जो पूर्वोत्तर भारत में हुआ वह सारे भारत में हो सकता है- लेख ४: सौरभ शाह

(गुड मॉर्निंग क्लासिक्स: शनिवार, २५ अप्रैल २०२०)

सबसे पहले आजादी से पहले की परिस्थिति देखते हैं. १८८१ में भारत में भारतीय धर्मों को अनुयायियों का प्रतिशत ७९ प्रतिशत था. (हमारे पास ७८.९५८ का आंकडा है, लेकिन पढने में सुगमता के लिए तथा प्रूफ रीडिंग में हो सकनेवाली गलतियों को टालने के लिए जहां तक संभव हो अपूर्णांक को निकट के अंक तक पूर्णांक बनाने की कोशिश करेंगे). इसके विपरीत विधर्मियों का प्रतिशत २१ था. ये आंकडे १८८१ के हैं, याद रखिएगा. उस समय पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों भारत में थे. छह दशकों के बाद, १९४१ में (संयुक्त ) भारत में भारतीय धर्मियों की संख्या ७९ प्रतिशत से घटकर ७४ प्रतिशत हो जाती है और विधर्मियों का प्रतिशत २१ से बढकर २६ प्रतिशत हो जाता है. इस २६ प्रतिशत में २४ प्रतिशत मुसलमान हैं और साथ ही एक दशमलव नौ प्रतिशत इसाई और शेष पॉइंट शून्य यानी एक प्रतिशत से भी कम पारसी तथा यहूदी हैं.

विधर्मी २१ प्रतिशत थे तब कुल मिलाकर मुसलमान बीस प्रतिशत और ईसाई पौना प्रतिशत थे. इस तरह से आजादी से पहले के वर्षों में ही भारतीय धर्मों के अनुयायियों की संख्या चार प्रतिशत घट गई थी और इसके विपरीत मुसलमानों की संख्या में चार प्रतिशत इजाफा हुआ था.

अब हम आजादी से बाद के, यानी भारत के विभाजन के बाद की अवधि के आंकडे देखते हैं. स्वतंत्र भारत में १९५१ में ८७ प्रतिशत लोग भारतीय धर्मी थे जे घटकर १९९१ में ८५ प्रतिशत हो गया (जिसमें हिंदू ८३ और सिख, जैन, बौद्ध मिलाकर दो प्रतिशत थे). इसके विपरीत मुसलमानों की जनसंख्या १९५१ में साढे दस प्रतिशत थी जो १९९१ में साढे बारह प्रतिशत हो गई. (२०११ की जनगणना के अनुसार भारत में मुसलमानों का प्रतिशत १४.२३ हो गया है). ईसाइयों का प्रतिशत करीब उतना ही यानी सवा दो प्रतिशत रहा है लेकिन ८४,२६,००० इसाइयों की संख्या बढकर १,९६,५१,००० हो गई है यानी ८५ लाख से बढकर करीब दो करोड जितने हो गए हैं, सवा दो गुना से अधिक.

आजादी से पहले और आजादी के बाद भारत में भारतीय धर्म के अनुयायियों की संख्या घटी है. भारत के कुल आंकडों में दो, चार या छह प्रतिशत की बढोतरी-कमी से अधिक प्रभावित नहीं होने वालों से निवेदन है कि इन आंकडों से उभरनेवाली ऊबन से प्रभावित हुए बिना, जागृत रहकर इन आंकडों को पढेंगे. आपकी आंखें खुल जाएंगी, नींद हराम हो जाएगी.

१९९१ की जनगणना के अनुसार गुजरात में ९० प्रतिशत से कुछ अधिक भारतीय धर्मों के अनुयायी बसते थे. पौने नौ प्रतिशत मुसलमान और आधा प्रतिशत से कम ईसाई थे.

