंद्र फडणवीस ने उसके बैकग्राउंड के कारण मुंबई से दूर रखा था. हिंदू आतंकवाद का बनावटी नैरेटिव गढने में कांग्रेसी मव्वाली दिग्विजय सिंह का साथ देनेवालों में परमबीर सिंह का नाम पहले से ही कलंकित हुआ है. साध्वी प्रज्ञा सिंह ने बार बार सार्वजनिक रूप से परमबीर का नाम लेकर कहा है कि उसने मालेगांव केस के समय किस तरह से कस्टडी में शारीरिक अत्याचार किया था और गंदी से गंदी हरकतें करके मानसिक रूप से तोडने की कोशिश की थी. ऐसे अन्य कई सारे पाप हैं. इसीलिए फडणवीस ने उन्हें ठाणे का चार्ज सौंपा जिसका महत्व मुंबई की तुलना में मामूली ही कहा जाएगा. लेकिन उद्धव ने सत्तासीन होते ही परमबीर को मुंबई के पुलिस कमिश्नर के पद पर बिठाकर उन्हें सम्मानित किया.)
टीआरपी में अर्णब की विश्वसनीयता को तोडने की कोशिश में लगे उद्धव की चमचागिरी करनेवाले चैनल्स ही फंस गए. अर्णब को हवाला कांड में फंसाने की कोशिश हुई, और इस फुग्गे से दो ही घंटे में हवा निकल गई. अर्णब को गिरफ्त में लेने की तमाम कोशिशें नाकाम होती रही. विधानसभा का `अनादर’ करने के लिए उन्हें बुलाया गया. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी हरकत करने के लिए समन भेजने वाले को उल्टे हाथ लिया, अर्णब को न्याय दिया. मुंबई पुलिस ने दादागिरी करके रिपब्लिक टीवी के हिसाब किताब के तमाम बही खाते मंगाए. रिपब्लिक टीवी के सीईओ, सीएफओ इत्यादि टॉप मैनेजमेंट टीम को पुलिस ने समन्स भेजे. रिपब्लिक टीवी के प्रदीप भंडारी सहित शीर्ष एडिटोरियल टीम के सदस्यों को पुलिस स्टेशन में घंटों तक बिठाकर पूछताछ के बहाने आतंकित किया गया. रिपब्लिक के निवेशकों को पुलिस की ओर से धमकियॉं मिलने लगीं. रिपब्लिक टीवी के बाकी के स्टाफ पर पुलिस ने समन्स भेजना शुरू कर दिया.
अर्णब गोस्वामी को परेशान करने के लिए, सच बोलने का उनका साहस तोडने के सभी प्रयास जब नाकाम हो रहे हैं तो रातोंरात सुसाइड वाला केस रिओपन होता है और सुबह के समय बीस बीस पुलिस अधिकारी ए के ४७ और अन्य बंदूकें-राइफल्स लेकर दाउद इब्राहिम या ओसामा बिन लादेन को पकडने जा रहे हों इस तरह से वर्ली में अर्णब का फ्लैट जिस इमारत में है उसको घेर लेते हैं और उनके फ्लैट में पहुंच जाते हैं. एक गली के गुंडे के साथ जो व्यवहार किया जाता है ऐसा बर्ताव निर्भीक, राष्ट्रनिष्ठ, प्रामाणिक और करोडों के लिए आदरणीय पत्रकार के साथ होता है, तो आपका खून खौल जाता है. यूट्यूब पर इस गिरफ्तारी की घटना की क्लिप्स आप देख सकते हैं.
अन्वय नाईक के और उसके परिवार के शरद पवार के साथ संबंध हैं, इसके प्रमाण हैं. पवार ने मांग की है कि इस केस में अर्णब गोस्वामी के अलावा देवेंद्र फडणवीस को भी फिट किया जाय.
अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी से यदि आपको दुख नहीं हो रहा है, अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी से यदि आपको क्रोध नहीं आता है, अर्णब की गिरफ्तारी से यदि आपको उद्धव-पवार-सोनिया सरकार देश की पवित्र लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था में घुसे गुंडे मव्वालियों की सरकार नहीं लगती है तो मान लीजिएगा कि आपको हिटलरशाही चलानेवाली फासिस्ट सरकार चाहिए, आप तानाशाही में विश्वास करते हैं.
