चालाक फिल्ममेकर्स ने हिंदुस्तान के दर्शकों को ठग लिया

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, शनिवार – १० नवंबर २०१८)

कोई आपको पावभाजी खिलाने के लिए बुलाए और बादशाह या एवरेस्ट के पावभाजी मसाले को बटर में लपेट कर परोसे और कहे कि लो, मजा करो, तब आप क्या कहेंगे? अरे भले मानस, इसमें भाजी कहां है? मैं सिर्फ मसाला चाटकर पेट भरूं?

`ठग्स ऑफ हिंदुस्तान’ में भाजी है ही नहीं, और जो मसाला है वह भी बासी, बेस्वाद और फेंकने जैसा है. आदित्य चोपडा के प्रति एक सम्मान की भावना थी जिसका कारण ये है कि वे यश चोपडा के सुपुत्र हैं और दूसरा बड़ा कारण था कि आदित्य चोपडा ने `दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ जैसी आयकॉनिक फिल्में लिखीं और निर्देशित कीं. वह भी अर्ली ट्वेंटीज की आयु में. ऐसा टैलेंटेड व्यक्ति `ठग्स ऑफ हिंदुस्तान’ जैसी कचरापट्टी प्रोड्यूस करेगा, इस पर आपको विश्वास ही नहीं होगा. मेरा तो मानना है कि अगर उन्होंने यह फिल्म प्रोड्यूस न की होती और किसी अन्य के प्रोडक्शन में बनी होती तो ऐसी फिल्म देखने भी कोइ नहीं जाता, ऐसा उसका टेस्ट है.

विजय कृष्णन आचार्य ने `ठग्स’ लिखी और डायरेक्ट की है. `टशन’ या `धूम-थ्री’ जैसी सडकछाप फिल्में उन्होंने ही लिखी थीं, डायरेक्ट की थीं. `ठग्स’ में प्रोड्यूसर-डायरेक्टर दोनों ने मिलकर हिंदी फिल्म के ऑडियन्स को ठगने का निश्चय पहले से कर रखा था, ऐसा लगता है. कहानी नहीं है, स्क्रिप्ट नहीं है, फिर भी फिल्म बनी है. हिंदी फिल्मों में सेकुलरबाजी करनेवालों का वर्चस्व अब भी है, यह बात एक बार फिर ये फिल्म साबित करती है. ऐसी छाप पडती है कि हिंदुस्तान में अंग्रेजी हुकूमत को सिर्फ मुसलमानों ने चुनौती दी थी, मानो मुस्लिम ही इस देश को चाहते थे. १८५७ के विद्रोह को मिटाने के लिए १७९५ और उसके बाद के दशकों की कपोलकल्पित (जिसे इतिहास का एक प्रतिशत भी आधार नहीं है) बातों से फिल्म बनी है. मुस्लिम राजा केसरी-लाल-पीला झंडा फहराता है और वह भी सूर्य के चित्रवाला, कुछ इस प्रकार की सेकुलरगिरी इसमें घुसाई गई है.

इन सभी नादानियों को नजरअंदाज कीजिए. आइए देखते हैं कि अमिताभ बच्चन स्क्रीन पर क्या करते हैं? ठीक एक घंटा दो मिनट बाद वे पहला डायलॉग बोलते हैं (जी हां घडी देखी थी). महान बच्चनजी की असरदार आवाज को सैंडपेपर से घिस कर विकृत कर दिया गया है. चेहरे पर तमाम भावनाओं के शेड्स लाकर आंखों से दर्शकों को प्रभावित करके कलाकार को जो प्रसिद्धि मिलती है वैसी बात ही नहीं है. उस महान बच्चनजी से फालतू डिरेक्टर ने एक ही गुस्सैल एक्सप्रेशन दिलाया है. दाढी, मेकअप, प्रोस्पेटिक्स और पोशाक के भार में दबे बच्चनजी को `ठग्स’ में देखने के बजाय उन्हें पियून का युनिफॉर्म पहनकर नवरत्न तेल बेचते हुए देखना मुझे अधिक अच्छा लगेगा. आमिर खान ओवररेटेड एक्टर हैं, यह बात एक बार फिर साबित हो गई (पहले `पीके’ में साबित हुई थी). पर्दे पर आमिर की एंट्री होने पर वे जिस तरह से अजीबोगरीब हरकते करते हैं उसे देखकर गरदन बाएं-दाएं हिलानेवाले `रामलखन’ के अनिल कपूर की टपोरीगिरी याद आती है. आमीर में इस हद तक गिरावट आ गई हैं कि उनको अब अनिल कपूर जैसे `बी’ ग्रेड के अभिनेता की नकल करन पड रही है.

