गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह
(मुंबई समाचार, मंगलवार – ४ सितंबर २०१८)
वाजपेयी के साथ हुए मतभेद की बात करते हुए आडवाणी २००२ में गोवा में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का कथानक आगे बढाते हैं. नरेंद्र मोदी ने आडवाणी के कहने से भाषण के अंत घोषित कर दिया कि,`मैं त्यागपत्र देने के लिए तैयार हूं.’
मोदी की इस घोषणा के तुरंत बाद ही सैकडों कार्यकर्ताओं-नेताओं और विशेष आमंत्रितों से खचाखच भरे सभागृह में एक नारा गूंज उठा: `इस्तीफा मत दो, इस्तीफा मत दो.’
सबकी यह प्रतिक्रिया सुनकर आडवाणी ने उसके बाद पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं का इस बारे में क्या कहना है, यह जाना. हर किसी ने एक स्वर में कहा कि, `नहीं, उन्हें इस्तीफा नहीं देना चाहिए.’ प्रमोद महाजन जैसे कई नेताओं ने तो यहां तक कह दिया कि,`सवाल ही पैदा नहीं होता.’
इस तरह से संपूर्ण देश में चर्चा का विषय बना यह मुद्दा शांतिपूर्ण ढंग से खत्म हो गया. वैसे तो गोवा में लिए गए इस निर्णय से देश के कई लोग खुश नहीं थे. इसके बावजूद, यह भी सत्य है कि समाज के बहुत बडे हिस्से की इच्छा के अनुसार यह निर्णय लिया गया था. गुजरात में भी अधिकांश लोगों ने इस निर्णय का स्वागत किया.
आडवाणी आत्मकथा में लिखते हैं:`…मेरा विश्वास है कि जब कोई किसी निर्णय को सही मानता है, तब इस निर्णय पर अडिग रहने में संकोच नहीं करना चाहिए. वस्तुत: इतिहास ने पार्टी के इस निर्णय को न्यायसंगत ठहराया है कि उसने उस समय मोदी से त्यागपत्र नहीं मांगा.’
आडवाणी ने मार्च २००८ में प्रकाशित आत्मकथा `माय कंट्री, माय लाइफ’ में यह बात लिखी है. आडवाणी ने २००२ में मोदी को नहीं हटाने के निर्णय को उचित ठहराया है. आडवाणी की इस बात को बाद में खुद कुदरत ने दो साल बाद सही साबित किया. २६ मार्च २०१० का दिन भारत के लोकतंत्र केलिए काला दिन था. १९४७ में आजाद हुए इस देश में अभी तक किसी भी मुख्य मंत्री की सी.बी.आई. द्वारा नियुक्त स्पेशल इनवेस्टिगेशन टीम द्वारा पूछताछ नहीं हुई थी. शरद पवार या लालू प्रसाद यादव जैसों की भी नहीं. लालू से जवाब तलब तब किया गया जब वे मुख्य मंत्री नहीं थे और वे कोर्ट में अपराधी साबित हुए और जेल भी गए. यह बात अलग है.
नरेंद्र मोदी भारत के सबसे पहले मुख्य मंत्री थे जिन्हें गुजरात में गोधरा हिंदू हत्याकांड के बाद हुए दंगों के लिए जिम्मेदार ठहराकर सीबीआई की एस.आई.टी द्वारा पूछताछ के लिए बुलाया गया. कांग्रेस के भूतपूर्व सांसद एहसान जाफरी, जिनकी दंगों के दौरान कई अज्ञात लोगों ने हत्या कर दी थी, उनकी विधवा जकिया जाफरी ने कुछ तत्वों के उकसावे पर सुप्रीम कोर्ट में शिकायत की थी और सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सीबीआई द्वारा एसआईटी का गठन किया गया था. तीस्ता सेतलवाड ने सुप्रीम कोर्ट की इस निर्णय प्रक्रिया के दौरान काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. सेकुलरों की हिरोइन बनी तीस्ता के विरुद्ध आज की तारीख में गरीब मुसलमानों के कल्याणार्थ लिए गए करोडो रूपए के चंदे का उपयोग निजी ऐशो आराम के लिए करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा चल रहा है जिसका फैसला यदि उनके खिलाफ आता है तो उन्हें जेल जाना पडेगा, ऐसी परिस्थिति है.
