संडे मॉर्निंग
सौरभ शाह
वर्षों की मेहनत के बाद, अनुभवों की पूंजी एकत्रित करके कोई प्रतिभाशाली चित्रकार, संगीतकार, वैज्ञानिक या विचारक कुछ नया सृजन करता है और तुरंत ही उसके क्षेत्र के लोग उसकी नकल करके नाम-दाम कमाने के लोभ में उसके सृजन को अपने नाम कर लेने की होड में उतर जाते हैं.
बिजनेस या मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में पेटेंट और रजिस्ट्रेशन जैसे कानूनी प्रावधान किए गए हैं और अब तो रचनात्मकता के क्षेत्र में इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स भी हैं. लेकिन जिन्हें बदमाशी करनी ही है, जिनकी नीयत दूसरे की आयडियाज को हजम कर जाने की है उन्हें कानून में बच निकलने के छिद्र खोजना भी आता है. और ऐसे भी कई मामलों में क्रिएटिव लोग कानूनी पचडे में पड कर अपना अधिकार जताने से बजाय उसे छोड देते हैं और फिर नई रचना को आकार देने में लग जाया करते हैं: आपने मेरी पेंसिल की डिजाइन की नकल कर ली? कोई बात नहीं. कोर्ट कचहरी के चक्कर खाकर अपना समय और ताकत बर्बाद करने के बजाय मैं नई डिजाइन बनाकर दिखाऊंगा और उस समय मैं ख्याल रखूंगा कि तुम जैसे लोग मेरी सृजनात्मकता का ट्रेडमार्क छीन न सकें.
जेनुइन टैलेंट के साथ ही मीडियोक्रिटी की भरमार तो हर जमाने में रही है और रहेगी. टैलेंटेड, ओरिजिनल थिंकिंग करनेवालों और नया मौलिक सृजन करनेवालों को फ्रस्ट्रेट होने की जरूरत नहीं है. स्वामी विवेकानंद आज सौ वर्ष बाद भी रिलैवेंट हैं, सभी के लिए आदरणीय हैं. उनके जमाने में भी क्या आज की तरह स्वामी अग्निवेश जैसे पब्लिसिटी प्रेमी अवसरवादी साधु नहीं रहे होंगे? बिलकुल होंगे. सैकडों होंगे. लेकिन काल के एक ही थपेडे में ये सभी मिट जाते हैं. रह जाते हैं केवल ऐसे लोग जिनकी जड़ें गहराई तक जमी हैं, जो दूसरों की नकल करके नहीं बल्कि अपने बलबूते पर ऊपर आए हैं. किशोर कुमार या मोहम्मद रफी या मुकेश की नकल करनेवाले कई गायक आए और गए. कइयों के नाम भी हुए. ऑर्केस्ट्रा, संगीत संध्याओं, क्लब्स इत्यादि में गाकर उन्होंने पैसे भी खूब कमाए. कभी कभी तो फिल्मों प्लेबैक सिंगिंग करने का मौका भी उनमें से कई लोगों को मिला. लेकिन उन दर्जनों, शायद सैकडों, मेल-फीमेल सिंगर्स में से हम किसे याद करते हैं? किसी की आवाज में आपको गाना आ जाने से आप गायक नहीं बन जाते. आपकी जगह पांस-सात सौ दर्शकों की भीड का मनोरंजन करनेवाले सभागृह के मंच तक ही सीमित रहनेवाली है. किशोर-रफी-मुकेश की तरह करोडों प्रेमियों के दिल में जगह नहीं पा सकते.
चार्ल्स डिक्सन के जमाने में उनकी नकल करके लिखनेवाले अनेक लेखक थे. ऐसा ही शेक्सपियर के समय में भी रहा होगा और ऐसा ही कालिदास, वाल्मीकि और व्यास के जमाने में भी होगा. जयशंकर प्रसाद और निराला का जमाना तो हमने देखा है. कई कवि आए और ऐसे अनेक दिग्गज कवियों की नकल करके उन्होंने कविताएं लिखीं. `मैथिलीशरण गुप्त’, `त्यागी’, `दिनकर’, `महादेवी’, `दुष्यंत कुमार’ या `धूमिल’ की नकल करनेवाले आज मिट गए. ओरिजिनल आज भी जीवित है. नकलचियों ने किसी जमाने में मुशायरों को गुलजार किया होगा, पांच-पचास हजार रूपए जिंदगी में कमाए होंगे, अडोस-पडोस में रौब भी झाडा होगा, शराब-शवाब की अय्याशियां भी उन्होंने की होंगी. लेकिन आज कुछ ही दशाकों में उनका नाम मिट चुका है, उनका काम मिट चुका है. जब कि `निराला’ जैसे स्टालवर्ट्स का सृजन आज भी दृढता से खडा है और `मीर’ तथा `गालिब’ की तरह डेढ सौ-दो सौ वर्ष बाद भी जिंदा है. उसी तरह से ` गुप्त’, `त्यागी’, `दिनकर’, `महादेवी’, `दुष्यंत कुमार’ और `धूमिल’ जैसे रचनाकार भी आनेवाली शताब्दियों तक हिंदी साहित्य प्रेमियों के दिल में बसे रहेंगे.
हर जमाने में ऐसा होता आया है. जो लोग भूतकाल की इस रीतिनीति को नहीं समझ सकते वे कुछ पल के लिए उद्विग्न हो जाते हैं और नकलची लोग अमरत्व का मुकुट सिर पर सजाकर इतराते रहते हैं. लेकिन यदि ये बात समझ में आ जाए कि प्रेमचंद के समकालीन दर्जदों उपन्यासकार थे, साहित्य का इतिहास देख लीजिए, आज उनमें से किसी भी उपन्यासकार की पुस्तक का नाम आपको याद नहीं होगा, इतना ही नहीं उपन्यास का नाम तक याद नहीं होगा. लेकिन उस जमाने में वे लोग मुंशीजी के प्रतिस्पर्धी माने जाते थे, वे पॉपुलर भी थे.
आखिरकार इस दुनिया में वही टिकता है जो समय की अग्नि परीक्षा में सफलता प्राप्तकर के बाहर निकलता है. ऐसी क्षमता उन्हीं लोगों के पास होती है जिनके पास सौ टंच का सोना होता है.
आज का विचार
सारा का सारा उल्लसित मधुरता से जीकर मैने,
जिंदगी के कडवे स्वाद की आबरू छीन ली.
– अनिल चावडा
संडे ह्यूमर
बका: पका, तुम एफबी पर लडकियों के बदलनेवाले प्रोफाइल पिक्चर्स को देखकर क्या कमेंट करते हो?
पका: वाव, ऑसम, नाइस, ब्यूटी….
बका: इसे शास्त्रों में क्या कहा जाता है पता है?
पका: क्या कहा जाता है?
बका: भैंस के आगे बीन बजाना!
(मुंबई समाचार, रविवार – ५ अगस्त २०१८)