तंदुरुस्त जीवन जीना हो तो क्या मनपसंद भोजन का त्याग करना चाहिए?-हरिद्वार के योगग्राम में ९वॉं दिन : सौरभ शाह

(गुड मॉर्निंग: चैत्र शुक्ल अष्टमी, विक्रम संवत, २०७९, शनिवार, ९ अप्रैल २०२२)

स्वामी रामदेव के हरिद्वार स्थित योगग्राम-निरामय आश्रम का एक अनुशासन है. यहां प्रवेश करने बाद जब तक आपकी बुकिंग हो, उस दिन से पहले आप प्रवेशद्वार से बाहर कदम नहीं रख सकते. यह अनुशासन न हो तो यहां की कुछ बातों को लेकर जिन्हें घर की आदतें याद आती हैं, वे बार जाकर जो चाहे खाकर आएंगे.

वैसे, सबसे निकट का गांव यहां से काफी दूर है. योगग्राम प्रैक्टिकली जंगल में है. योगग्राम को लगकर ही राजाजी नेशनल पार्क है.

एक दिन शाम को टहलने निकले तब मुख्य प्रवेश द्वार के बाहर स्टाफ बस की पार्किंग से कुछ दूर एक आइसक्रीम वाला और एक गन्ने का रस बेचनेवाला खड़े थे. व्यवसाय चल रहा होगा तभी तो यहां इतनी दूर तक आते होंगे न. स्टाफ के लोगों और बाहर से नौकरी पर आनेवाले थेरेपिस्टों इत्यादि की ग्राहकी अच्छी होती होगी.

इसी तरह से चलते चलते, पिछले दिन जिसने मेरे पैरों के तलुवे में एंटी-कोल्ड मालिश की थी, वह थेरेपिस्ट, उसके मित्र साथ नजर आए. मैने पूछा,`ईवनिंग वॉक के लिए निकले हैं?’ उन्होंने कहा,`मेन गेट के बाहर निकल कर चार किलोमीटर चलेंगे और चार किलोमीटर चलकर लौटेंगे.’ `अच्छी बात है!’ मैने प्रशंसा की तो उन्होंने कहा,`वहां गांव में चाय और समोसा खाने जाते हैं! नहीं तो हमें जेल जैसा लगता है!’

यहां के स्टाफ, डॉक्टर्स, थेरेपिस्टों और चिकित्सक सहायकों के लिए भोजन अलग से बनता है. हमें दिया जानेवाला भोजन नहीं होता. इसके बावजूद कई स्टाफ कर्मचारियों को चाय-समोसे की लालच हो जाती है तो चार दुनी आठ किलोमीटर चलकर भी मजा कर आते हैं. वरिष्ठ निबंधकार और चिंतक गुणवंत शाह खाने-पीने-चलने में अत्यंत नियमित हैं. आहार में कुछ अधिक खा लेते हैं तो उतनी कैलरी बर्न करने के लिए अधिक चलते हैं. उन्होंने एक लेख में आया वाक्य मैं वर्षों से बार बार मित्रों के सामने दोहराता रहता हूं:`एक समोसा मुझे एक किलोमीटर में पड़ा!’

इस हिसाब से आठ किलोमीटर चलनेवाले उस थेरेपिस्ट ने तो आठ समोसे खाए ही होंगे!

मुझे यहां न तो मुंबई के सायन-गुरुकृपा का समोसा याद आता है, न ही सांताक्रूज-रामश्याम की सेवपुरी याद आती है, न माटुंगा-रामाश्रय का इडली सांभर ही याद आता है.

सबेरे नित्य योगाभ्यास के समय स्वामी रामदेव ने अच्छा सुझाव दिया था:`आप लोग केवल दो महीने के लिए अपने पुराने स्वाद को भूल जाएं. सारा जीवन जो कुछ भी खाया है उसका हमेशा के लिए संपूर्ण त्याग करो, ऐसा मैं नहीं कह रहा लेकिन केवल दो ही महीने के लिए इन तमाम व्यंजनों को बंद कर दो. फिर आपको जो कुछ भी खाना हो वह खाइएगा-अनुपात में. आपकी बेलगाम स्वादवृत्ति पर अपने आप नियंत्रण आ जाएगा.’

