अभी तक पीएमओ द्वारा मीडिया किस तरह से मैनिपुलेट हो रहा था

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, सोमवार – १८ फरवरी २०१९)

प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार के रूप में नौकरी स्वीकार करने के बाद संजय बारू ने पहला काम एस.वाई शारदाप्रसाद को फोन करके उनका आशीर्वाद लेने का किया. `द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में बारू ने उनके साथ क्या बातचीत हुई, इसकी एक झलक दिखाई है जिससे हमें ध्यान में आता है कि किसी जमाने में कांग्रेसी प्रधान मंत्री (तथा मंत्री) प्रेस को किस तरह से `संभालते’ थे.

शारदा प्रसाद ने पत्रकार के रूप में `इंडियन एक्सप्रेस’ से करियर की शुरुआत की थी. उसके बाद प्लानिंग कमिशन के मुखपत्र `योजना’ का संपादक बने. उसके बाद उन्हें इंदिरा गांधी ने अपना मीडिया एड्वाइजर बनाया था. शारदाप्रसाद २००८ में गुजर गए.

अस्सी साल के अनुभवी शारदाप्रसाद ने अपने बेटे की उम्र के पचास वर्षीय संजय बारू को सलाह देते हुए कहा,`अपने जमाने में मैं प्रमुख दैनिकों के संपादकों से नियमित मिला करता था, लेकिन उस जमाने में पांच ही संपादक थे जिनका महत्व था. स्टेट्समैन, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस और हिंदुस्तान टाइम्स. आजकल तो कई सारे अखबार निकल पडे हैं और टीवी न्यूज चैनल्स भी हैं, लेकिन जिनकी गणना होती है ऐसे सभी के संपर्क में आप रहिएगा. बीच में कभी कभी पी.एम. भी उनके संपर्क में रहें, इसका खास ध्यान रखिएगा. कभी किसी अखबार में अभिनंदन देने जैसी कोई बात लिखी हो तो मेक श्योर कि पीएम उस अखबार के संपादक को या कॉलमनिस्ट को फोन करके अभिनंदन दें. हो सके तो भारतीय भाषाओं के अखबारों के संपादकों को भी साथ रखें.’

शारदाप्रसाद की इस सलाह का उल्लेख यहां जानबूझकर किया गया है. कांग्रेस के जमाने में पीएम खुद संपादकों को फोन करके या मिलकर कॉलमनिस्टों को अभिनंदन करके यह ध्यान रखते थे कि वे लोग उनका गुणगान करते रहें. इन पत्रकारों को कोई `तकलीफ’ हो तो उसका `उचित निवारण’ पी.एम. के मार्गदर्शन में होता था. नीरा राडिया टेप्स २००९ में बाहर आए तब साबित हुआ कि बरखा दत्त और वीर संघवी सहित कई सारे पत्रकार अपने पत्रकार होने की पहुंच का किस तरह से लाभ लेते थे, लेकिन वह केवल हिमशिला का दसवां भाग है. जिसके कोई प्रमाण नहीं हैं ऐसे मीडिया रूप भ्रष्टाचार के कारण इस देश की जनता दशकों तक भ्रमित होती रही है. अखबार में जो छपता है वह सब सच होता है और टीवी पर दिखनेवाली हर बात सत्य होती है, ऐसा मान बैठे करोडो पाठकों-दर्शकों को ऐसे पत्रकार बेवकूफ बनाते रहे, जिनकी पीएमओ तक पहुंच थी. मोनी ने आकर इन सभी को मिलनेवो प्रिविलेजेस बंद कर दिए. मोदी जब विदेश जाते हैं तब पत्रकारों को शायद ही अपने साथ ले जाते हैं. पूर्ववर्ती प्रधान मंत्री पत्रकारों को मुफ्त विदेश यात्रा का मजा कराते थे, ऊँचे दर्जे की मायलो शराब पिलाते थे (प्लेन में भी), महंगे उपहार देते थे और संबंधित देश की भारतीय एम्बेसी या भारतीय हाईकमीशन के खर्च पर मौज मजा कराते थे. (विदेश में जहां जहां भारतीय राजदूत रहते है उन सभी को दूतावास (एम्बेसी) कहा जाता है, लेकिन कॉमनवेल्थ देश (यानी जो देश ब्रिटिशों के गुलाम रह चुके हैं, उन सभी राजदूतालयों को हाईकमीशन (उच्चायोग) कहा जाता है. ऐसा ही भारत में भी है. यहॉं अमेरिकन एंबेसी है और यू.के. का हाईकमीशन ऑफिस है).

मीडिया कॉंग्रेस की नीति-रीति के कारण भ्रष्ट हो गया. मीडिया ने स्वधर्म को भूलकर कांग्रेसी शासन को जो ठीक लगता था वही कहा (अपवादों को छोडकर) उसका कारण ये था कि रुतबा रखनेवाले पत्रकार उन सरकारों में अपना इच्छित काम करा सकते थे. मित्रों-परिचितों की फाइलें पास करा कर उन्हें खुश कर सकते थे, अपना कमिशन प्राप्त करते, बंगले-गाडी-विदेश में महंगे वैकेशन और इनवेस्टमेंट कर सकते थे.

