संविधान का काला पक्ष: धारा ३७० की असमानता

गुड मॉर्निंग

सौरभ शाह

कश्मीर का मामला पंडित नेहरू द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष ले जाने के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य के संबंध केंद्र सरकार के साथ अधिक जटिल हो गए. भारतीय गणतांत्रिक व्यवस्था में केंद्र-राज्य के बीच के संबंधों के बारे में संविधान में संपूर्ण स्पष्टता है. जम्मू-कश्मीर के अलावा अन्य राज्यों को केंद्र ने अधिकार दिए हैं. केंद्र के निर्णयों को राज्य द्वारा क्रियान्वित करवाने का अधिकार तथा उन निर्णयों को अमल में लाते समय कोई बाधा न आए, उसके अनुसार राज्यों की व्यवस्था करने का अधिकार केंद्र के पास है. किन किन क्षेत्रों में केंद्र सरकार के शब्द अंतिम रहेंगे और किन किन क्षेत्रों में केंद्र को राज्य सरकार के व्यवस्था तंत्र में हस्तक्षेप नहीं करना है, इसकी विस्तृत सूची संविधान में दी गई है, लेकिन जम्मू कश्मीर राज्य के बारे में ऐसी कोई स्पष्टता नहीं थी जिसके कारण धारा ३७० में अंतरिम स्पष्टताएँ करनी पडीं. शेख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फरेंस इन स्पष्टीकरणों से संतुष्ट नहीं थी. शेख अब्दुल्ला अपनी अंतरिम सरकार के लिए केंद्र से जितना संभव हो सके उतने अधिकार छीन लेना चाहते थे, और हो सका तो संपूर्ण सत्ता, ऐसी सत्ता जिस पर केंद्र का कम से कम वर्चस्व हो. लगभग पूर्ण स्वतंत्रता की तोप मांग ली. अब्दुल्ला आर्टिकल ३७० रूपी बंदूक पाने में सफल रहे. पंडित नेहरू ने यूएन में दौड लगाने के बाद कश्मीर के बारे में दूसरी बडी गलती ये बंदूक उनके हाथ में थमाने की थी.

धारा ३७० के लागू होने के बाद उसमें भारत की ओर से केंद्र सरकार की ओर से संशोधन नहीं हुए, ऐसी बात नहीं है. १९६५ में सदर-ए-रियासत के ओहदे को निरस्त कर दिया गया और राष्ट्रपति को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त करने का अधिकार दिया गया. जम्मू-कश्मीर के सर्वोच्च पद पर चुने गए नेता को राज्य का प्रधानमंत्री माना जाता था. इसके स्थान पर अन्य राज्यों की तरह जम्मू-कश्मीर में भी मुख्यमंत्री का पद अमल में लाया गया. आज यदि धारा ३७० में भारी संशोधन करने या उसे समूल नष्ट करने की बात करना कोई नई मांग नहीं है और न ही कोई धक्कादायक बात है. १९६५ से ही ऐसे सुधारों का आरंभ हो चुका है. यह धारा यदि पूरी तरह से रद्द नहीं हो सकती है तो कम से कम उसमें कई प्रमुख संशोधन करके उस धारा को प्रभावहीन तो बनाया ही जा सकता है.

सबसे पहला सुधार जरूरी है नागरिकता के संबंध में. वर्तमान प्रावधानों का कुल मिलाकर यह सुर है कि जम्मू -कश्मीर का हर `स्थायी’ निवासी भारतीय नागरिक है, लेकिन भारत का हर नागरिक जम्मू-कश्मीर का `स्थायी निवासी’ नहीं बन सकता. जम्मू-कश्मीर का `स्थायी नागरिक’ बनने के लिए तीन में से कोई एक शर्त पूरी होनी चाहिए: १. महाराजा गुलाब सिंह के शासन के दौरान राज्य की सीमाओं में जन्मा व्यक्ति या उसका वारिस. २. वर्ष १८८५ से पहले राज्य में स्थायी हुआ व्यक्ति या उसके वारिस. ३. १९११ से पहले राज्य में स्थायी होकर अचल संपत्ति खरीदनेवाला व्यक्ति, १४ मई १९४५ से पहले राज्य में अचल संपत्ति खरीद कर स्थायी होनेवाले व्यक्ति और ऐसे व्यक्ति जिन्हें पहले राज्य की नागरिकता हासिल थी, लेकिन जो पाकिस्तान से स्थलांतर करके राज्य में हमेशा के लिए लौट आए हैं.

