मैं जिस तरह से काम करता हूँ, उससे अलग तरीके से नहीं कर सकूंगा

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, शनिवार – २४ नवंबर २०१८)

सरदार पटेल मौलाना अबुल कलाम आजाद की सच्चाई को हमसे पहले ही न जाने कब के पहचान चुके थे. मौलाना आजाद न तो कोई देशप्रेमी नेता थे, न ही हिंदुओं के प्रति समभाव रखनेवाले मुस्लिम थे. मैने जब जब भी ऐसा कहा या लिखा है तब तब इस देश के कई सेकुलरों-साम्यवादियों को चुभन महसूस हुई है. मेरी इस मान्यता के पीछे ठोस प्रमाण हैं जो आपको मौलाना आजाद की आत्मकथ के उन पन्नों में मिल जाएंगे जिन्हें उन्होंने अपनी मृत्यु के ३० वर्ष बाद सार्वजनिक करने के लिए कहा था, इससे पहले नहीं. १९८८ में ये पृष्ठ उनकी आत्मकथा में जोड़े गए. गूगल सर्च करने पर पांचवीं कक्षा के विद्यार्थी को भी आसानी से मिल जाएगा. इन पृष्ठों पर मौलाना आजाद के मुस्लिम कट्टरवादी के रूप में विचारों और उन विचारों में दृढ विश्वास रखनेवालों के साथ उनके संबंधों सहित अन्य विस्फोटक जानकारियॉं हैं.

मौलाना आजाद देश के पहले शिक्षा मंत्री थे. उन्होंने ही (या उनके माध्यम से नेहरू ने) इस देश की शिक्षा व्यवस्था की बागडोर साम्यवादियों तथा सेकुलरों के हाथों में सौंप कर देश की शिक्षा व्यवस्था कब्र खोदी.

जवाहरलाल नेहरू ने १९५५ में जिस `भारत रत्न’ का सम्मान खुद ही अपने गले में डलवाया और उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने १९७१ में खुद ही अपने गले में पहनाया वह `भारत रत्न’ सरदार पटेल को (मरणोपरांत) तथा मोरारजी देसाई को (उनके जीवित रहने के दौरान) जब प्रदान किए जाने का फैसला हुआ तब कांग्रेसियों ने जबरदस्ती मौलाना आजाद को भी उन दोनों महानुभावों के साथ `भारत रत्न’ दिलवाया था.

अबुल कलाम गुलाब मुहिउद्दीन अहमद बिन खैरूद्दीन अल हुसैनी आजाद उनका पूरा नाम था. सउदी अरब के मक्का में उनका जन्म हुआ था. अभिनेता आमिर खान खुद को मौलाना आजाद की चौथी पीढी का भांजा या भतीजा बताते हैं तथा किरण राव से हुई अपनी संतान को `आजाद’ के नाम से पहचानते हैं.

मौलाना जैसे सांप्रदायिक कांग्रेसी नेताओं के बारे में हमें सच नहीं पढाया गया है इसीलिए हम उन जैसे लोगों के बारे में अब भी भ्रम में हैं. सरदार ने तो इन सभी के साथ काम किया है, अपनी पैनी दृष्टि से उन्हें आरपार देखा है. १३ जनवरी १९४८ के दिन सारे देश को पता चला था कि आज से गांधीजी उपवास पर बैठने वाले हैं. इसी दिन सरदार ने दुखी होकर गांधीजी को पत्र लिखा था (जिसमें मौलाना आजाद के बारे में किए गए उल्लेख पर गौर कीजिएगा):

`आज सबेरे सात बजे काडियावाड के लिए रवाना होना है. आप अनशन कर रहे हैं और उसी वक्त मुझे जाना पड रहा है जिसकी वेदना असह्य है, लेकिन दृढता से कर्तव्य निभाने के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं होता. कल आपकी वेदना को देख कर मुझे दुख हो रहा है. उसके कारण मुझे उग्रता से विचार करने पर मजबूर होना पडा है. काम का बोझ इतना है कि मानो मैं उसके बोझ तले दब गया हूं. अब मुझे लगता है कि ऐसे ही काम चलाते रहने से देश को या मुझे कोई लाभ नहीं होगा.

जवाहर पर तो मुझसे भी अधिक बोझ है. उनका हृदय शोकाकुल है. ऐसा भी हो सकता है कि मैं वृद्धावस्था के कारण क्षीण हो गया हूं और उनके कंधे से कंधा मिलाकर साथी के रूप में खडे रहकर उनका बोझ हल्का करने लायक नहीं हूं. मौलाना (आजाद) भी मैं जो कुछ कर रहा हूं, उससे नाराज हैं और आपको बार बार मेरा बचाव करना पड रहा है. यह भी मुझे असह्य लग रहा है.