गुजरात में ईसाई आबादी सबसे अधिक डांग जिले में है जहां पर मिशनरी गतिविधियां जोरशोर से चलती हैं. सारे राज्य में केवल आधा प्रतिशत जनसंख्या वाले इसाइयों की संख्या डांग जैसे डेढ लाख की जनसंख्यावाले गुजरात की सरहद पर बसे जिले में १९८१ में कुल बस्ती का पांच प्रतिशत थी. डांग के करीब सूरत जिले में एक प्रतिशत ईसाई हैं. अहमदाबाद, वडोदरा और भरुच में आधे से एक प्रतिशत ईसाई हैं. शेष जिलों में ईसाइयों की जनसंख्या नगण्य है. मुसलमानों की सबसे अधिक आबादी गुजरात के सरहदी जिले कच्छ में है. जिले की साढे उन्नीस प्रतिशत सेअधिक जनता मुसलमान है. दूसरो नंबर पर भरुच जिले में साढे सोलह प्रतिशत से अधिक आबादी मुसलमानों की है. भारतीय परंपरावादी मुसलमानों का एक बडा केंद्र भरुच जिला है.

वैलेंटाइन्स डे प्रकार के विदेशी त्यौहारों का बढता हुआ जोर एक तरफ है तो दूसरी तरफ मकर संक्रमण, होली और दिवाली जैसे त्यौहारों के पारंपरिक रूप से मनाने के तरीकों का खंडन करने के प्रयास होते हैं. नए साल के बजाय क्रिसमस तथा इकत्तीस दिसंबर के दिन को सेकुलरिजम का चोला ओढनेवाला मीडिया कितनी प्रधानता देता है इसका एक उदाहरण देखिए. कुछ साल पहले एक जाने माने टीवी चैनल ने इकत्तीस दिसंबर को शाम के समय आधे घंटे तक फुल कमेंट्री के साथ लाइव सूर्यास्त दिखाया था. ऐसे हास्यास्पद न्यूज कवरेज की खूब आलोचना हुई जिसके बाद उस टीवी चैनल ने पलडा संतुलित करने के लिए कुछ साल बाद करवा चौथ की रात को लाइव चंद्र दर्शन कराया था. भारतीय संस्कृति को भारत से मिटाने की कोशिशें आज कल की नहीं हैं, सदियों से चलती आ रही हैं. दुर्भाग्य की बात ये है कि गुलाम भारत में जो हीन गतिविधियां हो रही थीं, वे आजाद हिंदुस्तान में भी हो रही हैं.

भारतीय संस्कृति को भारत से मिटाने के प्रयास कोई आज कल के नहीं है, सदियों से होते आए हैं. दुर्भाग्य से गुलाम भारत में जो हीन प्रवृत्तियां हो रही थीं वही आजाद भारत में भी हो रही हैं. गुजरात के आंकडे देखकर यदि कोई ये सोच रहा हो कि गुजरात में कहां से भारतीय संस्कृ्ति मिट जाएगी तो उन्हें भारत के अन्य राज्यों के, खासकर पूर्वोत्तर भारत के राज्यों के आंकडों पर निगाह डालनी चाहिए. इन पूर्वोत्तर के ७ राज्यों में जो हुआ है वह आज नहीं तो कल पश्चिमी किनारे पर ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारत में भी हो सकता है.

पूर्वोत्तर भारत में क्या हुआ? पहला उदाहरण नागालैंड का लेते हैं. नागालैंड पूर्वोत्तर भारत का एक बहुत ही महत्वपूर्ण राज्य है. नागालैंड में १९०१ में भारतीय धर्मों के अनुयायियों की आबादी नब्बे प्रतिशत से भी अधिक थी (९९.२७ प्रतिशत) और इसाइयों की आबादी मात्र आधा प्रतिशत (.५९ प्रतिशत) थी. केवल नब्बे साल में ही नागालैंड की इसाई जनसंख्या बढकर ८७ प्रतिशत से अधिक हो गई और भारतीय धर्मों के अनुयायियों की आबादी घटकर ११ प्रतिशत से भी कम हो गई. एक शताब्दि से भी कम समय में भारत के एक संपूर्ण राज्य का पूरी तरह से ईसाईकरण हो गया. याद रहे कि पूर्वोत्तर भारत में ये राज्य भारत के सीमावर्ती राज्य हैं.

