गुड मॉर्निंग: सौरभ शाह
(newspremi.com, बुधवार, १२ अगस्त २०२०)
हमारे आस-पास के गलत लोगों के प्रभाव में पडे बिना सही दिशा में वाचन करते रहे तो कितना बडा लाभ जीवन में होता है इसका उत्कृष्ट उदाहरण साकेत सूर्येश हैं जिनके ट्विटर थ्रेड (@saket71) के बारे में शेष बात आज पूरी करते हैं. पांच अगस्त को पोस्ट किए गए इस पंद्रह ट्विटर के थ्रेड में साकेत ने लिखा है कि उदारमतवादी मुस्लिम भी, मुगलकाल के दौरान गिराए गए हजारों मंदिरों के बारे में, कुछ नहीं कहते हैं और इसके विपरीत यही मुसलमान `उदार दिल’ होकर रोहिंग्याओं को स्वीकार करने की मुहिम चलाएंगे.
साकेत आगे लिखते हैं:
“ऐसी सारी बातें जानकर मुझे बहुत क्रोध आता था. इन बातों का मतलब ये हुआ कि हमें एकजुट होकर अपनी परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए लडना चाहिए. मैं ये नहीं कह रहा हूं कि हमें घडी के कांटों को उल्टा नहीं घुमाना है. ऐसा नहीं हो सकता. मैं तो केवल परंपरा को सुरक्षित रखने का आग्रह करता हूं. (मस्जिद बन चुके) हजारों मंदिरों को फिर से बनाने की जरूरत नहीं है, लेकिन अयोध्या, मथुरा और काशी के बारे में तो बात होनी ही चाहिए.
“बहुसंख्यक हिंदुओं के हृदय में शूल की तरह चुभ रही खौफनाक यादों को वे लोग जीवित रखना चाहते हैं.”
“इन तीनों मंदिरों का भारतीय संस्कृति के लिए विशेष महत्व है. उदारमतवादी मुसलमानों को (बाकी दोनों मंदिरों के बारे में) शुभेच्छा प्रकट करते हुए आगे आना चाहिए. पर वे लोग नहीं आएंगे और उन्हें आना होगा तो भी नास्तिक नेहरूवादी नहीं आने देंगे. इस्लाम के लिए काशी और मथुरा का कोई महत्व नहीं है. ये तो बस तुर्की (मुगल के रूप में पहचाने जानेवाले) आक्रमणकारियों के प्रतीक हैं.
“बहुसंख्यक हिंदुओं के हृदय में शूल की तरह चुभ रही खौफनाक यादों को वे लोग जीवित रखना चाहते हैं. हिंदुओं से कहा जाता है कि आप (काशी-मथुरा) की मांग को छोड दीजिए. १९४७ में हमारे बाप-दादाओं की जमीन छोडकर उन्हें पूरा देश बनाकर देने के बावजूद अब भी हिंदुओं से कहा जाता है कि आप भूल जाइए. मेरा तो मेरे बाप का है ही और तेरे में भी मेरा हिस्सा है…
“मुझे लगता है कि मेरे अध्ययन काल के दौरान जो सबसे गैरजिम्मेदार शिक्षक मुझे मिले वे इतिहास पढानेवाले शिक्षक थे. मुझे तो इंजीनियरिंग में आगे बढना था इसीलिए ऐसे शिक्षकों से मुझे कोई आपत्ति नहीं थी. बाकी, वे लोग जो पढाते थे उसका महत्व कितना है इसका मुझे तनिक भी ख्याल नहीं था. इस कारण मेरे आस पास ऐसा वातावरण बना जिसका ऐतिहासिक संदर्भ मेरी पकड में हीं नहीं आया…
“लेकिन अब अपने स्वाध्याय के कारण मुझे महसूस हुआ है कि इस दुनिया के सबसे पुराने धर्म का विस्तार क्रमश: कितना संकुचित हुआ है. इसीलिए, अब मैं खुद से जितना हो सकता है उतना और उससे भी अधिक करने के लिए कटिबद्ध हूं. मैं पढता रहा, लिखता गया. ईसवी सन ३८५ में पाल्मायरा के विध्वंस का इतिहास पढकर मुझे अयोध्या के राम मंदिर को किस तरह से नष्ट किया गया होगा इसका विचार आया. इसीलिए आज मैं खुश हूं, बहुत खुश हूं.”
साकेत यहां अपनी बात पूरी करते हैं. आशा करते हैं कि भविष्य में साकेत की ओर से भी सीताराम गोयल की तरह ही एक छोटी तो छोटी लेकिन एक स्वतंत्र पुस्तक मिले: `सेकुलरवाद के बहाव में आकर मैं हिंदूवादी कैसे बना’
“हिंदुओं की समस्या ये है कि हम किसी बात में पहल नहीं करते. जो भी करना होता है वह प्रतिक्रिया स्वरूप करते हैं.”
