(फाल्गुन, कृष्ण षष्टी, विक्रम संवत २०७८, बुधवार, २३ मार्च २०२२)
कांग्रेस ने जिसे पाल पोसकर विकराल किया उन वामपंथियों की इकोसिस्टम को इस बात से परेशानी नहीं है कि `कश्मीर फाइल्स’ २०० करोड तो क्या ३०० या ४०० करोड का बिजनेस कर लें. उसे परेशानी इस बात की है कि इस फिल्म के कारण कॉंग्रेस+आतंकवादियों+मीडिया+शिक्षाविदों की चांडाल चौकडी की सांठगांठ १४० करोड जनता तक रातों रात उजागर हो गई है.
एक फिल्म के रूप में, एक सिनेमा या एक मूवी के रूप में तो `कश्मीर फाइल्स’ का महत्व है ही. कश्मीरी हिंदुओं की व्यथाकथा का सत्यकथन हम तक पहुंच सका, यह इस फिल्म का बहुत बड़ा योगदान है. अभी तक गुलजार की `माचिस’ में या कुणाल कोहली की `फना’ में या विशाल भारद्वाज की `हैदर’ में पंजाबी/ कश्मीरी आतंकवादियों को एक या दूसरी तरह से जस्टीफाई किया गया.
राहुल पंडिता की पुस्तक `आवर मून हैज ब्लड क्लॉट’ से सिलेक्टिव मटीरियल लेकर अपना मसाला मिलाकर विधु विनोद चोपड़ा ने `शिकारा’ जैसी `बैलेंस्ड’ और `तटस्थ’ फिल्म बनाई जिसमें `बीती ताही बिसार दे, आगे की सुधि ले’ जैसी पृष्ठभूमि के साथ आतंकवादियों को दुलारा गया.
अधिकांश बॉलीवुडिया करते क्या हैं कि मूल पुस्तक के अधिकार लेकर उसमें से वनलाइनर पकड कर, कुछ अन्य क्रिएटिव बातें लेकर, और फिर उसमें अपना तैयार पाव-भाजी मसाला डालकर मूल कृति की आत्मा पर स्टीम रोलर चला देते हैं. मूल लेखक की रचना का कबाडा हो जाता है
एक और बात. हिन्दी फिल्मकारों में तथा अन्य कलाकारों में यह एक बहुत बड़ा लक्षण देखने को मिलता है. कोई पुस्तक, उपन्यास पसंद आता है तो उसके प्रति वफादारी रखते हुए, उसके केंद्रीय विचार को नुकसान न पहुंचे, इस तरह से उसे फिल्म या वेबसिरीज़ या टीवी सिरियल के माध्यम में उतारना होता है. लेकिन अधिकांश बॉलीवुडिया करते क्या हैं कि मूल पुस्तक के अधिकार लेकर उसमें से वनलाइनर पकड कर, कुछ अन्य क्रिएटिव बातें लेकर, और फिर उसमें अपना तैयार पाव-भाजी मसाला डालकर मूल कृति की आत्मा पर स्टीम रोलर चला देते हैं. मूल लेखक की रचना का कबाडा हो जाता है. संजय लीला भणसाली अच्छे रचनाकार हैं. इसके बावजूद उन्होंने शरदबाबू के `देवदास’ का कैसा कबाडा कर दिया यह हम सभी ने देखा है. (फिल्म हिट हो जाने से पाप धुल नहीं जाते). संजय ने ही गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी की अमर कृति `सरस्वतीचंद्र’ पर आधारित जो टीवी धारावाहिक बनाया था, उसकी धज्जियां उडाने वाला एक पूरा लेख मेरे `मुंबई समाचार’ के स्तंभ में आठ-दस साल पहले लिखकर इतने बड़े कल्पनाशील व्यक्ति को मुझे झकझोरना पडा था. विधु विनोद चोपड़ा ने भी राहुल पंडिता की पुस्तक के साथ ऐसा ही किया.
