संडे मॉर्निंग- सौरभ शाह
(मुंबई समाचार, रविवार – ६ जनवरी २०१९)
रजनीशजी के विचारों पर जो लेखों की श्रृंखला शुरू की थी उसमें एक बात करनी रह गई थी, जिसे करके यह श्रृंखला पूरी करेंगे.
रजनीशजी कहते हैं कि हम जिसे जीवन जीना कहते हैं वह तो केवल कहने की बात है. बल्कि जीवन तो किसी बुद्ध का होता है, किसी महावीर का होता है, किसी नानक का होता है, किसी जीसस का होता है. जीवन तो वे लोग जीते हैं. अधिकांश लोग तो जन्म लेते हैं और मर जाते हैं. जन्म और मरण के बीच जो विराट अवसर मिलता है उसे इस तरह से बर्बाद करते हैं, मानो वह अवसर मिला ही न हो. खजाना खोज सकते थे. ऐसी समृद्धि – संपदा प्राप्त कर सकते थे जिसे कोई छीन नहीं सकता, लेकिन इसके बजाय वे ऐसी वस्तुओं को जुटाने में ये जीवन बर्बाद कर देते हैं जो छिन जानेवाली है और यह बात पहले से ही तय है. इस बात से कोई बच नहीं पाया है, कोई इन वस्तुओं को अपने साथ ले नहीं जा सका है. मौत आती है और भिखारी के भिखारी ही रह जाते हो. बडे से बडा सम्राट भी भिखारी की तरह इस दुनिया से विदा लेता है.
ओशो रजनीश की इस बात से भला कौन सहमत नहीं होगा? मैं जो कमाता हूं वह मुझे कम पडता है. मेरा घर मुझे छोटा लगता है. मेरी गाडी बदलने का अब वक्त आ गया है. मेरे पास महंगा वैकेशन लेने जितने पैसे नहीं हैं. मेरे पास संतानों का विवाह ठाठबाठ से करने जितना धन नहीं है. मेरे पास वृद्धावस्था में सुरक्षित रखने के लिए पर्याप्त धनराशि अभी तक एकत्रित नहीं हुई है.
हमारा सारा जीवन इसी चक्कर में खत्म हो जाएगा. दो जून की रोटी, सिर पर छत और दो मोटे कपडे मिल जाने के बाद मनुष्य को इस चक्कर से छूट जाना चाहिए. समृद्धि बढने का विरोध नहीं है, आंतरिक समृद्धि की तरफ बेध्यान हो जाने पर आपत्ति है. केवल वस्तुओं को जुटाकर जो समृद्धि इकट्ठा करते हैं उस पर आपत्ति है.
बुद्ध-महावीर या रजनीश बनना हमारे हाथ में है. हम वह बने हैं या नहीं इसका पता तो जीते जी न हमें चलेगा, न ही जमाने को. हमारे चले जाने के दशकों या सदियों बाद जमाना तय करेगा कि हम जो जीकर गए हैं, जो काम करके गए हैं उसका किस तरह से मूल्यांकन होना है. फिर वे हमारा गुणगान करेंगे और जीते जी हम कितने महान थे, ऐसी कहानियां जोडेंगे, बशर्ते सचमुच में महान किए होंगे तो. इसीलिए मैं महावीर-बुद्ध-रजनीश या कोई महान व्यक्ति भला कैसे बन सकता हूं, ऐसे संशय को मन से दूर कर मृत्यु के एक-दो दशक बाद या एक दो शताब्दियों बाद या एक-दो सहस्त्राब्दि (मिलेनियम) बाद भी हमारा काम याद रह जाए, इस तरह से जिएं. जीवन केहर पल को इस संदर्भ में ध्यान में रखकर जिएं. हमारे पास ये अनमोल अवसर है जिसे कमाई करने या की गई कमाई का उपयोग करने में समय बिताने के बजाय किसी ऐसे काम में जुट जाएं जो इस देश के लिए, मानव कल्याण के लिए उपयोगी हो. जीवदया, मंदिर, अस्पताल