साकेत के लंबे ट्विटर थ्रेड के नीचे खूब सारे कमेंट्स हैं. कई सारे लोगों ने लिखा है कि साकेत की तरह ही वे भी कभी नासमझी के कारण पक्के सेकुलर थे और अब समझदारी की दाढ आने पर हिंदूवादी बने हैं. मंगलम (@veejaysai) लिखते हैं कि एक जमाना था जब मुझे सेकुलरवाद का तमगा लगाकर घूमने में गर्व महसूस होता था. कई मुसलमान मेरे मित्र थे. सूफीवाद में मग्न हो जाने में मुझे धन्यता का अनुभव होता था. जो दरगाह हाथ लगी वहां निश्चित जाता था. उर्दू और फारसी सीखना भी शुरू किया था. लेकिन धीरे धीरे सत्य आंखों के सामने आने लगा. सेकुलर होने का तमगा मेरे लिए बोझ स्वरूप हो गया. ये तो अच्छा हुआ कि देर होने से पहले मुझमें जागरूकता आ गई.
अबीर मिश्रा (@praxxlnc) का कमेंट भी रोचक है. लिखते हैं कि हिंदुओं की समस्या ये है कि हम किसी बात में पहल नहीं करते. जो भी करना होता है वह प्रतिक्रिया स्वरूप करते हैं. इसीलिए अलीगढ मुस्लिम युनिवर्सिटी की स्थापना पहले हुई और बनारस हिंदू युनिवर्सिटी बाद में बनी. मुस्लिम लीग की स्थापना पहले हुई. उसके बाद हिंदू महासभा बनी. हम कौन हैं इसकी अनुभूति हमें दूसरों के दंभ का पर्दा हटने के बाद ही होती है. मैं भी पहले सेकुलर ही था, अबीर लिखते हैं.
“हिंदू धर्म में पले बढे लोगों को कभी दूसरों के धर्म को धिक्कारना या गाली देना नहीं सिखाया जाता”
फॉरेन देसी (@foreign_desi) लिखते हैं: मुझे पहले हिंदुत्व में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन मेरे कई सारे कैथलिक स्कूली दोस्तों ने मेरी एफबी वॉल पर हिंदू गौमूत्र पीते हैं जैसे कमेंट्स किए और मुसलमान कॉलेज मित्रों ने रोहिंग्याओं और तुर्की के बारे में पोस्ट शेयर की तब मेरी आंख खुली (कि वे कितने असहिष्णु हैं).
इंडियन दिवा (@itsDivasChoice) ने एक नया दृष्टिकोण दिया है: हिंदू धर्म में पले बढे लोगों को कभी दूसरों के धर्म को धिक्कारना या गाली देना नहीं सिखाया जाता, इसीलिए हम सभी अपने आप (सहिष्णुता की वीणा बजाते हुए) सेकुलरिज्म की छत्रछाया में बढते रहते हैं. लेकिन समाज हमें वास्तविकता का पाठ पढाता है. धीरे-धीरे हमारी मान्यताएं बदलती गईं. लेकिन हमारी नई पीढी फिर उसी वातावरण में पल कर सेकुलर बन रही है.
ऐसे अनगिनत कमेंट्स साकेत के थ्रेड के एक एक ट्वीट के नीचे लिखे गए हैं. ट्विटर पर अगर आप हों तो जरूर पढना चाहिए.
कल की ही घटना के साथ साकेत की बात को और इन सभी कमेंट्स को समेट लेते हैं. भारत में अब साबित हो चुका है कि धर्मांध लोग आपको सेकुलरवादी बनाकर अपनी सांप्रदायिकता को पोषित करना चाहते हैं. हम भी मूर्खों की तरह सांप्रदायिक नहीं दिखने के लिए उन अन्य सांप्रदायिक लोगों का हाथ फैलाकर स्वागत करते हैं.
कल (११ अगस्त को मंगलवार के दिन) बैंगलोर में जो घटना हुई है उसके बारे में बात करने से पहले कल हुई राहत इंदौरी की मृत्यु की बात करते हैं. ये आदमी उर्दू का शायर था. हिंदू विरोधी था. इतना ही नहीं, इस देश की संस्कृति के प्रहरियों के प्रति उसके मन में धिक्कार का भाव कूट कूट कर भरा था. राहत इंदौरी की मृत्यु का समाचार देते समय दो विख्यात एंटी मोदी, एंटीहिंदू पत्रकारों ने इस आदमी का एक विख्यात शेर का उल्लेख किया था कि ये हिंदुस्तान किसी के बाप की जागीर नहीं है. ये पत्रकार थे- राजदीप सरदेसाई और तवलीन सिंह. उसके बाद कई भोले (पढिए मूर्ख जैसे) हिंदुओं ने भी भावविभोर होकर इस जहरीले मुस्लिम सांप्रदायिक शायर को श्रद्धांजलि दी.