अभी तक की हिंदी फिल्मों में कभी अंगुलीनिर्देश करके नहीं कहा गया है कि इन दंगों में मुस्लिमों का हाथ किस तरह से था. कॉन्ग्रेस या अन्य राजनीतिक दलों का कितना हाथ था.
अभी तक की हिंदी फिल्मों में कभी अंगुलीनिर्देश करके नहीं कहा गया है कि इन दंगों में मुस्लिमों का हाथ किस तरह से था. कॉन्ग्रेस या अन्य राजनीतिक दलों का कितना हाथ था. यदि ऐसे विषय पर फिल्म बनती है तो या फिर बैलेंसिंग की जाएगी और मोटे तौर पर सारी गलती केसरिया कपडे या काली टोपी धारण करनेवाले पात्रों की ही निकाली जाएगी. आरएसएस, वीएचपी, बजरंगदल और भाजपा जैसी अति पवित्र, अतिनिष्ठावान और शत प्रतिशत राष्ट्र के हित में काम करनेवाली संस्थाएँ, संगठन तथा राजनीतिक दलों को हिंदी सिनेमा वाले हमेशा टार्गेट करते आए हैं- और वह भी अत्यंत गलत तरीके से, बिलकुल असत्य बातों का आश्रय लेकर. ऐसी ही एक बदमाश फिल्म `परजानिया’ (२००५)याद आती है जिसमें इतना सारा जहर भरा था कि गुजरात में उस पर जब प्रतिबंध लगाया गया था. सेंसर बोर्ड ने जिसे सर्टीफिकेट दिया हो, ऐसी किसी भी फिल्म पर प्रतिबंध नहीं लगाया जाना चाहिए, ऐसा मेरा मानना है. `परजानिया’ गुजरात में जब बैन हुई तब उसी दौरान अहमदाबाद में रहकर मैं काम कर रहा था. यह फिल्म देखने के लिए मैं खास `मुंबई’ आया और बांद्रा की गेईटी-गैलेक्सी से जुडे छोटे थिएटर `जेमिनी’ में वह देखी. गोधरा हिंदू हत्याकांड की घटनाओं को फिल्म में बिलकुल उल्टी तरह से चित्रित किया गया था. अत्यंत निकृष्ट मानसिकता से बनाई गई इस फिल्म में सत्य एक छटांक भर भी नहीं था. कपोलकल्पित घटनाओं से युक्त फिल्म को सत्य घटना पर आधारित है, यह दर्शकों के मस्तिष्क में ठूंसने की कोशिश करनेवाली इस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने क्यों पास किया, यही प्रश्न सर्वप्रथम उठता है. मेरे हिसाब से उसे गुजरात में ही नहीं बल्कि पूरे देश में बैन किया जाना चाहिए था. लेकिन उस समय भारत पर सोनिया सेना का कब्जा था. कभी मुस्कुराते हुए नहीं दिखनेवाले गूंगे मनमोहन सिंह, यासीन मलिक से मिलकर मुस्कुरा रहे हैं, ऐसी तस्वीरें चारों तरफ छप रही थीं, ऐसा जमाना था वह. `परजानिया’ देखने के बाद लगा कि ऐसी देशद्रोही फिल्म येनकेन प्रकारेण सेंसर बोर्ड की आंखों में धूल झोंककर सर्टिफिकेट ले भी आए तब भी उस पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए. अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की बात अलग है. `परजानिया’ में तो अभिव्यक्ति की स्वच्छंदता थी.
`कश्मीर फाइल्स’ की टीम ने ऐसी कोई बदमाशी नहीं की है.
कॉन्ग्रेस और मीडिया ने देखा कि अभी तक जो चली आ रही उनकी चालबाजी उजागर हो गई है. अभी तक मुट्ठी भर जेनुइन पत्रकार-लेखक-विश्लेषक इस ईको सिस्टम को चलानेवाली चांडाल चौकडी की टीका करते थे. लेकिन `कश्मीर फाइल्स’ आने के बाद भारत के बच्चे बच्चे को पता चलने लगा कि सेकुलर टोली के गैंगस्टर पिछले छह-सात दशकों से किस तरह भारत की जनता को गुमराह कर रहे हैं. अभी भी उनका यह खेल थमा नहीं है. लेकिन अब जनता जाग चुकी है. इस फिल्म के कारण जागृत हो गई है. बस, यही बात लिब्रांडुओं को खटक रही है.