इन संयोगों में अब आप मुझे जाने दें तो मेरे लिए और देश के लिए बेहतर होगा. मैं जिस तरह से काम करता हूं उससे अलग शैली में काम नहीं कर सकूंगा. इसीलिए मैं अपने जीवन भर के साथियों के लिए बोझ बन जाऊं और आपको व्यथित करूं तथा इसके बावजूद सत्ता से चिपका रहूं तो इसका ये अर्थ होता है – कम से कम मुझे खुद को तो यही लगता है- कि मैं सत्ता की लालसा में अंधा होने के लिए तैयार हूं और इसीलिए सत्ता का त्याग करने के लिए नाराज हूं. आपको मुझे इस असह्य परिस्थिति से तुरंत मुक्त करना चाहिए.

मुझे ज्ञात है कि आप अनशन कर रहे हैं और ऐसे में दलीलों के लिए कोई समय नहीं है. लेकिन आपके अनशन को खत्म करने में मैं सहायक बन सकूं इस स्थिति में भी नहीं हूं, इसीलिए मैं और क्या कर सकता हूँ मुझे नहीं पता. अत: मैं अंत:करण से निवेदन करता हूं कि अपना अनशन छोड कर इस प्रश्न को तुरंत निपटा दीजिए. इससे शायद आपको उपवास करने हेतु प्रेरित करनेवाले कारणों को दूर करने में मदद मिलेगी.’

सरदार ने यहां पर संकेत किया है कि जिन हिंदू – मुस्लिम दंगों को शांत करने के लिए गांधीजी अनशन कर रहे हैं वह शायद उनके त्यागपत्र से शांत हो जाय. ऐसा कब हो सकता है? जब मुस्लिम नेताओं को लगता है कि सरदार के इस्तीफे से अब हमारा दबदबा बन चुका है तो अब दंगे करके हिंदुओं को डराने की जरूरत नहीं है और तभी दंगे शांत होंगे. क्या इन मुस्लिम नेताओं को नेहरू का मौन समर्थन था? हो भी सकता है. वे खुद सत्ता छोडेंगे तो दंगे बंद हो जाएंगे ऐसा सरदार क्यों लिखेंगे?

खैर, ये सभी आकलन हैं जिसे आप बिटवीन द लाइन्स पढने की कला मान सकते हैं.

सरदार ने गांधीजी को जो पत्र लिख कर नेहरू को उसकी प्रति भेजी थी उसके जवाब में १३ जनवरी १९४८ के दिन पत्र लिखकर नेहरू ने सरदार को बताया कि अब इस बारे में लंबी चर्चा करने का कोई अर्थ नहीं है (ये शब्द मेरे हैं, भाव नेहरूजी के हैं). लेकिन मैं जो कुछ कर रहा हूं उसमें मैं सच हूं (यानी सरदार झूठे हैं) और गांधीजी का अनशन खत्म होने के बाद हम दोनों उनसे मिलकर अपने मतभेदों के बारे में रूबरू चर्चा करेंगे.

पर ऐसा मौका ही नहीं आया. देखते देखते तीस जनवरी का वो काला दिन आ गया. १९४८ के बाकी वर्ष, १९४९ के वर्ष और १९५० का वर्ष, १५ दिसंबर १९५० तक का वर्ष – इन करीब तीन वर्षों के दौरान गांधीजी की अनुपस्थिति में सरदार ने टूटे दिल से नेहरू के साथ काम किया.

नेहरू के बदले सरदार पटेल इस देश के प्रधान मंत्री होते तो यह देश कहां से कहां पहुंच चुका होता जैसी बातें करना लगता है कि ठीक ही है लेकिन देखना ये चाहिए कि नेहरू प्रधान मंत्री थे इसके बावजूद सरदार ने कितने बडे कार्य किए हैं जिनके कारण यह देश अखंड रहा है, मजबूत बना है. सरदार का जीते जी नेहरू एंड कंपनी ने कोई श्रेय नहीं दिया और उनकी मृत्यु के बाद तो नेहरू तथा नेहरू के कांग्रेसी, वामपंथी, मुस्लिमवादी, सेकुलर पिट्ठुओं ने सरदार को मिटाने का पूरा प्रयास किया. लेकिन सरदार का काम इतना विराटा था कि वे पाठ्यपुस्तकों में से मिटा दिए गए, लेकिन जनमानस से नहीं. आज उनकी विराट प्रतिभा खडी करके सरदार के उन कार्यों की महत्ता को सारे विश्व तक पहुंचाया गया है. हर मुस्लिम की जिस प्रकार से जीवन में कम से कम एक बार हज यात्रा करने की इच्छा होती है उसी प्रकार से हर भारतीय के हृदय में- चाहे वह हिंदू हो, मुस्लिम हो, इसाई हो या किसी भी धर्म का हो- सरदार की उस विराट प्रतिमा का प्रत्यक्ष दर्शन करने की चाहत अवश्य होनी चाहिए.

एक मिनट

बॉस: अरे बका, घर में शादी है, ऐसा कहकर छुट्टी पर चला गया अब उस शादी की सीडी तो दिखा.

बका: साहब, तुलसी विवाह था.

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