आम रस लेकर भजिया-बटाटा वडा या फिर भेलपुरी-पानीपुरी से लेकर पाव-भाजी, फाफड-जलेबी तक घर बनने वाले या बाहर मिलने वाले दर्जनों व्यंजन हम आनंद से खाते हैं. इसमें कुछ गलत भी नहीं है-यदि थोडा सजग होकर थोड़ा ध्यान दें तो.

स्वामीजी की बात सही है. नमकीन, मिठाई या फिर अन्य दर्जनों `पसंदीदा’ व्यंजन खाते समय हमसे दो गलतियां होती हैं. एक तो हम उसकी क्वांटिटी के प्रति सजग नहीं होते और दूसरे, उसकी बारंबारता को संयमित नहीं रखते. जरा विस्तार से समझने योग्य बात है. और इस समस्या का निराकरण भी मेरे हिसाब से बिलकुल आसान है.

आम रस लेकर भजिया-बटाटा वडा या फिर भेलपुरी-पानीपुरी से लेकर पाव-भाजी, फाफड-जलेबी तक घर बनने वाले या बाहर मिलने वाले दर्जनों व्यंजन हम आनंद से खाते हैं. इसमें कुछ गलत भी नहीं है-यदि थोडा सजग होकर थोड़ा ध्यान दें तो.

सबसे पहले तो ऐसे व्यंजनों के अलावा जो घर का आहार है-रोटी-सब्जी, दाल-चावल, खिचडी इत्यादि अनेक चीजें-इस पौष्टिक आहार के बदले में हम वह सब नहीं खाते. शरीर को जो असली पोषण मिलता है, वह घर की साग-सब्जियों, अनाज, दाल, फलादि से. वह ऐसे ही दो वक्त के भोजन से मिले, यह देखना चाहिए. इसके अलावा छोटी-मोटी भूख लगती है तब या बाहर जाते हैं तब या मित्र जुटते हैं तब मौज से उन सबका आनंद लेना चाहिए लेकिन इन बातों को ध्यान में रखकर:

१. जो कुछ भी खाते हैं, वह कम मात्रा में खाएं. नमकीन की दुकान पर बैठे ही हैं तो फाफडा, कचौरी, खमण, पेटिस, जलेबी, चबैना इत्यादि जो कुछ भी फलक पर लिखा है, वह सब खा लेना है, ऐसी लालच को रोकना चाहिए. वहां दोबारा आ सकते हैं. दुकान कहां भागकर जाएगी, और आप भी यहीं हैं. फिर उद्विग्नता किस बात की. और जो कुछ भी खाते हैं एकाध-दो डिश भी शेयर करके आनंद लें. सारा अकले ही ठूंस लेने की जरूरत नहीं है. संक्षिप्त में भेलपुरी-भजिया सबकुछ खाएं लेकिन ऐट अ टाइम स्मॉल क्वांटिटी में खाएं. अभी तक जो आदत थी उससे भी आधी मात्रा कर दें. डबल मजा आएगा. कैसे? दूसरा मुद्दा पूरा करके बताता हूं.

२. दूसरा मुद्दा ये है कि फ्रिक्वेंसी घटा दें. घर में सप्ताह में दो बार दाल-वडा बनता है या बाहर से आता है तो एक बार कर दें. पानीपुरी हर सप्ताह खाते हैं तो पंद्रह दिन में एक बार कर दें. जो पसंद हो उसे बिलकुल से क्यों छोड देना? बल्कि फ्रिक्वेंसी जरूर कम कर देनी चाहिए.

क्वांटिटी और फ्रिक्वेंसी-ये दो बातें याद रखें तो जीवन में कभी ऐसा समय देखने की नौबत नहीं आएगी जब डॉक्टर हाथ खड़े करके आपसे कह दें कि,`श्रीखंड-पुरी-बटाटा वडा सब बंद, बाहर का भूल से भी नहीं खाना है. जीना है तो चुपचाप घर में बनी बिना घी की दो रोटियां या खिचडी खाना सीख जाइए और तब भी भूख लगती है तो एक कटोरी बिना भुना हुआ मुरमुरा खाएं-वर्ना अधिक से अधिक दो साल जिएंगे और तडप तडप कर मरेंगे.’