भविष्य में `कश्मीर फाइल्स’ फिल्म का स्थान भारत की १०० देखने लायक फिल्मों होगा या नहीं ये तो नहीं पता लेकिन भारतीय राजनीति के इतिहास में यह फिल्म एक वॉटरशेड मानी जाएगी. एक जबरदस्त टर्निंग पॉइंट मानी जाएगी, एक बडा माइलस्टोन मानी जाएगी. भारत की फिल्में ही नहीं, भारत के साहित्य-पत्रकारिता-शिक्षा इत्यादि क्षेत्रों में आगामी वर्षोंमें जबरदस्त बदलाव आएगा और इस परिवर्तन के बाद प्री `कश्मीर फाइल्स’ एरा और पोस्ट `कश्मीर फाइल्स’ एरा जैसे पदों का उपयोग होने लगेगा. यह आप लिख लीजिएगा. ऐसी क्रांति के लिए लाखों-करोडो लोगों की भागीदारी आवश्यक होती है, उसके बिना यह संभव नहीं है, लेकिन ऐसे करोडो लोगों के आगे मशाल लेकर पथप्रदर्शन करने का मूलभूत काम का यश `कश्मीर फाइल्स’ को ही दिया जाना चाहिए. लिबरल ईको सिस्टम वाली चांडाल चौकडी के पेट में जो खौलता हुआ तेल उंडेला गया है, उसका कारण यही है.
फिल्म में एक जगह धारा ३७० हटने के बाद भी कश्मीर में आग भडकाने का प्रयास करनेवाली गैंग लीडर प्रो. राधिका मेनन कहती है:`सरकार भले ही उनकी (भाजपा की) हो, (ईको) सिस्टम तो हमारा है’.
एक तरफ टाइम्स नाव इत्यादि चैनल बहती गंगा में हाथ धोने के लिए टीआरपी गेम में आगे निकलने केलिए चौबीसों घंटे `कश्मीर फाइल्स’ `कश्मीर फाइल्स’ करके हिंदुओं को खुश करने में लगे हैं…और दूसरी ओर `कश्मीर फाइल्स’ को बदनाम करने के लिए लेफ्टिस्ट ईको सिस्टम चारों दिशाओं से हमला कर रहे हैं
वामपंथियों की नींद हराम हो गई है क्योंकि अब उनका यह ईको सिस्टम विधिवत ध्वस्त हो रहा है. (हमें तो उसकी आवाज सुनाई दे रही है, क्या आपको सुनाई दे रही है? इस ध्वस्त हो रही विशाल, कद्दावर, राक्षसी ईको सिस्टम की धराशायी होती इमारत के मलबे की धूल भी हम तक पहुंचने लगी है).
वे सभी जान की बाजी लगा रहे हैं. एक तरफ टाइम्स नाव इत्यादि चैनल बहती गंगा में हाथ धोने के लिए टीआरपी गेम में आगे निकलने केलिए चौबीसों घंटे `कश्मीर फाइल्स’ `कश्मीर फाइल्स’ करके हिंदुओं को खुश करने में लगे हैं (अच्छा ही है, ऐसे अवसरवादी अल्टीमेटली इस फिल्म को तीन सौ करोड क्लब में एंट्री दिलाएंगे) और दूसरी ओर `कश्मीर फाइल्स’ को बदनाम करने के लिए लेफ्टिस्ट ईको सिस्टम चारों दिशाओं से हमला कर रहे हैं.
जिस फिल्म ने प्रचार के पीछे जरा भी पैसा खर्च नहीं किया, पैसे थे ही नहीं तो खर्च कहां से करेगी. जिस फिल्म का बजट बॉलिवुड के बडे प्रोड्यूसरों की फिल्म के प्रमोशन बजट जितना था, उस फिल्म का प्रचार भारत के लाखों-कराडों दर्शक कर रहे हैं.
