गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह
(मुंबई समाचार, शनिवार – १५ सितंबर २०१८)
मैन इज अ सोशल एनिमल- यह बात हमें जन्म से ही बताई गई है. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. सबसे पहली आपत्ति तो मेरी ये है कि महामूल मानव जाति के सदस्य को प्राणी या जानवर के रूप में संबोधित किया जा रहा है. मेरी इस आपत्ति के विरोध में पी.ई.टी.ए- पीपल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स – `पेटा’ वालों को आपत्ति हो सकती है, खैर.
क्या मनुष्य सोशल या सामाजिक है? या फिर आदमी को इच्छाओं, जरूरतों के कारण झख मारकर सोशल या सामाजिक बनना पडता है?
सोशल का विरोधी शब्द एंटी सोशल नहीं होता, अ-सोशल होता है. सामाजिक का विरुद्धार्थी शब्द असामाजिक नहीं होता, नि:सामाजिक हो सकता है. असामाजिक का अर्थ है समाज के लिए कंटक, गुंडे-मव्वाली जैसे, चोर उचक्के इंसान, जिनके कारण समाज के व्यवहार खतरे में पड जाते हैं या समाज के बिखर जाने का खतरा पैदा हो जाता है.
नि:सामाजिक यानी ऐसा मनुष्य जो समाज के व्यवहारों से अलिप्त है, समाज को कोई नुकसान नहीं करता. इसके विपरीत, समाज से दूर रहकर वह जो कुछ भी करता है, उनमें से अनेक प्रवृत्तियों के कारण प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समाज का कल्याण ही होता है, उसकी नि:सामाजिकता के कारण समाज को कोई नुकसान नहीं होता.
आस-पास के समाज के साथ घुलना मिलना कोई बुरी बात नहीं है. नए नए लोगों के साथ पहचना करने में भी कोई गलत बात नहीं है. इसके अलावा, नि:सामाजिक होना भी कोई अपराध नहीं है. यहां – वहां लोगों के सामाजिक प्रसंगों पर जा-जाकर `शोभा बढाने का शौक किसी को नहीं है तो भले न हो. किसी के अच्छे बुरे मौके पर आप नहीं जाएंगे तो आपके यहां कौन आएगा ऐसी चिंता कइयों को रहती है. कोई बीमार हो और आप उसका हालचाल लेने नहीं जाते हैं तो आप जब बिस्तर पर पडेंगे तो कौन आपकी खबर लेने आएगा, ऐसी असुरक्षा से ग्रस्त होकर आप हर किसी का कुशलक्षेम पूछने जाते हैं, उनके सगाई-विवाह के अवसरों पर जाते हैं. किसी मरण के प्रसंग में स्मशान और शोकसभा में जाते हैं, अधिक चिंता करते हैं तो बारहवे-तेरहवें पर भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं, शोकसभाओं में जाते हैं, जनेऊ-गणेश स्थापना और जन्मदिन तथा व्रत-उपवास जैसे मौकों पर पहुंच जाते हैं.
क्योंकि आपको समाज में रहना है. आपको डर है, इनस्क्यिोरिटी है कि ये सब नहीं करेंगे तो आपको कोई नहीं बुलाएगा, आपके साथ लोग नहीं बोलेंगे, आप अकेले पड जाएंगे. आप अपना काम छोडकर, समय-शक्ति-धन खर्च करके, अपना `सामाजिक कर्तव्य’ निभाते रहते हैं.
अच्छी बात है. जिनके पास इतना समय-शक्ति – धन है, वे ऐसी गतिविधियों में रचेबसे रहें, ये अच्छी बात है. लेकिन जिनके पास इतना समय, इतनी शक्ति या ऐसी आर्थिक शक्ति नहीं है, उनका क्या? या फिर जिनके पास ये सब है लेकिन वे अपना समय-शक्ति-धन इस तरह से खर्च नहीं करना चाहते हैं, उनका क्या?