भारतीय संविधान में भारत के हर नागरिक को देश के किसी भी कोने में बसने, जीवन गुजारने का अधिकार है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में वहां के स्थायी निवासियों के अलावा किसी भी भारतीय नागरिक को अचल संपत्ति खरीदने का अधिकार नहीं है, इस मुद्दे पर कल भी हमने चर्चा की थी. ऐसी सांवैधानिक विसंगति को दूर करने की मांग बिलकुल उचित है.

संविधान में हर नागरिक को समानता का अधिकार मिला है. कानून के सामने भारत का हर नागरिक समान है. कानून न तो उसका पक्ष ले सकता है, न ही उसके प्रति पूर्वाग्रह रख सकता है. समानता के इस अधिकार का उल्लंघन धारा ३७० द्वारा किस तरह से होता है, ये हम देख चुके हैं.

हर भारतीय नागरिक को संविधान की धारा २२ द्वारा सरकार द्वारा की जा सकनेवाली मनमुताबिक बंदी/ गिरफ्तारी के सामने सुरक्षा मिली है और इस बारे में कोई भी नई धारा बनाने का अधिकार संसद को दिया गया है. जम्मू-कश्मीर के बारे में यह अधिकार राज्य की विधानसभा को दिया गया है. धारा १९ के माध्यम से हर भारतीय को मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा अन्य ६ प्रकार की स्वतंत्रताओं के बारे में भी धारा ३७० के कारण जम्मू-कश्मीर का सत्ताधारी दल काफी हद तक केंद्र की उपेक्षा करके अपना इच्छित कार्य कर सकता है. देश में या राज्य में असामान्य स्थिति पैदा होने पर भारत के राष्ट्रपति आपात्‌काल की घोषणा कर कते हैं. जम्मू-कश्मीर के बारे राष्ट्रपति को उस राज्य की आंतरिक व्यवस्था में तनाव पैदा होने पर इमरजेंसी घोषित हो तो पहले राज्य सरकार के साथ सहमति बनाना अनिवार्य है.

धारा ३७० रद्द करने के लिए उसमें भारी संशोधन करने के लिए संसद में सत्ताधारी दल के पास सामान्य बहुमत होना काफी नहीं है. एक जमाने में भाजपा की १३ दिन की सरकार बनी थी तब उसे टिकाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस मांग को ठंडे बस्ते में रखकर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत साथी दलों से सहयोग मांगा था. उसके बाद आम चुनाव के समय भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में इस धारा को रद्द करने का वचन देने के बाद मिलीजुली सरकार बनाने और उसे टिकाए रखने के प्रयास में भाजपा को फिर एक बार इस मामले को अलग रखना पडा. धारा ३७० रद्द होने से भारत, जम्मू-कश्मीर सहित भारत के किसी भी राष्ट्रवादी मुस्लिम का सार्वजनिक हित या निजी हित खतरे में नहीं पडता, लेकिन इस धारा के होने से भारत के एक राष्ट्र के रूप में तथा भारत के नागरिकों के हित के जोखिम में पडने जैसी स्थिति पैदा हो सकती है.

धारा ३७० को रद्द करने का वादा केवल भाजपा ही नहीं, बल्कि कॉन्ग्रेस, कम्युनस् पार्टी, समाजवादी पार्टी, जनता दल, तृणमूल कॉन्र्गेस सहित हर राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में करता है. इसे एक आदर्श परिस्थिति माना जाता है. दुर्भाग्य से राजनीति में आदर्श परिस्थितियॉं कभी उत्पन्न नहीं होतीं. इसीलिए २०१९ में भाजपा को लोकसभा में और उसके पश्चात राज्यसभा में भी दो तिहाई बहुमत या तीन चौथाई बहुमत प्राप्त करना जरूरी है. आगे की जानकारी कल.

आज का विचार

जिसका कोई नहीं होता, उसका मोबाइल होता है!

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एक मिनट!

अहमदाबाद में बका दारू की बोतल के साथ पकडा गया.

लोगों ने पुलिस से प्रार्थना की कि उसे छोड दो, बेचारा मुंबई से आया है, अनजान है और शराब का आदी है.

पुलिस कहती है,`दारू के लिए नहीं पकडा है, वह इसे प्लास्टिक की थैली में ले जा रहा था इसीलिए पकडना पडा…’

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