लेकिन जाको राखे साइयां, मार सके ना कोय. `कश्मीर फाइल्स’ का भगवान भारत की करोडो जनता बन गई है. इतना विशाल स्वयं भू आंदोलन मैने कभी अपनी जिंदगी में नहीं देखा. महज दो सौ स्क्रीन्स पर रिलीज़ हुई फिल्म शनि रवि के अलावा अन्य दिनों में भी सुबह के समय, दोपहर के शो में हाउसफुल होने लगी, दो हजार स्क्रीन्स करने पडे, तो भी कम पड़ रहे हैं, टिकट मुश्किल से मिल रही है, लोग एक दूसरे को फोन करके, समूह बनाकर टिकट खिडकी पर लाइन लगा रहे हैं. जिस फिल्म ने प्रचार के पीछे जरा भी पैसा खर्च नहीं किया, पैसे थे ही नहीं तो खर्च कहां से करेगी. जिस फिल्म का बजट बॉलिवुड के बडे प्रोड्यूसरों की फिल्म के प्रमोशन बजट जितना था, उस फिल्म का प्रचार भारत के लाखों-कराडों दर्शक कर रहे हैं. दर्शकों के ऐसे ज्वार को परखते हुए रह रहकर कई हिंदी फिल्म वाले भी `कश्मीर फाइल्स’ के निर्माताओं को अभिनंदन देने लगे हैं. लेकिन वे फूंक फूंक कर कदम आगे बढ़ा रहे हैं-फिल्म के कंटेंट नहीं, फिल्म की सफलता का बखान कर रहे हैं, चलो इतना ही सही. इसके बावजूद अब भी जिनके नाम टॉप हंड्रेड में माने जाते हैं, ऐसे अभिनेता-अभिनेत्री निर्माता-निर्देशक इत्यादि तो चुप ही हैं. ये लोग भी कभी न कभी लेफ्टिस्ट ईको सिस्टम के खौफ से बाहर आएंगे.
सोनिया सरकार में एनडीटीवी को अपनी सिल्वर जुबिली मनाने के लिए पूरा का पूरा राष्ट्रपति भवन दे दिया गया था. इन लोगों की ऑडेसिटी तो देखिए आप! आज जिनके पेट में दर्द हो रहा है, यानी एनडीटीवी का एक एंकर ट्वीट करता है कि भूतकाल में कभी देश के प्रधान मंत्री ने किसी फिल्म को प्रमोट नहीं किया है, और देखो मोदी `कश्मीर फाइल्स’ का प्रचार कर रहे हैं!
`सी.एम. साहब को -गोल्फ खेलने से और बॉलिवुड की हिरोइनों को बाइक पर बिठाकर घुमाने से फुर्सत मिले तो ना.’
`कश्मीर फाइल्स’ का यह संवाद सुनकर जे एंड के के मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला १९८० के दशक में शबाना आजमी (जावेद अख्तर की बेगम) की बाइक की पिछली सीट पर बिठाकर घूमते थे, यह तस्वीर आपको याद आ जाती है. फिल्म में ऐसी छोटी छोटी सच्चाइयॉं बडी सुंदरता से समाहित की गई हैं. बाय द वे, फारुख पुत्र ओमर भी पिता-दादा के पद चिन्हों पर चलकर सी.एम. बना. बने भी क्यों नहीं? नेहरू ने कश्मीर को अब्दुल्ला परिवार की जागीर मानकर सौंप जो दिया था. इस छोटे अब्दुल्ला ने किसी जमाने में एन.डी.टी.वी. की सुंदर एंकर निधि राजदान के साथ छिपे तौर पर शादी की थी या फिर उसका कोई चक्कर था, लेकिन यह सार्वजनिक बात है, गॉसिप नहीं है. एन.डी.टी.वी. वालों को `कश्मीर फाइल्स’ से (और वैसे भी भारत की प्रगति से, मोदी से, हिंदुओं से) क्या शिकायत है, यह बात अब आप समझ सकते हैं. एनडीटीवी के मालिक प्रणव रॉय की सगी बहन बृंदा करात कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य है, प्रणव रॉय का बहनोई प्रकाश करात दस वर्ष तक कम्युनिस्ट पार्टी का जनरल सेक्रेटरी (यानी मुखिया) था. बृंदा ने भाई के चैनल पर स्वामी रामदेव के पतंजलि योगपीठ तथा दिव्य फार्मसी की पवित्रतम गतिविधियों को बदनाम करने के लिए आकाश पाताल एक कर दिया गया था. ये सारा लिब्रांडु गैंग खुलेआम दादागिरी करता रहा है. सोनिया सरकार में एनडीटीवी को अपनी सिल्वर जुबिली मनाने के लिए पूरा का पूरा राष्ट्रपति भवन दे दिया गया था. इन लोगों की ऑडेसिटी तो देखिए आप! आज जिनके पेट में दर्द हो रहा है, यानी एनडीटीवी का एक एंकर ट्वीट करता है कि भूतकाल में कभी देश के प्रधान मंत्री ने किसी फिल्म को प्रमोट नहीं किया है, और देखो मोदी `कश्मीर फाइल्स’ का प्रचार कर रहे हैं!
