क्या सरदार मानते थे कि नेहरू तानाशाह हैं?

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, शुक्रवार – २३ नवंबर २०१८)

नेहरू ने गांधीजी को लिखे पत्र में सरदार के बारे शिकायत की थी कि ५५० से अधिक रियासतों के भारत में विलीनीकरण के काम में सरदार मुझे (नेहरू को) या मंत्रिमंडल को पूछे बिना अपने मन से निर्णय लेते हैं.

गांधीजी ने इस पत्र की प्रति सरदार को भेजी. सरदार ने १२ जनवरी १९४८ को गांधीजी को पत्र लिखा जिसकी प्रति नेहरू ने इस टिप्पणी के साथ भेजी थी. `सरदार पटेल: चुनिंदा पत्रव्यवहार: १९४५-१९४५-१९५०’ की पहली आवृत्ति के दूसरे भाग के १८९वें पृष्ठ पर सरदार द्वारा नेहरू को लिखी टिप्पणी के ऊपर २१ जनवरी १९४८ छपा है जो प्रूफ रीडिंग की गलती लग रही है. २१ नहीं बल्कि १२ तारीख होनी चाहिए. सरदार ने नेहरू को कवरिंग लेटर में लिखा था:

`आप द्वारा गांधीजी को भेजी गई टिप्पणी के बारे में ११ जनवरी (१ जनवरी होना चाहिए) १९४८ को लिखे पत्र के लिए आपका धन्यवाद. मैं गांधीजी को जो पत्र भेज रहा हूँ उसकी प्रति यहॉं संलग्न कर रहा हूँ. मैं काफी समय से बाहर था, इसीलिए इस विषय को हाथ में नहीं ले सकता इसके लिए मुझे खेद है. जिस अल्प अवधि के लिए मैं यहां था उस दौरान कार्य में डूबा हुआ था. आप अपनी सुविधा के अनुसार जब चाहें बापू के साथ चर्चा का आयोजन कर सकते हैं. मैं १५ जनवरी १९४८ को सबेरे भावनगर और मुंबई के लिए रवाना होनेवाला हूं.’

पत्र में छपी तारीखों में मैने जो बदलाव सुझाए हैं वे अपनी धारणा के अनुसार सुझाए हैं. सरदार का यह कथन यदि सचमुच २१ जनवरी को लिखा गया होता तो उसमें १५ जनवरी को यात्रा पर `निकलनेवाला हूं’ का उल्लेख न होता. इसके अलावा सरदार ने नेहरू से कहा कि बापू के साथ किसी भी तारीख को बैठक तय कीजिए (१५ से पहले)तब किसी को कल्पना नहीं थी कि गांधीजी हिंदू-मुस्लिम दंगों को शांत करने के लिए १३ जनवरी से आमरण उपवास पर बैठनेवाला हैं. (यह उपवास ६ दिन चला. गांधीजी ने १८ तारीख तक अनशन करने के बाद उपवास तोडा. गांधीजी के जीवन का वह आखिरी उपवास था. अनशन छोडने के केवल बारह दिन बाद ही उनकी हत्या हो गई).

सरदार द्वारा गांधी जी को लिखे लंबे पत्र में कई मुद्दे हैं. हर मुद्दे को संक्षेप में देखते हैं.

१. जवाहरलाल द्वारा आपको भेजे गए संदेश को मैने ध्यान से पढा है. उसकी प्रति उन्होंने मुझे भेजी थी.’

२. स्वभाव में अंतर के बारे में तथा आर्थिक मामलों और हिंदू-मुस्लिम संबंधों से जुड़ी बातों के बारे में अलग अलग दृष्टिकोण हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है….हमारे सामने आए कई तूफानों का हमने मिलकर पुरुषार्थ से सामना किया है….. अब हम इसे आगे बढाने की स्थिति में नहीं है ऐसा विचार करना दुखद और करूण भी है, लेकिन प्रधानमंत्री के अपने स्थान के बारे में उनकी भावना और एहसास की तीव्रता को मैं पूरी तरह समझता हूँ.