नागालैंड के बाद मिजोरम की परिस्थिति पर नजर डालते हैं. मिजोरम में भी १९०१ के दशक में ९९ प्रतिशत से अधिक (९९.७०%) आबादी भारतीय धर्मानुयायियों की थी आर ईसाइयों की आबादी मात्र दस हजार पांच यानी ०.५% थी. नब्बे साल में वहां क्या हुआ? १९९१ की जनगणना के आंकडों के अनुसार मिजोरम में ८५% आबादी ईसाइयों की हो गई और भारतीय धर्मानुयायियों की संख्या ९९% से घटकर सीधे १३% पर आ गई.

अरुणाचल, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर और असम की परिस्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है. पिछले सौ वर्षों से भारत के ईशान्य कोने पर चल रही मिशनरियों की स्वार्थी धर्मांतरण की गतिविधियों का ये अंजाम हैं. भारतीय संस्कृति को योजनाबद्ध तरीके से मिटाने का यह सुनियोजित षड्यंत्र है जिसे कई भटके हुए लोग स्वीकार करते हैं. वे धर्मांतरण विरोधी कानून का विरोध करते हैं और खुद को प्रगतिशील मानने वाले कई अतिचालाक हिंदू इस धर्मांतरण के लिए हिंदुओं की जाति प्रथा को जिम्मेदार ठहराते हैं. सच्चाई तो ये है कि ऐसी जाति प्रथा तथा सामाजिक ऊंच नीच का भेदभाव हर धर्म के लोगों में होता है. इस्लाम में तो सभी समान कहने वालों को पूछिएगा कि शिया और सुन्नी जिस तरह से एक दूसरे की मस्जिदों पर बम फेंकते हैं, उस तरह से स्वामीनारायण और वैष्णव संप्रदाय वाले एक दूसरे के धर्म स्थलों के साथ करते हैं क्या? ईसाई भी आज के आधुनिक युग में प्रोटेस्टेंट हो तो वह कैथलिक के गिरिजाघर में नहीं जाता और उसी प्रकार दूसरा वाला पहले के धर्मस्थल में नहीं जाता. हर धर्म में आर्थिक-सामाजिक स्तर पर ऊंच नीच तो रहने ही वाला है. लेकिन केवल हिंदुओं में ही ऐसा है इसीलिए मिशनरियों को छूट मिलनी चाहिए, ऐसा कहना गलत है. शुक्र है खुदा का कि २०१४ में मोदी के तख्तनशीं होने के बाद ये मिशनरी जहां से अपार डॉलर्स-पाउंड्स तथा यूरोज लाते थे उन एनजीओ के गैरकानूनी गोरख धंधे पर रोक लग गई और उसमें से तिस्ता सेटलवाड जैसों की एनजीओ के घोटाले जिस तरह से कोर्ट में चर्चित रहे हैं, उसे देखते हुए लगता है कि बहुत ही कम समय में इनमें से कई `सेवा भावी’ लोग जेल की सलाखों के पीछे धकेल दिए जाएंगे.

शेष कल…
(यह लेख मार्च २०१७ में लिखी एक सिरीज को अपडेट करके लिखा गया है)
आज का विचार

वो जो हमने जिसके लिए

सारी हदें तोड दीं `फराज’

आज उसने कह दिया,

कि अपनी हद में रहा करो

***

तेरी इस बेवफाई पर फिदा

होती है जान अपनी `फराज’

खुदा जाने अगर तुझमें

वफा होती तो क्या होता!

– अहमद `फराज’

छोटी सी बात

आनेवाली पीढियों से जब पूछा जाएगा कि कांग्रेस मुक्त भारत किसकी देन है?

तो हमेशा ये कंफ्यूजन होगा कि मोदीजी का नाम लें या फिर राहुल बाबा का!

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