यासीन मलिक के साथ ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे तोडेंगे गानेवाले मनमोहन सिंह का तूने क्या उखाड़ लिया? तब तो तेरा कर्तव्य था-पीएम की खबर लेने का. प्राइम टाइम में इस कृत्य के लिए पीएम की कड़ी आलोचना करने का चान्स मिला था तुझे…फिल्म में मीडिया को आतंकवादियों की रखैल कहा जाना भी एक सौ एक प्रतिशत सच है
इन लोगों की एकदम से जल गई है. मोदी ने `कश्मीर फाइल्स’ का प्रचार नहीं किया है लेकिन मान लीजिए किया भी हो तो भई तू अपनी गिरेबान में झांककर देख.भविष्य में आनेवाली ऐसी एक हजार फिल्मों का प्रचार भी मोदी करेंगे. तू उनका क्या बिगाड़ लेगा? यासीन मलिक के साथ ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे तोडेंगे गानेवाले मनमोहन सिंह का तूने क्या उखाड़ लिया? तब तो तेरा कर्तव्य था-पीएम की खबर लेने का. प्राइम टाइम में इस कृत्य के लिए पीएम की कड़ी आलोचना करने का चान्स मिला था तुझे. और तू मोदी पर उंगली उठा रहा है? एनडीटीवी के आगे लोग R लगाते हैं, वह सच ही है और फिल्म में मीडिया को आतंकवादियों की रखैल कहा जाना भी एक सौ एक प्रतिशत सच है.
कश्मीरी हिंदू ही नहीं, हममें से हर किसी की परिस्थिति की झलक आप इस फिल्म में देख सकते हैं. पुष्करनाथ के चार मित्र हैं-ब्रह्मदत्त, (जो आईएएस अधिकारी है), विष्णु राम (जो पत्रकार है), डॉ. महेश कुमार और हरि नारायण (डीजीपी). पहले दो बार फिल्म देखने पर यह बात ध्यान में नहीं आई थी बल्कि तीसरी बार (हां, तीसरी बार देखी. वह शो खत्म होने के बाद जानेमाने फिल्मकार अशोक पंडित ने जो दो मिनट का उद्बोधन किया था उसे रेकॉर्ड करके न्यूज़प्रेमी के यूट्यूब चैनल पर डाला है ) तब ध्यान में आया कि ब्रह्म, विष्णु और महेश को पुष्करनाथ का मित्र बनाया गया है. ये मित्र जनवरी १९९० के पहले से पुष्करनाथ के साथ उठते बैठते थे, हर रविवार की शाम पुष्करनाथ की पुत्रवधु द्वारा बनाए गए व्यंजनों डिनर करने जाना उनका नित्यक्रम था. पुष्करनाथ के घर ताश का खेल जमता. १९ जनवरी १९९० को पुष्करनाथ द्वारा अपना पुत्र खोने के बाद शेष बचे परिवार के साथ कश्मीर से स्थलांतर करके जम्मू के रेफ्यूजी कैंप में आना पड़ा. पुष्करनाथ सारी जिंदगी आर्टिकल ३७० को हटाने के लिए और