उनके पास विकल्प है. उनके पास इन सब जगहों पर खिंचकर नहीं जाने का विकल्प है. यह डर गलत है कि यदि आप ऐसी गतिविधियों से खुद को बाहर कर लेंगे तो अकले पड जाएंगे. ऐसा असुरक्षा का भाव रखने की कोई जरूरत नहीं है. वैसे भी आप जब भी अपने भीतर से आघात महसूस करते हैं तब ऐसे मौकों पर हाजिरी दे सकते हैं. लेकिन जहां निमंत्रण मिले वहां सब जगह पहुंचना जरूरी नहीं होता. ऐसा करने से क्रमश: निमंत्रण मिलने कम हो जाएंगे और आपके लिए ये अच्छा ही है. आपके लिए यानी जिन्हें नि:सामाजिक होना है, उनके लिए. अब उन्हें अपने लिए अधिक समय मिलेगा.
मनुष्य को अपनी जरूरतों के लिए सामाजिक बनना पडता है. लेकिन व्यक्ति को अपनी जरूरतें पूर्ण करने के बदले में कितना सामाजिक बनना या नहीं बनना, यह तय करना होता है. यही बात हम भूल जाते हैं. इसीलिए हम सामाजिक व्यवहारों में बिलकुल निरर्थक तरीके से इतनी गहराई में गड जाते हैं कि उससे बाहर निकलने का विचार भी नहीं आता. सामाजिक व्यवहारों को संतुलित करने का ख्याल भी नहीं आता.
मनुष्य प्राणी नहीं है, जानवर नहीं है. वह मनुष्य है. चौपायों से हर पहलू में कई गुना आगे है. मनुष्य की मनुष्यता का आदर करना होता है, उसे जानवर कहकर नीचे गिराना नहीं होता. वह सामाजिक प्राणी तो हरगिज नहीं है. समाज मनुष्य के सर्वाइवल सिस्टम का एक हिस्सा है, वह उसका संपूर्ण सर्वाइवल सिस्टम नहीं है. सर्वाइव करने के लिए मनुष्य के पास समाज के अलावा या समाज से आगे भी बहुत कुछ होना चाहिए. (क्या क्या? यह एक अलग विषय है, फिर कभी). मनुष्य का सर्वाइवल उसकी सामाजिकता पर निर्भर है ऐसा विचार मनुष्य के अस्तित्व को संकुचित बना देता है, कुंठित कर देता है. मनुष्य के लिए समाज सर्वस्व नहीं है, उसके अस्तित्व का आधार नहीं है. मनुष्य अपनी तरह से, अपनी शर्त पर समाज के साथ व्यवहार करते हुए समाज में रह सकता है और उस तरह से रहने की चाबी उसे गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने दी है जिसका सुंदर अनुवाद किया गया है. लेख का शीर्षक फिर एक बार पढ लीजिए और तब आज के विचार पर नजर डालिए.
आज का विचार
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चलअकेला रे
फिर चल अकेला चल अकेला चल अकेला चलअकेला रे
यदि कोई भी ना बोले ओरे ओ रे ओ अभागेकोई भी ना बोले
यदि सभी मुख मोड़ रहे सब डरा करे
तब डरे बिना ओ तू मुक्तकंठ अपनी बात बोलअकेला रे
ओ तू मुक्तकंठ अपनी बात बोल अकेला रेतेरीआवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे
यदि लौट सब चले ओरे ओरे ओ अभागे लौट सब चले
यदि रात गहरी चलती कोई गौर ना करे
तब पथ के कांटे ओ तू लहू लोहित चरण तलचल अकेला रे
यदि दिया ना जले ओरे ओ रे ओ अभागे दियाना जले
यदि बदरी आंधी रात में द्वार बंद सब करे
तब वज्र शिखा से तू हृदय पंजर जला और जलअकेला रे
ओ तू हृदय पंजर चला और जल अकेला रे
तेरी आवाज़ पे कोई ना आये तो फिर चलअकेला रे
– रवींद्रनाथ टैगोर
(यह बंगाली गीत कई गायकों ने गाया है. किशोर कुमार और सोनू निगम की आवाज में भी है. आप इसे यूट्यूब पर देख सकते हैं).
एक मिनट!
पका: बका, ये पेट्रोल तो बहुत महंगा हो गया.
बका: एक काम कर, एक लीटर पेट्रोल के भाव में दो लीटर दूध मिलता है. तो दूध पियो और साइकिल चलाओ, तबीयत दुरुस्त हो जाएगी.