मोदी ने दिल्ली आकर ये सब बंद कर दिया इसीलिए वे मीडिया में खराब बन गए. मोदी के लिए ये नई बात नहीं थी. उन्होंने गुजरात का सीएम बनने के बाद तुरंत ही पत्रकारां को दुलारने की परंपरा पर रोक लगा दी थी, सामान्य रूप से गांधीनगर में जो मुख्य मंत्री आता है वह पहले ही सप्ताह में अहमदाबाद के प्रमुक दैनिकों के संपादकों के केबिन में चाय पीने के लिए पहुंच जाता है. उसका अर्थ ये है कि `भाई साहब मुझे संभाल लीजिएगा.’ मोदी ने किसी अखबार में भेंट नहीं दी. सामने से बार-बार निमंत्रण देने के बावजूद उन्होंने संपादकों को नजरअंदाज किया. अहमदाबाद से रोज एक बस पत्रकारों को लेकर गांधीनगर आती थी. नि:शुल्क यात्रा की इस पद्धति को मोदी ने बंद कर दिया. जिन्हें आना हो वे अपनी स्कूटर-कार से आएं, खर्च न उठा सकें तो सार्वजनिक स्टेट ट्रांसपोर्ट में सामान्य जनता की तरह बस का टिकट निकाल कर आएँ.

इतना हुआ, उसके बाद कुछ ही सप्ताह में मोनी ने पत्रकारों का हर दिन सचिवालय में आना जाना बंद कर दिया. सप्ताह में एक बार एक विशिष्ट दिन पर ही प्रवेश मिलता था. बाद में उस पर भी पाबंद लगा दी गई. जो पत्रकार सचिवालय में चक्कर लगाकर फाइलों को घुमाने, दलाली का काम करते थे, वह सब बंद हो गया. इनसाइड इन्फॉर्मेशन पाने के नाम पर निहित स्वार्थ रखनेवाले लोग जो कुछ भी फीड करते थे उस के आधार पर टेबल स्टोरियां बनाकर अफवाहों की पतंग उडाना बंद हो गया. मंत्री आपस में एक -दूसरे को पछाडने के लिए, कभी खुद सीएम को पलटने के लिए जो चालें चलते थे और पत्रकारों को पाल कर जो गलत कहानियां प्लांट करते थे वह सब बंद हो गया. जो पत्रकार बेकार हो गए, उनका तो सबकुछ छिन गया. इसीलिए उन्होंने दुगुने जोर से मोदी सरकार के खिलाफ लिखना शुरू कर दिया, लेकिन १४ वर्ष के मोदी शासन में इन पत्रकारों के लाख प्रयासों के बावजूद वे मोदी का बाल भी बांका नहीं कर सके, आप तो जानते हैं.

मोदी को इस अनुभव का लाभ पीएम बनने के बाद मिला. उन्होंने अपने लिए कोई मीडिया सलाहकार नहीं रखा. वे किसी संपादक को अभिनंदन करने के लिए फोन नहीं करते और न ही पत्रकारों को `पर्सनल फेवर’ करते हैं. वह पूरा सिस्टम ही उन्होंने दफना दिया. आज परिस्थिति ऐसी है कि मीडिया में (प्रिंट, टीवी तथा डिजिटल मीडिया में) उनका विरोध करने के लिए रोज नए नए प्रकाशन, नए टीवी चैनल, नए ऑनलाइन न्यूज पोर्टल आ रहे हैं, जिन्हें कांग्रेसियों तथा करप्ट बिजनेसमेन से करोडो रूपए की फंडिंग मिल रही है, क्योंकि मोदी यदि दूसरी बार जीत गए तो उनका अस्तित्व मिट जाएगा, ऐसा उन्हें भय है जो सच है. मीडिया का इतना विरोध होने के बावजूद मोदी अडिग हैं, क्योंकि उन्हें भारत की जनता पर विश्वास है, अपनी सरकार के किए कामों पर विश्वास है. जनता ने देखा है कि पिछले पांच साल में कितनी आर्थिक-सामाजिक प्रगति हुई है और उसके विपरीत करप्शन और लालफीताशाही घटी है. जो नहीं हो रहा है उसके बजाय जो हुआ है और भविष्य में जो कुछ भी हो सकता है, उस पर ध्यान देंगे तो आप समझ सकेंगे कि मैं क्या कहना चाहता हूं.

`द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में जरा गहराई में उतरने से पहले इतनी बात करना जरूरी था ताकि अभी के पीएमओ तथा उस समय के पीएमओ के बीच आप तुलना कर सकें. मीडिया एड्वाइजर की सलाह लिए बिना खुद अपना काम निष्ठापूर्वक करनेवाले प्रधान मंत्री और मीडिया सलाहकर की सलाह लेकर अपनी छबि को उज्जवल करने के विफल प्रयास करनेवाले कठपुतली प्रधानमंत्री के बीच का अंतर देख सकते हैं. कांग्रेस राज में भारतीय जनता के हित से समझौता करके कैसी राजनीति खेली जाती थी और अभी मीडिया के जबरदस्त मिसइन्फॉर्मेशन कैंपेन के बावजूद, भारतीय जनता के लाभ के लिए पिछले ५५ साल में जो कभी नहीं हुआ वैसी बातें ५५ महीने में होती रही हैं, उसका अंतर आप महसूस कर सकते हैं.

इतना बैकग्राउंड मिलने के बाद संजय बारू की लिखी बातों में तथा साथ ही संजय बारू की भूमिका निभानेवाले अक्षय खन्ना की फिल्म आपको अधिक समझ में आएगी, अधिक रुचिकर लगेगी, अधिक गहराई में जाने का मन करेगा.

बात अब शुरू होती है.

आज का विचार

पांच वर्ष बाद भाजपा अपने द्वारा किए गए कामों का हिसाब देकर वोट मांग रही है और ७० साल बाद कांग्रेस मतदाताओं से कह रही है कि पोती की नाक दादी जैसी है.

-व्हॉट्सएप पर पढा हुआ

एक मिनट!

कल, वैलेंटाइन्स डे के दिन यमराज ने बका से आकर कहा:

`मैं तेरी जान लेने आया हूं.’

बका ने यमराज से फ्रैंकली कह दिया: ले जाइए, बगल वाले फ्लैट में ही रहती है!

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