तथा विद्यालय बनाने जैसे काम तो उपयोगी हैं ही लेकिन अब उससे भी अधिक उपयोगी काम में दूरदृष्टि लाना जरूरी है. स्वामी विवेकानंद ने मंदिर नहीं बनाए, सरदार वल्लभभाई पटेल ने अस्पताल नहीं बनाए, गांधीजी ने स्कूल नहीं बनाए. स्वयं बुद्ध और महावीर ने भी धर्मोपदेश किया लेकिन मंदिर तो उनके निर्वाण के बाद उनके अनुयायियों ने बनाए. रजनीशजी यदि रजनीशजी बने तो इसीलिए कि जो लोग मंदिर इत्यादि में दान-धर्म नहीं कर सकते थे, उन्होंने वह राशि रजनीशजी के लिए व्यवस्था खडी करने, उनकी सिस्टम बनाने के लिए उपयोग में लाई जिसके कारण उस जमाने में – १९६० के दशक में उनके प्रवचनों को रेकॉर्ड किया गया, जब कि उस समय टेप रेकॉर्डर का आमतौर पर उपयोग नहीं होता था, उनका इस्तेमाल केवल प्रोफेशनल कामकाज के लिए ही हुआ करता था. उसके बाद वीडियो रेकॉर्ड हुए. इन तमाम प्रवचनों की पुस्तकें बनीं. अभी हमारे पास यह अमूल्य विरासत विद्यमान है जिसका ये कारण है कि इन सब गतिविधियों को संपन्न करने और संरक्षित रखने की सारी व्यवस्था रजनीशजी के पास खडी होती गई. जिस राशि से अस्पताल-स्कूल बन सकते थे उनका उपयोग यहां पर किया गया. इस कारण से क्या अस्पताल या स्कूल कम बने? नहीं. वह तो बने ही और बनते रहेंगे. अच्छा ही है. लेकिन वैचारिक विरासत का संवर्धन करने, क्रांतिकारी और निर्भीक बातें अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे ऐसा सिस्टम खडा करने के लिए दान धर्म होना चाहिए.
रजनीशजी तो अभी कल की ही बात हैं. स्वामी विवेकानंद, सरदार पटेल, गांधीजी, वीर सावरकर से लेकर खलील जिब्रान, कन्फ्यूशियस या वेद व्यास के विचार आज हमारे पास हैं, इसका कारण ये है कि प्रत्येक काल में जनसमूह ने यह ध्यान रखा है कि देवालय- आरोग्य धाम या विद्यालयों के अलावा वैचारिक विरासत को सुरक्षित रखने के लिए सिस्टम खडा करने हेतु भी समाज ने खुले हाथ से दान धर्म करे.
यह समाज का दायित्व है, समाज की यह जिम्मेदारी है. बुद्ध-महावीर सहित इन सभी विचारकों ने अपने जीवन में जो कार्य किया वह अमर रहे, नई पीढियों तक पहुंचता रहे, इसकी जिम्मेदारी समाज ने स्वीकारी. इसीलिए उनके कार्य, उनके विचार आज हम तक पहुंच सके हैं. उन्हें सहेज कर समाज ने अपने ऊपर हुए एहसानों का ऋण स्वीकार किया है. बुद्ध-महावीर-विवेकानंद-रजनीश इत्यादि बनने की क्षमता शायद हर किसी में न भी हो, लेकिन जिनके पास इसकी संभावना है, उनके निकट जाकर, उन्हें तन-मन-धन से सहयोग करके हम सभी भविष्य के बुद्ध-महावीर-विवेकानंद-रजनीश इत्यादि का एक अंश बनने का संतोष तो प्राप्त कर ही सकते हैं.
संडे ह्यूमर
वाइफ ने शुभेच्छा दी: हैप्पी न्यू इयर.
हज़बैंड ने कहा: सचमुच?
– वॉट्सएप पर पढा हुआ.
संडे ह्यूमर
बकी: उठिए, सुबह हो गई! मैं झटपट रोटी बनाती हूँ.
बका: तुम अपना काम करो ना, मैं कहां तवे पर सोया हूँ!