मात्रा और बारंबारता की बात यदि आपके गले उतरती है तो उसे अमल में लाने का सुझाव देता हूँ: जो कुछ भी खाएं, वह शांति से, धीरे-धीरे, एक –एक निवाला भरपूर स्वाद लेकर खाएं. बिना किसी डिस्ट्रैक्शन (ध्यान भंग किए बिना), भोजन का स्वाद आनंद से लें. पानीपूरी वाला भले ही फटाफट आपको एक एक पुरी परोसता रहे, आप अपनी बारी छोड दें लेकिन धीरे धीरे पुरी में भरे पानी, चना-मूंग-आलू या रगडा या बूंदी का, खट्टी मीठी चटनी का आनंद लें. डबल आनंद आएगा. और कम पानी पुरी खाकर ज्यादा संतोष मिलेगा.

घर में टीवी से सामने बैठकर या गप्पा लगाते लगाते आम रस से भरी तीन कटोरियां भी गटक जाएंगे तो उतना संतोष नहीं मिलेगा जितना संतोष सभी के साथ बैठकर, लेकिन कम से कम बात करते हुए, तथा टीवी बंद करके, धीरे धीरे एक कटोरी रस में आएगा.

किसी भी भोजन का असली स्वाद लेना जब हम चूक जाते हैं तब हम असंतोष के कारण और चाहिए, और चाहिए करके खाते रहते हैं, फिर भी जी नहीं भरता. ये सब मैं आपको अपने अनुभव से, अपनी बुरी आदतों के आधार पर कह रहा हूं. बिलकुल बचपन से मुझे भोजन करते समय पढने की आदत थी. नाश्ता करते समय भी पुस्तक हाथ में चाहिए. फिर टी.वी. आगया, डीवीडी, ओटीटी और बहुत कुछ आया. मित्रों के साथ खा-पी रहे हों तो फिर चाहे कितने ही स्वादिष्ट व्यंजन हों, गपशप करना ही मुख्य होता है. इसीलिए क्या खाया, कितना खाया इसका कोई मायने नहीं रह जाता.

पसंदीदा आहार तेजी से खा लें, चबा चबाकर उसके स्वाद बढाने के बजाय मात्रा का ध्यान नहीं रखें, फ्रिक्वेंसी का भी नहीं. सप्ताह में जब मन हुआ तब यहां खाने गए, वहां खाने गए, फलाना याद आया तो वहां जाकर आए. न कोई नियम, न कोई अनुशासन. इस कारण से होता क्या है कि आप चाहे जितना खाएं लेकिन संतोष ही नहीं होगा.

स्वामीजी ने जो दो महीने वाली बात की है, वह अधिक कन्विंसिंग लगी मुझे. भोजन भगवान द्वारा दी गई एक महान भेंट है. अ-स्वाद व्रत हम जैसे सांसारिक लोगों के लिए नहीं है-तपस्वियों के लिए है. अमुक तरह के आहार का बिलकुल ही त्याग कर दें तो बहुत ही अच्छा है. लेकिन पसंद की हर चीज छोड देने का कोई मतलब नहीं है. हर भोजन का आदर करें-मात्रा संभालें, बारंबारता तय करके.

योगग्राम में भले ही पूरे दो महीने नहीं रहने वाले, दस दिन कम रहेंगे-पचास दिन मात्र. लेकिन स्वामीजी ने जो पाठ सीख दी है, वह घर जाकर होमवर्क के रूप में पक्का हो जाय तो जीवन के स्वर्णिम दिन आरंभ हो जाएंगे.

ताजा जानकारी: यह लेख लिखने के बाद मुझे अपने डायनिंग हॉल में डिनर के लिए जाना है. मेरे लिए आज का मेनू है-लौकी का सूप, पपीते का बाउल और भोजन के बीस मिनट बाद मेथी-सरसों के पावडर के दो चम्मच, सोने से पहले एंटी कोल्ड क्वाथ और सपने में सेवपुरी आधा प्लेट.

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