राहत इंदौरी नामक शायर विरोधी से आतंकवादी बन गया था.
राहत इंदौरी तो क्या किसीको भी विरोध करने का हक है. अपनी विचारधारा की विरोधी विचारधारा को चुनौती देने का अधिकार है. लेकिन ऐसा अधिकार हाथ में ए.के. ४७ लेकर घूमनेवाले आतंकवादियों को नहीं होता. राहत इंदौरी नामक शायर विरोधी से आतंकवादी बन गया था. आतंकवाद केवल हिंसक आचरण को ही नहीं कहा जाता, हिंसक आचरण को उकसानेवाले, प्रेरित करनेवाले को भी आतंकवादी कहते हैं. आईपीसी में भी भडकाऊ भाषण के फौजदारी अपराध के लिए गिरफ्तारी होती है, कडी सजा होती है. लेकिन `शायर’ तथा `बौद्धिकता` का लेबल चिपका कर राहत इंदौरी जैसे लोग बच निकलते हैं.
थोडा विस्तार से बात करते हैं. राहत इंदौरी ने २००२ के गोधरा हिंदू हत्याकांड के गुनहगारों को क्लीन चिट देकर एक शेर लिखा था जिस पर मुसलमान श्रोता तो उन्हें `वाह वाह’ और `क्या बात है’ कहकर सराहते थे ही पर कई बेवकूफ हिंदू भी इस शेर पर उछल उछल कर दाद दे रहे थे. शेर है:
जिनका मसलक है रोशनी का सफर
वो चरागों को क्यों बुझाएंगे
अपने मुर्दे भी जो जलाते नहीं
जिंदा लोगों को क्या जलाएंगे.
`मसलक’ यानी पंथ, नीति. कोई अतिसयाना कवि कह सकता है कि इस शेर में गलत क्या है? किसी को भी अपनी कौम का बचाव करने का अधिकार है.
राहत इंदौरी के इस शेर के खिलाफ जो सबसे बडी आपत्ति है वह बात तो उसमें कही गई है ही. इस शेर को प्रस्तुत करने से पहले जो प्रस्तावना की जाती है वह भी आपत्तिजनक है. शेर कहने से पहले मव्वाली की तरह ऊंची आवाज़ में श्रोताओं को भडकाने के इरादे से राहत मियां ने कहा कि (क्लिप यूट्यूब पर देख लीजिएगा): `गोधरा में ट्रेन में किसी को जलाया ही नहीं गया था, ऐसा एक साल की जांच के बाद साबित हो चुका है. जांच आयोग की रिपोर्ट कहती है कि ये सारी गप है, मीडिया ने आपको भ्रमित किया है.’
जानबूझकर ये सफेद झूठ बोलने के बाद राहत ये शेर पेश करता है. और हद तो तब होती है जब राहत एक विशाल ऑल इंडिया मुशायरे में हजारों की भीड के सामने खुलकर माइक पर ऐसा कहता है:
`देखिए तुलसीदाजजी ने अकबर के जमाने में मस्जिद के जेहन में बैठकर रामचरित मानस रची थी, लिखी थी.’
व्हॉट नॉनसेंस.
फिर आगे चलकर राहत रामायण की सरेआम खिल्ली उडाते हुए कहता है:
`इस रामचरित मानस का क्या उपयोग हो रहा है? तुलसी ने जो लिखा अब कुछ बदला बला है…लंकावंका, रावण बावण, बंदरवंदर सब…’
इतना कहकर वह माइक पर अट्टहास करता है और वहां बैठे हजारों श्रोता इस भद्दे हास्य में जुड जाते हैं. अभी आगे और है. यहीं बात खत्म नहीं होती. राहत कहता है:
ऐसे चीप डबल मीनिंग के शेर लिखनेवाले राहत इंदौरी का समाचार सुनकर इंदौर के लोग ही नहीं, भारत में सभी को बडी राहत मिली है.