हमारी बहन (कैटरीना कैफ) अब बूढी हो चुकी हैं लेकिन जवानी टिकाए रखने के लिए चेहरे पर बोटॉक्स के इंजेक्शन लगा लगा कर चेहरा ऐसा बना दिया है कि पहचान में हीं नहीं आता. प्रभु देवा की घिन्न पैदा करने जैसी कोरियोग्राफी में इस बहन ने सवा दो सौ साल पहले के हिंदुस्तान में मनीष मलहोत्रा के डिजाइन किए हॉट पैंट्स पहन कर कैबरे किया है. दंगलवाली उस लडकी को तो पहलवानी ही करनी चाहिए, ऐक्टिंग करना उसके बस की बात नहीं है. तीनों गीत हाइप के कारण खूब चलाए गए, दम किसी में भी नहीं है. किसी फिरंगी द्वारा बनाए गए बैकग्राउंड म्यूजिक में अफ्रीका के आदिवासियों का वातावरण निर्मित करने जैसे साउंड्स का उपयोग किया गया हो, इस प्रकार की आवाजें डाली गई हैं. क्यों? क्या उस जमाने में भारतीय जंगली थे? क्या ये फिरंगी ऐसा मान बैठे हैं? कैमरा वर्क और एडिटिंग इस फिल्म के सबसे कमजोर पहलू हैं. सारी ऐक्शन सिक्वेंस का कोई ठिकाना ही नहीं है और सबसे बुरी बात क्या है जानते हैं? जिसका सबसे ज्यादा प्रचार किया गया, वो वॉरशिप्स और उनमें होनेवाली गतिविधियां. `ठग्स’ की मेकिंग्स की क्लिप्स में इस शिप के `निर्माण’ के इफेक्ट्स के प्रयोगों के बारे में बडी बातें हुई हैं, जैसे `टाइटेनिक्स’ की बाप जैसी फिल्म बन रही हो. यह सारा काम बिलकुल बचकाने अप्रोच के साथ हुआ है. पैसा बहुत खर्च करने की बातें फिल्म को बेचने के लिए ही की गई हैं. दर्शकों से टिकट के ज्यादा पैसे वसूलने के लिए तथा अलग अलग राइट्स बेचकर अधिक पैसे कमाने के उद्देश्य से यह प्रचार किया गया है कि फिल्म पर भारी खर्च किया गया है.

इंटरवल पर जो फिल्म खत्म हो जानी चाहिए थी, उसे और सवा घंटे तक सहना पडा. विक्रम संवत के नए वर्ष के पहले दिन बडों के पैर छूकर शगुन के जो पैसे मिले उसे कोई ठग मेरे गले में रुमाल की गांठ मारकर ले भागा, ऐसा लग रहा है. अब भी उससे उबर नहीं पाए हैं. नेहरू – सरदार की बात को लंबित करके आपके साथ इन बातों को साझा करने की तीव्र इच्छा थी. दो वर्ष पहले नए साल पर सूरज बडजात्या की सलमान खानवाली `प्रेम रतन धन पायो’ देखकर ऐसा ही फील हुआ था. दिवाली या नए साल पर अच्छी फिल्में रिलीज होने का जमाना अब गुजर चुका है. अब तो मार्केटिंग का जमाना है. बिलकुल घटिया माल कचरे में डालने के बजाय आपके गले बांध देने की ठग विद्या को मार्केटिंग जैसा मनोहर नाम दिया गया है. गुजराती के लेखक हरकिसन मेहता की `अमीर अली ठग के पीले रुमाल की गांठ’ के राइट्स को लेकर स्टीवन स्पिलबर्ग के स्तर का कोई निर्देशक यदि फिल्म बनाता है तो ही आदित्य चोपडा-विजय आचार्य द्वारा ठगे गए हिंदी फिल्म के दर्शक महंगी-प्रीमियम टिकटें खरीदकर नए साल में उत्साह से लौटेंगे. पर अब तो तय कर लिया है कि नए वर्ष का आरंभ ऐसी कोई फिल्म देखकर नहीं करना है, क्योंकि अपने यहां कहते हैं ना कि नए साल के पहले दिन जो भी करते हैं वह साल भर करना पडता है.

आज का विचार

भूल जानी चाहिए जो बात याद है,

बस इसीलिए तो हमारे बीच विवाद है

– वॉट्सएप पर पढा हुआ

एक मिनट!

बका: अरे पका.

पका: बोल बका.

बका: तेरी वाइफ को नए साल की शुभेच्छा दे रहा हूं.

पका: क्या?

बका: उसे जाकर कहना कि बकाभाई ने शुभेच्छा दी है कि भाभी, नए साल में आपके मोबाइल की बैटरी हमेशा फुल रहे, आप चाहे जितना खाएं तो भी आपका वजन न बढे और सब्जीवाला आपकी गली के नुक्कड पर ही पानीपुरी बेचना शुरू कर दे.

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