गुड मॉर्निंग
सौरभ शाह
गुस्सा गलत तरीके से बदनाम हो गया है. सार्वजनिक जीवन में तथा निजी जीवन में यह न सिर्फ उपयोगी है, बल्कि अनिवार्य भी है. कहीं पर कुछ गलत हो रहा हो और वहां मनुष्य को गुस्सा न आए तो समझ लीजिए कि उसकी मानसिकता नपुंसक है. अन्याया होता देख कर खून खौलना स्वाभाविक है. क्रांतियां ऐसे ही गुस्सों के कारण सृजित होती हैं. चुपचाप सह लेने की प्रवृत्ति को सहनशीलता या धैर्य के ऊंचे आसन पर नहीं बिठाया जा सकता. `इसमें मेरा कितना प्रतिशत’ वाला नजरिया कहकर अपने सामाजिक दायित्व को झटक देनेवाले ही गुस्से को बदनाम करते हैं. ऐसे लाखों लोगों में से जब कोई एक खडा होकर आक्रोश व्यक्त करता है और विरोधी स्वर में कहता है कि जो गलत हो रहा है उसे रोकना चाहिए, तब उसे थपकियां मारकर बिठा देने की कोशिशें होती हैं. उसके विरुद्ध बेलगाम आरोप प्रत्यारोप का वातावरण बन जाता है, उसे बदनाम करने के लिए कुप्रचार करने के षड्यंत्र रचे जाते हैं. अपन मानसिक निर्वीर्यता को खुलते हुए देखने की शक्ति नहीं रखनेवाले लोग क्रोध द्वारा व्यक्त होने वाली किसी की लगनशीलता, मर्दानगी, उसके शौर्य को नहीं सह सकते. वस्त्र विहीनों के नगर में वस्त्रादि से सुसज्जित होकर कोई व्यक्ति आ जाए तो उनकी क्या हालत होगी? स्वाभाविक ही है कि सारे नगरवासी मिलकर उसके कपडे उतारने की कोशिश करेंगे. वस्त्रधारी परदेसी जब अपने वस्त्र उतारने से इनकार कर देता है तब निष्पक्ष माने जानेवाले लोग भी घडी भर के लिए झिझक जाते हैं. उन्हें भी लगने लगेगा कि निश्चित ही इस परदेसी के पास ढंकने जैसा कुछ जरूरत है, खुल जाने पर खुद के नग्न होने का डर इस परदेसी को होगा और इसीलिए नगरवासी उसे निर्वस्त्र करना चाहते हैं, तब वह उनका विरोध करता है. ऐसी परिस्थिति में निष्पक्ष लोग भी सोच विचार नहीं कर सकते कि वे लोग किसलिए इसके कपडे उतारने की कोशिश कर रहे हैं. किसी नाजुक दौर में आपने ऐसे निष्पक्ष लोगों को भी नगरवासियों की पंगत में बैठते देखा होगा.
सार्वजनिक जीवन में गुस्सा व्यक्त करने का अपना एक तरीका होता है. आवेश में आकर किसी तरह बोलकर व्यक्त होनेवाला क्रोध चाहे जितना सच्चा हो लेकिन वह बेकार हो जाता है. ऐसा मौका खो देने से दो तरह का नुकसान होता है. गुस्सा करनेवाले की जेनुइननेस छिप जाती है और जो गुस्से का पात्र है उन्हें आरोपी न होकर फरियादी बनने का मौका मिल जाता है.
निजी जीवन में भी क्रोध के बारे में लगभग ऐसे ही मापदंड लागू होते हैं. व्यक्ति के साथ व्यवहार द्वारा या स्नेह से जुडे अन्य व्यक्ति के सामने गुस्सा बिलकुल नहीं करना चाहिए ऐसा नहीं कहा जा सकता. सामनेवाला व्यक्ति कुछ गलत कर रहा हो तो उसके हित में गुस्सा करना पडता है. सामनेवाले व्यक्ति आपके सामने अन्यायकारी आचरण करते दिख रहे हों तो भी गुस्सा करना पडता है, लेकिन ऐसा गुस्सा किसी तरह से बोल देने पर या चिल्लाकर तर्क कुतर्क करने से बेकार हो जाता है. गुस्सा करने का कोड ऑफ कंडक्ट किसी ने निर्धारित नहीं किया इसीलिए हर व्यक्ति को अपना नियम बना लेना पडता है.
दिमाग गर्म हो जाता है या सिर फटने लगे ऐसी परिस्थिति मेंस्टैंट गुस्सा पचा पाना बडा भारी साबित होता है. असल में वह गुस्सा नहीं आवेश होता है. वह नकारात्मक तात्कालिक प्रतिक्रिया होती है और कुछ नहीं होता. निजी जीवन में भी गुस्सा व्यक्ति निरपेक्ष होना चाहिए यानी सामने वाला व्यक्ति कुछ गलत कर रहा हो तब `तुम तो ही ऐसे’ कहकर संपूर्ण व्यक्ति को ही लपेटे में नहीं लेने की सतर्कता बरतनी चाहिए और गुस्से को विषय या मुद्दे पर केंद्रित रखना चाहिए. इस मामले पर आपका बर्ताव ठीक नहीं था. इस विशिष्ट मौके पर आपने जो फैसला लिया वह उचित नहीं था. या फिर आपके व्यक्तित्व के इन पहलुओं से मैं बिलकुल सहमत नहीं हूँ. ऐसा कहकर अपने गुस्से को संस्कारित किया जा सकता है.
कल समाप्त.
आज का विचार
छप के बिकते थे जो अखबार, वे अब बिक कर छपते हैं.
– व्हॉट्सएप पर पढा हुआ.
एक मिनट!
बका: गुरुजी, ऐसी पत्नी को क्या कहा जाता है जो सुंदर हो, गोरी हो, ऊंची हो, बुद्धिमान हो, शांत हो, शुद्ध चरित्र की हो, पति के अलावा अन्य किसी के बारे में सोचती तक न हो, गुस्सा नहीं करती हो, अच्छा खाना बनाती हो, घर संभालती हो, रखडनेवाली न हो और काट कसर करके बेकार के खर्चे न करती हो.
गुरुजी: इसे मन का वहम कहते हैं, बका, मन का वहम……