हार नहीं मानूंगा रार नहीं ठानूंगा

गुड मॉर्निंगसौरभ शाह

अटल बिहारी वाजपेयी का नाम आते ही आपको उनकी तेरह दिन की सरकार को विश्वास मत नहीं मिलने पर उस दिन संसद में किए गए उनके भाषण का स्मरण हो आता है. क्या आभा थी, क्या आत्मविश्वास था. उन्होंने सभापति महोदय से कह दिया कि मैं राष्ट्रपति महोदय को अपना त्यागपत्र देने जा रहा हूँ और उन्होंने तुरंत संसद भवन से, सबके देखते देखते ही टीवी कैमरे के सामने से एक्जिट ले ली.

आज वाजपेयी ने इस जगत से विदा ले ली है. कितना संघर्ष करके उन्होंने भारतीय जनता पार्टी खडी की और किस संघर्ष में जन संघ शुरु हुआ इसका अनुमान आजकल के भाजपा नेताओं को भी नहीं होगा, कांग्रेस वगैरह की तो बात ही क्या करें.

वह जमाना था जब आपके कांग्रेसी नहीं रहने पर राजनीति में कोई आपको भाव नहीं देता था. हर तरफ खादीधारियों और गांधी टोपियों का बोलबाला था. हिंदू होना और हिंदू कहलवाना मानो कोई अपराध था और हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथ जन संघ के साथ किसी भी तरह का रिश्ता रखना किसी भी पब्लिक फिगर के लिए कलंक माना जाता था, ऐसा वातावरण नेहरू के समर्थन से लेफ्टिस्ट मीडिया ने सारे देश में पैदा कर दिया था. आजादी के बाद के निकट के वर्षों में अटल बिहारी वाजपेयी का नाम देश के कोने कोने में गूंजायमान होने लगा. वो १९५७ का जमाना था. देश में पहली बार १९५२ में लोकसभा का चुनाव हुआ. १९५७ में दूसरे आम चुनावों की तैयारियां चल रही थीं. वे कैसे दिन थे, वाजपेयीजी न दिनों में क्या करते थे? उन्हीं के शब्दों में:

“वह १९५७ का साल था. लोकसभा का दूसरा आम चुनाव होने जा रहा था. पार्टी (भारतीय जनसंघ) ज़ड़ें जमाने लगी थी. डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की छत्रछाया उठ चुकी थी. न ख्यातनाम नेतृत्व था, न विस्तृत जनाधा. चुनाव लडने के लिए उम्मीदवार का मिलना भी मुश्किल था. कौन गांठ से खर्च कर जमानत जब्त कराए? फिर भी चुनाव तो लडना ही था. पार्टी संदेश को अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाने का इससे अच्छा अवसर कब आएगा. मुझे तीन चुनाव क्षेत्रों से लड़ाने का फैसला किया गया. एक लखनऊ, दूसरा मथुरा और तीसरा बलरामपुर.

“लखनऊ से मैं लोकसभा का उपचुनाव लड़ चुका था. जीतने का तो सवाल ही नहीं था. हां, वोट अच्छे मिले थे. पार्टी का हौसला बढ़ा था. लखनऊ से फिर से लड़ाने का तय हुआ. मथुरा में कोई ढंग का उम्मीदवार नहीं मिल रहा था. जिन्हें ठीक-ठाककर मुश्किल से लड़ने को तैयार भी किया गया, वे विधानसभा का चुनाव लड़ना चाहते थे. एक खर्चा कम था. दूसरा – जमानत बचाने की आशा थी और तीसरे यदि तुक्का भिड़ गया तो जीतने की संभावना हो सकती थी. किंतु लोकसभा के लिए उपयुक्त उम्मीदवार उपलब्ध नहीं था. मुझ पर नज़र पड़ी. थोड़ा बहुत नाम हो गया था. भाषण सुनने लोग आने लगे थे. क्यों न मुझे लड़ा दिया जाए? मेरे नाम पर चुनाव लड़ने भर के लिए धन भी इकट्ठा हो जाएगा…

“पार्टी की दृष्टि में बलरामपुर से जीतने की संभावना थी. मैं लखनऊ और मथुरा में नामांकन पत्र दाखिल करके बलरामपुर पहुंच गया. इससे पहले मैं बलरामपुर कभी नहीं गया था. न मुझे उसके भूगोल का ज्ञान था, न इतिहास का. गोंडा से गोरखपुर के लिए एक छोटी सी लाइन जाती थी, बलरामपुर का स्टेशन उसी पर स्थित था. रेलगाड़ी आधी रात को गोंडा से चलती थी और ब्रह्ममुहूर्त में बलरामपुर पहुंचती थी. मैं छोटी लाइन से सुपरिचित था. ग्वालियर और भिंड के बीच छोटी लाइन थी. गाडियां आराम से चलती थीं आर पहुंचने में काफी समय लेती थीं. उसी टिकट पर, उन्हीं पैसों में, लंबी यात्रा का आनंद मिलता था. मैं गोंडा से गाड़ी में चढ़ा और संकरी सी बर्थ पर बिस्तर बिछाकर सो गया. आंख खुली तो गाड़ी स्टेशन पर खड़ी थी. खिड़की खोलकर देखा तो सैकडों कौए स्टेशन पर लगे पेड़ों पर कांव-कांव कर रहे थे. सारा आकाश गूंज रहा था. मैने पूछा- यह कौन सा स्टेशन है. उत्तर मिला कौवापुर! अन्य बातें कल…

आज का विचार

दो अनुभूतियों में पहली अनुभूति:

बेनकाब चेहरे हैं, दाग बडे गहरे हैं,

टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता है,

गीत नहीं गाता हूं

लगी कुछ ऐसी नजर बिखरा शीशे सा शहर

अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं,

गीत नहीं गाता हूं

पीठ में छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद,

मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं,

गीत नहीं गाता हूं.

दूसरी अनुभति:

गीत नया गाता हूं

टूटे हुए तारों से फूटे बांसती स्वर

पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर

झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात

प्राची में अरुणिम की रेख देख पाता हूं

गीत नया गाता हूं

टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी

अंतर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी

हार नहीं मानूंगा,

रार नहीं ठानूंगा,

काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं

गीत नया गाता हूं.

अटल बिहारी वाजपेयी

(मुंबई समाचार, शुक्रवार – १७ अगस्त २०१८)

3 COMMENTS

  1. Great article but I think a part of the title has been misquoted as most of the people do. It should be – रार नयी ठानूँगा।

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