भाषा का वैभव, भाषा की सादगी

गुड मॉर्निंग

सौरभ शाह

संगीत हो, चित्रकला हो, कपडे हों, व्यक्ति का सौंदर्य हो या फिर भाषा हो- उसका वैभव उसकी सादगी में ही निहित है, न कि ओवरडुइंग या होहल्ले में.

१०० पीस ऑर्केस्ट्रा का सौंदर्य भी उसकी सादगी के कारण ही निखरता है. सौ इंस्ट्रूमेंट्स मिल गए तो सभी को बजाने लगो- ऐसी मेंटैलिटी होगी तो संगीत का वैभव नहीं बल्कि कर्कशता पैदा होगी, शोरगुल मचेगा.

चित्रकला में तूलिका का एक अतिरिक्त स्पर्श या एक अतिरिक्त रंग छटा सारे चित्र का सौंदर्य छीन लेती है. कपडे चाहे जितने महंगे हों, डिजाइनर हों, भव्य प्रसंगों पर पहनने के लिए बनवाए गए हों लेकिन उसका वैभव तो उसकी सादगी में ही है, न कि ओवरडुइंग या दिखावे में. व्यक्ति चाहे जितना सुंदर हो, रूपवान हो पर उसकी सुंदरता का वैभव तभी निखरता है जब उसने अपनी ब्यूटी को अंडरप्ले किया होता है, भारी मेकअप, आभूषण या अन्य दिखावे उसे ढंकते न हों.

भाषा के साथ भी ऐसा ही होता है. अंग्रेजी भाषा आपको आती हो, पढने – सुनने में अच्छी लगती हो तो मार्क कीजिएगा कि लिखने या बोलते समय जिसे `फ्लावरी इंग्लिश’ कहते हैं वह वैसी नहीं होगी, बल्कि जिसमें सादगी हो, भाषा का आडंबर न हो, उस भाषा को सुनने और पढने में मजा आता है. ऐसी ही बात हिंदी की भी है. उर्दु में भी ऐसा ही है. और ऐसा ही अन्य भारतीय भाषा के साथ होता है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लिखी-बोली जा रही भाषाएँ भी इसमें अपवाद नहीं हैं.

अपना सबसे ज्यादा काम हिंदी में होता है. हम बडे पैमाने पर अपना कम्युनिकेशन हिंदी में करते हैं. कम्युनिकेशन के लिए बोलचाल के लिए प्रयुक्त शब्द की जगह तद्भव शब्दों का उपयोग करें तो कुछ समझ में नहीं आएगा कि हम क्या कहना चाहते हैं. हिंदी भाषा का वैभव भी उसकी सादगी में है. सादगी का मतलब है कि उसमें अनावश्यक शब्द-विशेषण- क्रिया विशेषण ठूंस कर भरे न हों. पाठक या श्रोताओं को प्रभावित करने के इरादे से कई लेखक-प्रवचनकार ऐसा किया करते हैं. खासकर जब हमारे पास ठोस विचार नहीं होते हैं तब. ऐसे समय में भारी भरकम शब्दों का तानाबाना बुनकर छटपटानेवाले बहुत हैं अपने यहां.

लेकिन भाषा उसे कहते हैं जो सरलता से आपके विचारों की डोली उठाकर जल प्रवाह की तरह बहे. विचारों की डोली उठानेवाले भाषा के कहार यदि खुद ही नाचते कूदते हों तब डोली में बैठे विचार अस्तव्यस्त हो जाते हैं. कई पाठक या श्रोताओं को कहारों का यह भाषा नर्तन अच्छा लगता है और वे नर्तन को ही उपलब्धि मान लेते हैं. खैर. जैसा जिसका स्टैंडर्ड.

लेकिन भाषा प्रेमचंद जैसी होती है, नागार्जुन या जयशंकर प्रसाद जैसी होती है, हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसी होती है. भाषा गांधीजी जैसी होती है. कोई आडंबर नहीं. इसके बावजूद जितनी बार पढी जाय उतनी बार और समझ में आती है, इतना गहन अर्थ उसमें होता है. उसमें खोखलापन नहीं होता, उथलापन नहीं होता. दृढ विचारों के अभाव को छिपाने के लिए चुलबुलेपन का सहारा नही लिया जाता.