विस्थापितों के पुनर्वसन के लिए लडते रहे. उन्होंने इस संबंध में ६००० पत्र देश के प्रधान मंत्री को लिखे. विधि का विधान देखिए कि बुढ़ापे में डिमेंशिया के कारण पुष्करनाथ को यह पता ही नहीं चला कि मोदी ने ५ अगस्त २०१९ को संसद में बहुमत से संविधान संशोधन करके धारा ३७० हटा दी है और अगले ही दिन राष्ट्रपति ने भी उस पर स्वीकृति की मुहर लगा दी है. वास्तविकता और कल्पना के बीच का अंतर जहां खत्म हो जाता है और स्मृति बिखर जाए, ऐसी मानसिक स्थिति को डिमेंशिया कहते हैं. जिस बजाज स्कूटर को तीस साल पहले कश्मीर में छोड आए थे उसे याद करके पुष्करनाथ मृत्युशैया पर लेटे लेटे पौत्र कृष्णा को सूचना देते हैं कि उसका इंजिन फर्स्टक्लास होगा, आठ हजार किलोमीटर ही तो चला है, उसे रिपेयर करवाने की जरूरत भी नहीं पडेगी लेकिन तू नया कलर करवा लेना… तीस साल पुराना स्कूटर!
इंसान की जिंदगी में कभी ऐसी आपदा आती है जब सृष्टि के कर्ताधर्ता स्वरूप भगवान-ब्रह्मा, विष्णु, महेश और हरि भी उनकी कोई मदद नहीं कर सकते. इसके बावजूद उसे लड़ना होता है.
पुष्करनाथ मोतिया का ऑपरेशन करवाने के बाद महंगा लेंस लेने के बदले सस्ते लेंस काम चलाते हैं-डायबिटीज़, बीपी के कारण अंधत्व का जोखिम होने के बावजूद. एक वक्त का भोजन छोडकर पार्ले-जी चाटकर भूख मिटाते हैं लेकिन पिता विहीन पौत्र को भारत की शीर्षस्थ युनिवर्सिटी में दाखिला दिलाकर महंगी फीस, हॉस्टल का खर्च, पुस्तके और अन्य छोटे मोटे तमाम खर्च उठाते हैं. इस समय उनके चार जिगरी ब्रह्मा, विष्णु और महेश और हरि कहां हैं? तीस साल की अवधि में इन चारों में से किसी ने भी पुष्कारनाथ जीवित है या नहीं इसकी पडताल तक नहीं की. (केवल एक बार ब्रह्मदत्त ने पुष्करनाथ को रिफ्यूजी कैंप में अनायास ही देख लिया था और पुत्र वधु को नौकरी दिलाकर उसका पुनर्वसन करने में मदद करते हैं. उस समय पुष्करनाथ स्मृतिभ्रंश होने के कारण ब्रह्मदत्त को पहचान नहीं पाते). पुष्करनाथ जैसी पवित्र आत्मा को, जिसने अपने समाज के लिए, अपनी कौम के लिए खुद को मिटा दिया-उसकी बदकिस्मती के तीन दशकों में उसकी जिंदगी के ब्रह्मा, विष्णु, महेश और हरि के रूप में आए मित्र भी उसकी कोई सहायता नहीं कर सके थे, उनके साथ संपर्क भी बिलकुल टूट जाता है.