`अभी मंजर भोपाली साहब ने गीत सुनाया था उसमें किसी का जिक्र था, मेरा ख्याल है प्राइम मिनिस्टर का. मै नाम नहीं लेता हूं किसी का अपनी जुबान से- इसलिए कि मेरे शेरों की कीमत करोडो रूपए है-मैं दो-दो कौडी के लागों का नाम ले के अपने शेर की कीमत…’
इतना कहता है और मुशायरे में बैठी जाहिल गंवार जनता इस बेहूदे शायर की विभत्स बात को तालियों से सराहती है. उस समय भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे. पीएम को सार्वजनिक रूप से दो कौडी का कहने की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता भारत में ही मिल सकती है. अरब देशों में पचास कोडे खाने पडेंगे और फिर सारी जिंदगी जेल में सडना पडेगा. लेकिन यहां उनके साथ सहिष्णुता का व्यवहार होने के बावजूद ये `शांतिप्रिय’ लोग खुद को भारत की `डरी हुई जनता’ के रूप में दुनिया के सामने प्रचारित करते हैं.
आगे की बात सुनिए. वाजपेयीजी अविवाहित थे, इस संदर्भ में इस हरामी शायर का शेर सुनिए. उस समय वाजपेयी जी के घुटने का ऑपरेशन हुआ था. राहत कहता है-
`इतने बडे देश का, १०० करोड जनता का भार जिस पर है, वह खुद का भार अपने घुटने पर नहीं उठा सकता…’
इतना कहने के बाद जैसे सडकछाप मदारी अदा से कहता है उसी तरह से राहत प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सेक्स लाइफ के बारे में सार्वजनिक रूप से इस शेर में कहता है और इस आदमी का सेकुलर देश में कोई बाल तक बांका नहीं कर सकता. राहत का शेर है:
`रंग चेहरे का ज़र्द कैसा है आईना गर्द गर्द कैसा है,
काम घुटनों से जब लिया ही नहीं
फिर ये घुटनों में दर्द कैसा है?’
ऐसे चीप डबल मीनिंग के शेर लिखनेवाले राहत इंदौरी का समाचार सुनकर इंदौर के लोग ही नहीं, भारत में सभी को बडी राहत मिली है. जनरली किसी के मरने के बाद उसके बारे में बुरा बोलने का संस्कार हमारे नहीं हैं. लेकिन अजमल कसाब के मरने के बाद क्या हमारे अंदर हर्ष की लहर नहीं दौडती? राहत इंदौरी के बारे में भी फेसबुक, ट्विटर, व्हॉट्सऐप की जनता में रह रहकर जागरूकता आई और जबरदस्त फटकार की बौछार इस आदमी पर हुई. किसी की मौत पर आकर ऐसी मेजबानी आज तक कभी नहीं हुई. प्रस्तुत है राहत इंदौरी ने जो वाजपेयी के लिए बेहूदा शेर लिखा उसके जवाब में पढने को मिला ये शेर:
`नाम रख दिया राहत उस बदनसीब का
जिक्र-ए-अब्बा का आया तो पूरा `इंदौर’ लिख दिया’
सीएए और एनआरसी के विरोध के समय राहत की एक गजल मुस्लिमपरस्तों को बहुत अच्छी लगी थी. गजल का एक एक शेर भारत विरोधियों को उकसाने के लिए काफी था:
`अगर खिलाफ हैं, होने दो, जान थोडी है
ये सब धुआं है, कोई आसमान थोडी है
लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में
यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोडी है.
मैं जानता हूं कि दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरह हथेली पर जान थोडी है.
हमारे मुंह से जो निकले वही सदाकत है.
हमारे मुंह में तुम्हारी जुबां थोडी है
जो आज साहिब-ए-मसनद है, कल नहीं होंगे.
किराएदार हैं, जाती मकान थोडी है
सभी का खुन है शामिल, यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है.’
`ज़द’ यानी लक्ष्य, टार्गेट. `सदाकत’ यानी सत्य या सच्चाई और `साहिब-ए-मसनद’ में मसनद का अर्थ है बडा-गोल-लंबा तकिया. जिसका अभिप्राय सत्ता की गद्दी से है.
अब सारी गजल का फिर से पठन कीजिए और संदर्भों को समझकर सोचिए कि इस पापी शायर के मन में भारत के लिए, हिंदुओं के लिए कितना जहर भरा होगा.
इस थर्ड रेट शायर की धिक्कारवादी गजल के जवाब में किसी राष्ट्रवादी ने कल मुंहतोड शेर लिखा:
खून शामिल था मिट्टी में तो पाकिस्तान ले लिया,
अब ये देश हमारा है, किराए का मकान थोडी है.
दिखाओगे आंख तो फोड देंगे,
हम मुगलों की संतान थोडी है.
लगाओगे आग तो जला देंगे नस्ल भी,
यह देश श्रीराम का मंदिर है
तुम्हारी पंक्चर की दुकान थोड़ी है.
गूंजेगा वंदे मातरम इस देश के हर कोने में,
किसी राहत इंदौरी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है.
बैंगलोर की बात कल.
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