आज जो लोग अर्णब के साथ नहीं हैं, ऐसे आपके आस-पास जो भी लोग हों उन सभी के नाम आप अपनी डायरी में लिख रखिएगा. आप पर आपत्ति के समय वे लोग आपके साथ भी नहीं रहेंगे.
४. पत्रकार शिरोमणि हसमुख गांधी के एक गुजराती स्तंभ का नाम था `तरपकडो’. एक छोटा सा पक्षी थोडे से तिनके जमा करके जिस घोंसले में रहता है उसे गुजराती में `तरपकडो’ कहा जाता है. रिपब्लिक टीवी के चैनल्स जिसके स्वामित्व के हैं उस कंपनी का नाम है ए.आर.जी. आउटलायर मीडिया प्रायवेट लिमिटेड. ए.आर.जी. यानी अर्णब रंजन गोस्वामी. और आउटलायर (Outlier) यानी? ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार: अ पर्सन डिटैच्ड फ्रॉम द मेन सिस्टम. मुख्यधारा से निर्लिप्त रहता है ऐसा व्यक्ति.
टीवी मीडिया की मुख्यधारा यानी दिल्ली का लुटियन्स मीडिया जिसमें तकरीबन सारे बदमाश चैनल्स और उनके भष्ट मालिक-पत्रकार शामिल हैं. ये लेफ्टिस्ट मीडिया के पत्रकार कांग्रेसियों के जूते पॉलिश करके करोडो रूपए की कोठियों के मालिक बन गए. (भारत की जनता की आंखों में धूल झोंकनेवाले ऐसे पत्रकार प्रिंट मीडिया में भी पहले से हैं). अर्णब गोस्वामी ने सैद्धांतिक कारणों से `टाइम्स नाव’ की शानदार और सम्मानजनक नौकरी को लात मारकर दिल्ली के प्रदूषित-कलुषित वातावरण को आखिरी सलाम करके मुंबई आना पसंद किया. सत्ता के दलालों से दूर, राजनीति में भ्रष्ट तत्वों के असर से दूर, साथी पत्रकारों में होनेवाली पूंछ हिलाकर बिस्किट का टुकडा पा लेने की हरकतों से दूर. अर्णब और रिपब्लिक के करोडों प्रशंसकों को अब ये ठीक से ध्यान में आएगा कि ए.आर.जी. आउटलायर मीडिया नाम में ही कौन कौन से सिद्धांत, कौन सी नीतियां और कैसी व्यावसायिक खुद्दारी समाई है.
जनता में अर्णब गोस्वामी जैसे पत्रकार की विश्वसनीयता पर सवाल खडे हो जाएं, इसके लिए उनके विरोधी क्या क्या कर सकते हैं, ये हम अभी देख रहे हैं. भूतकाल में ऐसा हो चुका है और कल को ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है. होता ही रहता है. ऐसी आपात् स्थिति में पत्रकार से अधिक कसौटी पाठकों और दर्शकों की होती है. पाठकों के विश्वास की, दर्शकों के विश्वास की. यदि आपको अपने आप पर भरोसा नहीं होगा तो ऐसे कठिन समय में आप जिन पर विश्वास करते हैं, वह विश्वास भाप बनकर उड जाएगा. विरोधी यही तो चाहते हैं. आपका विश्वास खोकर पत्रकार कमजोर बने और किसी पर विश्वास करने जैसा नहीं है,ऐसा मानकर आपकी मान्यताएं पंगु हो जाए. आपके कंधे पर रखे बकरे को कुत्ता बताने पर आप से उतार दें और आप जैसे ही उसे उतारते हैं कि तुरंत विरोधी उसे कत्लखाने ले जाकर अगले ही दिन बिरयानी बनाकर लुत्फ उठाएं.
क्या आप उद्धव-पवार-सोनिया को ऐसी दावत का मौका देना चाहते हैं?
तय आपको करना है. फायदा-नुकसान आपका ही है. अर्णब गोस्वामी तो कल जेल से बाहर आकर दुगुने जोश से सीधे अपने स्टूडियो पहुंचकर दस गुना तेज आवाज में विरोधियों को चुनौती देंगे : द नेशन वॉन्ट्स टू नो. पूछता है भारत. तब जवाब आपको देना पडेगा.
इस बीच महाराष्ट्र में उद्धव-पवार-सोनिया शासन के अंत का आरंभ हो चुका है.
(शेष कल)
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