आखिर महत्व तो विचारों का होता है. और विचारों में भी महत्व होता है नए विचारों का. नए विचार भी किसी विदेशी या अनजान विचारक – चिंतक से लेकर पाठकों तक पहुंचाए जाते हैं. इसीलिए नए विचारों में भी महत्व मौलिक विचारों का होता है, जो विचार यहां- वहां से हाथ मारकर उठाए नहीं होते बल्कि स्वतंत्र दिमाग की उपज होते हैं. लेखक तो कोई भी बन सकता है. दैनिकों के संपादकको पत्र लिखनेवाले पाठकगण भी खुद को लेखक मानते हैं और अब तो फेसबुक पर उलट पुलट, बेढंगा लिखनेवाले भी खुद को लेखक मानने लगे हैं. अखबार में कॉलम लिखने का मौका मिलता है लोग खुद को लेखक के अलावा पत्रकार भी मानने लगते हैं, फिर भले ही वे ब्यूटी टिप्स या रेसिपी की कॉलम ही क्यों न लिखते हों. लेखक बनना आसान हो गया है. लिखा हुआ ग्रंथस्थ करके पुस्तक रचकर लेखक बनना या ऑथर बनना कठिन है. सौ- दो सौ- तीन सौ पृष्ठों की पुस्तक में आपकी कसौटी होती है. यहां अपने खर्च पर पुस्तकें प्रकाशित करनेवालों की बात हम नहीं कर रहे हैं. प्रोफेशनल तरीके से प्रकाशित होनेवाली पुस्तकें जिन्हें पाठक शौक से पढते हैं, जिनकी नई आवृत्तियां प्रकाशक उत्साह से छापते हैं.

यह भी कोई आखिरी कसौटी नहीं होती. भेलपुरी के ठेले पर स्वादु पिंड को तृप्त करनेवाले दौड भाग करते हैं उसी तरह से एक के बाद एक दर्जनों आवृत्तियां भी कई पुस्तकों की प्रकाशित होती हैं- हर भाषा में. भारी बिक्री होने किसी पुस्तक के लिए अंतिम परीक्षा नहीं हो सकती. उस पुस्तक में विचार हैं या नहीं, वे नए हैं या नहीं, वे नए विचार मौलिक हैं या दूसरों से लिए गए हैं- इन सब बातों से पुस्तक का मूल्य तय होता है. अंत में यह समझदार पाठक ही तय करता है कि यह लेखक कुरमुरे का बोरा है या फिर बादाम की पोटली है.

ऐसे विचार, बादाम की पोटली जैसे विचार, मौलिक – स्वतंत्र विचार जब सादगी भरी भाषा में आपके सामने प्रकट होते हैं तब भाषा का असली वैभव आंख-कान- दिमाग को धन्य कर देता है. भाषा के तमाम दिग्गजों को याद करने का दिन है गुरु पूर्णिमा का दिन. इस पावन अवसर पर लिखे गए लेख भले ही अगले दिन प्रकाशित हों. प्रार्थनाएं कभी बासी नहीं होतीं. वंदन, चरणस्पर्श और स्मृतियां कभी बासी नहीं होतीं. भारतेंदु हरिश्चंद्रजी से लेकर गांधीजी तक और तिलक से लेकर गणेश शंकर विदयार्थी तक सभी दिग्गजों को साष्टांग दंडवत. इन सभी को गुरुदक्षिणा के रूप में देने के लिए तो कुछ भी नहीं है, लेकिन उनके ऋण को प्रति दिन थोडा थोडा लिखकर चुकाते रहें. प्रणाम.

आज का विचार

किसी ने भी मेरी जानकारी के बाहर मुझसे कुछ सीखा हो तो…

… थोडी भी शर्म या संकोच किए बिना गुरुदक्षिणा देकर आशीर्वाद ले लेना.

– गुरूपूर्णिमा के अवसर पर व्हॉट्सएप पर पढा हुआ.

एक मिनट!

बका: पका, ये सुबह सुबह व्हॉट्सएप पर ऐसे ऐसे बुद्धिमानी भरे उपदेश और सुविचार आते हैं, लगता है जैसे हम हरिद्वार में हैं.

पका: और शाम को देर रात तक जो मैसेजेस आते हैं उन्हें देख कर लगता है कि हम बैंकॉक में हैं!

(मुंबई समाचार, शनिवार – २८ जुलाई २०१८)

1 COMMENT

  1. अत्यन्त सुंदर एवं सचोट। गुरुदक्षिणा देनेकी मौलिक रीत।

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