मार्च २०१० में मोदी को एक क्रिमिनल की तरह बिठा कर एसआईटी द्वारा सख्त पूछताछ की गई. घंटों तक जवाबतलब होता रहा. पूछनेवालों के पसीने छूट गए. रात को उन्होंने मोदी को दूसरे दिन आने के लिए कहा. मोदी ने कहा कि मुझे सरकार चलानी है. मुझे आपने आज बुलाया है तो आज ही पूरा करो. मैं सारी रात बैठने के लिए तैयार हूं. आप लोग थक गए हों तो खा पीकर फ्रेश होकर फिर से आइए, हम दूसरा दौरा आरंभ करेंगे.
इतनी कडी जॉंच पडताल के बाद भी मोदी के विरुद्ध आरोप को न तो एसआईटी, न ही सीबीआई, और न ही सुप्रीम कोर्ट, कोई साबित नहीं कर सका. २००२ से २०१० तक जो लोग मोदी को मौत का सौदागर मानते रहे वे लोग फ्रस्ट्रेट हो गए. लेकिन मोदी इस सारे दलदल में कमल की तरह स्वच्छ और पवित्र रहे. गोवा की कार्यकारिणी में मोदी से इस्तीफा न लेकर भाजपा ने बहुत ही समझदारी का काम किया. यदि मोदी को उस समय गुजरात के चीफ मिनिस्टर के पद से हटाया गया होता तो दिसंबर २००२ में भाजपा १२७ सीटों के साथ विधान सभा में थंपिंग मेजोरिटी के साथ चुनकर न आई होती. मोदी शायद क्षेत्र संन्यास लेकर फिर से कहीं चले गए होते या उनके विरोधी गिद्ध की तरह उन पर टूट पडे होते और सत्ता विहीन मोदी को फाडकर खा गए होते. मोदी का इस्तीफा यदि ले लिया गया होता तो सबसे खराब बात ये होती कि दंगों के बारे में जो असत्य बातें मीडिया ने विरोधियों की मदद से फैलाई, उन सभी को मानो अपने आप सत्य होने का प्रमाणपत्र मिल चुका होता. और परिणामत: गुजरात ही नहीं, सारे देश में भाजपा की बेइज्जती हुई होती. २००२ के विधानसभा चुनाव के बाद २००७ तथा २०१२ के चुनाव में भाजपा का सूपडा साफ हो गया होता और २०१४ के चुनाव में भाजपा के पास प्रधान मंत्री बनने योग्य कोई भी नेता नहीं होता तो ऐसे में प्रधान मंत्री पद के लिए कांग्रेस का कौन सा नेता होता? आप तो जानते हैं, क्यों मेरे मुंह से बुलवाना चाहते हैं!
२००२ में गोवा में वाजपेयी के साथ खुलेआम मतभेद प्रकट करके आडवाणी ने मोदी को ही नहीं बल्कि सारे देश को बचाने का पुण्य कार्य किया. इस मामले में वाजपेयी द्वारा दिए गए योगदान को नहीं भूलना चाहिए. वाजपेयी स्वयं एक कद्दावर नेता हैं. वे चाहते तो आडवाणी को दरकिनार करके अपने मन का किया होता और मोदी से त्यागपत्र लेने की जिद कायम रखी होती. लेकिन वाजपेयी सही मायने में एक उदार और दीर्घ दृष्टि वाले नेता थे. नेहरू की तरह नहीं थे. नेहरू ने अपने साथियों की उपेक्षा करके अपनी ही मर्जी चलाई थी. लेकिन वाजपेयी ने अपने निजी विचारों और निजी मत को एक ओर रखकर देशहित जिसमें समाया है ऐसे निर्णय को बिना किसी हठाग्रह के समर्थन दिया. भारत का सौभाग्य है कि हमें डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और पंडित दीनदयाल उपाध्यान के बाद अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणक्ष और नरेंद्र दामोदरदास मोदी जैसे उच्च कोटि के देश प्रेमी नेता के रूप में मिले.
आज का विचार
सत्य का संघर्ष सत्ता से,
न्याय लडता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है,
किरण अंतिम अस्त होती है,
दांव पर सबकुछ लगा है,
रुक नहीं सकते,
टूट सकते हैं,
मगर झुक नहीं सकते.
– अटल बिहारी वाजपेयी
Reading all makes sense for politics.