३. उस विषय पर वे जो कह रहे हैं उसे मैने समझने का भरसक प्रयास किया है, लेकिन लोकतंत्र और कैबिनेट की जिम्मेदार के आधार पर मैने पूरा प्रयास किया है लेकिन प्रधान मंत्री के कर्तव्यों और कार्यों के बारे में उनके विचारों से सहमत होने में मैं असमर्थ हूं.यदि उन विचारों को स्वीकार किया जाता है तो प्रधान मंत्री का दर्जा कमोबेश तानाशाह जैसा हो जाएगा, क्योंकि वे `जब और जिस तरह से अपना मन चाहे काम करने की पूर्ण स्वतंत्रता’ का दावा करते हैं. मेरे विचार से लोकतंत्र और कैबिनेट पद्धति से चलनेवाली सरकार के यह बिलकुल विरुद्ध है.

४. मेरे विचार से प्रधान मंत्री का स्थान सबसे ऊँचा है; वे समकक्षों में सर्वप्रथम (फर्स्ट अमंग इक्वल्स) हैं. लेकिन उन्हें अपने साथियों से ऊपर जाने का अधिकार नहीं है; यदि ऐसा अधिकार है तो कैबिनेट तथा कैबिनेट की जिम्मेदारी निरर्थक हो जाती है…

सरदार ने इतने मुद्दे लिखने के बाद नेहरू ने किस तरह से देशी राज्यों के विलीनीकरण की प्रक्रिया के दौरान गलत निर्णय लेने की हस्तक्षेपपूर्ण परंपरा का निर्माण किया उस बारे में सारा विवरण गांधीजी को दिया है. सरदार लिखते हैं कि:`(मेरी दी गई सलाहों से) प्रधान मंत्री को तकलीफ हो और वे क्षुब्ध हों ऐसा लगता है तथा अपना कर्तव्य निभाने में हस्तक्षेप लगता हो तो यह स्थिति लोकतांत्रिक सरकार के लिए पूरी तरह से असंगत है.’

सरदार अपनी इच्छा के अनुसार, मनमाने तरीके से देशी राज्यों को एकत्रित करने का काम कर रहे हैं और प्रधान मंत्री तथा मंत्रिमंडल से ऊपर होकर निर्णय ले रहे हैं- नेहरू के ऐसे गंभीर आरोपों को निराधार साबित करते हुए सरदार ने गांधीजी को लिखा:

`देशी राज्यों के मंत्रालय के काम करने के तरीकों का भी (नेहरू ने गांधीजी को लिखे पत्र में) उल्लेख किया गया है. मुझे ऐसा एक भी उदाहरण याद नहीं आ रहा है कि जिसमें अपने साथियों की अनुमति या समर्थन के बिना महत्वपूर्ण नीति पर कोई फैसला लिया गया हो. जिस एक उदाहरण में मैने कैबिनेट के निर्णय की अपेक्षा से काम किया वह उदाहरण उडीसा और छत्तीसगढ राज्यों के विलय का था; बाद में कोर्स भी चर्चा किए बिना मेरे कदम का समर्थन किया गया, यह तथ्य मेरी विवेकबुद्धि को यथार्थ साबित करता है. वह मामला स्पष्ट रूप से ऐसा था कि निर्णायक कदमों को टालने के गंभीर परिणाम मिलने का भय खडा हो जाता और हमारे हाथ से मौका निकल जाता तो शायद काफी प्रतीक्षा, मेहनत और सभी को काफी तकलीफ के बाद फिर मिल पाता.’

इस पत्र में सरदार अंत में लिखते हैं कि मतभेदों के कारण नेहरू ने त्यागपत्र देने की बात की है लेकिन यदि ऐसी स्थिति पैदा होती है कि `मेरे और उनके बीच चयन करना हो’ तो वह `उनके पक्ष में ही होना चाहिए….उनके (नेहरू के) पद त्याग करने का सवाल ही पैदा नहीं होता.’

यह पत्र लिखने के बाद गांधीजी के आमरण अनशन की घोषणा हुई. १३ जनवरी १९४८ के दिन इस बारे में सरदार द्वारा गांधीजी को लिखे पत्र में क्या लिखा यह जानने जैसा है. कल जारी.

आज का विचार

भटक जाने का है एक ही लाभ,

कई रास्तों से परिचय हो जाता है.

– अमित व्यास

एक मिनट!

रिक्शावाले को `कहां जाना है’ यह समझा कर थक चुके बका ने उबर मंगाई. अब उबरवाले को यह समझाने में माथापच्ची होती है कि `कहां आना है’!

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