इंसान की जिंदगी में कभी ऐसी आपदा आती है जब सृष्टि के कर्ताधर्ता स्वरूप भगवान-ब्रह्मा, विष्णु, महेश और हरि भी उनकी कोई मदद नहीं कर सकते. इसके बावजूद उसे लड़ना होता है. पार्ले-जी चाटकर भी लड़ना होता है. लड़ते लडते खुद को खपा देना होता है. धारा ३७० हटने की घटना से बेखबर होने बाद भी काम तो जारी ही रखना होता है. पुष्करनाथ को इस बात का आभास था कि उनके हजारों पत्रों की प्रतिक्रिया के रूप में प्रधान मंत्री जब धारा ३७० हटाएंगे तब पीएम दिल्ली बुलाकर शाबासी देंगे. लेकिन पुष्करनाथ गुमनामी में ही गुजर जाते हैं. उनकी अस्थियां लेकर कृष्णा को देखकर चारों मित्रों को अफसोस होता है कि तीस-तीस साल तक हममें से किसी ने भी पुष्करनाथ को खोजने का प्रयास क्यों नहीं किया. संभव है कि ये चारों यदि पुष्करनाथ के साथ रहे होते तो आज पुष्करनाथ प्रधान मंत्री के साथ तस्वीरों में दिखते.
लेकिन इन चारों के सामने कोई न कोई कारण रहा होगा. वे तो खुद ही जीने के लिए संघर्ष कर रहे होंगे और अपनी आजीविका, अपने परिवार की सुरक्षा बनाए रखने के प्रयास में क्रमश: पुष्करनाथ को भूल गए होंगे.
पुष्करनाथ ने जो किया उसे हम अपने जीवन में उतारें. पिछले सप्ताह प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा:`आप ये प्रार्थना जरूर करिएगा कि भविष्य में आपको कोई आसान काम ना मिले. चैलेंजिंग जॉब का आनंद ही कुछ और होता है. आप जितना कम्फर्ट जोन में जाने की सोचेंगे, उतना ही अपनी प्रगति और देश की प्रगति को रोकेंगे.’
साहब के लिए जेएनयू का नाम एसवीपीयू करना आसान था. लेकिन उन्होंने जनता के कई सारे मुखर वर्गों के तानों को सहकर इंतजार किया. सबसे पहले तो एक प्रतीक के रूप में, जेएनयू वालों के विरोध के बीच, कैंपस में स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा स्थापित की. और फिर नाम बदलने या लेबल चेंज करने से कुछ नहीं होगा-इन शिक्षा संस्थानों की आत्मा बदलनी पडेगी, ऐसी दूरदर्शिता के साथ पुराने वाईस चांसलर की अवधि खत्म होने तक इंतजार किया और पिछले महीने १५ फरवरी २०२२ को उन्होंने अपनी अनूठी शैली में जेएनयू पर सर्जिकल स्ट्राइक की. नई वाइस चांसलर के रूप में जेएनयू में पढी (कोई कैसे विरोध कर सकता है!) पीएचडी कर चुकीं महिला प्रोफेसर (इस पर भी कोई कैसे आपत्ति उठा सकता है!) शांतिश्री डी. पंडित को स्थानापन्न किया. प्रो. पंडित पहले ट्विटर पर लिबरलों को `मेंटली इल जिहादी’ और जेएनयू के वामपंथी आंदोलनजीवियों को `नक्सल जेहादी’ कह चुकी हैं. पूर्णतया भगवे रंग में रंगी जेएनयू की नई वाइस चांसलर ने आते ही घोषित किया `…भारत को केंद्र में रखकर पाठ्यक्रम निर्धारित करने के प्रधान मंत्री के विजन` को वे अमल में लाएंगी.
अगले एक दशक के दौरान जेएनयू की कायापलट, आत्मापलट होते हम सभी देख सकेंगे. प्रधान मंत्री के इस निर्णय के एक महीने बाद रिलीज़ हुई `कश्मीर फाइल्स’ के परिणामस्वरूप एक दशक के दौरान एजुकेशन ही नहीं, मीडिया में, फिल्मों में और कला-संस्कार जगत सहित राजनीति में भी बहुत कुछ बदलनेवाला है.
(क्रमश)
बहोत खूब और बढ़िया विश्लेषण। प्रत्येक देशभक्त राष्ट्रवादी हिंदू नागरिक को पूरा लेख पढ़ना चाहिए।
🇮🇳🚩🕉️वंदे मातरम। भारत माता की जय। 🇮🇳🚩🕉️