गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह
(मुंबई समाचार, शनिवार – १७ नवंबर २०१८)
अभी मेरे हाथ में दो किताबें हैं. एक है डॉ. काशीनाथ घाणेकर की वह बायोग्राफी जो कांचन काशीनाथ घाणेकर ने १९८६ में पति की मृत्यु के ३-४ साल बाद लिखी और जिसकी दूसरी आवृत्ति भी प्रकाशन के करीब चार महीने बाद प्रकाशित हुई. `नाथ हा माझा…’ के अलावा दूसरी पुस्तक है डॉ. श्री राम लागू की जीवनी `लमाण’ जिसकी पहली आवृत्ति २००४ में प्रकाशित हुई थी.
डॉ. काशीनाथ घाणेकर और डॉ. श्रीराम लागू के बीच मराठी रंगभूमि पर जो ऐतिहासिक महायुद्ध खेला गया उसकी बात हम वहीं तक सीमित रखेंगे जितनी `…आणि काशीनाथ घाणेकर’ फिल्म में ली गई है. लेकिन उससे पहले सूरत से एक पाठक ने इस फिल्म के बारे में लिखी जा रही श्रृंखला को पढकर जो मजेदार प्रतिक्रिया भेजी है उसे आपके साथ साझा करना चाहता हूँ:
`आपकी लेखमाला से प्रेरित होकर कल सूरत के पीवीआर सिनेमा में इस अद्भुत फिल्म का आनंद लिया. ४०-५० दर्शकों के बीच लिया गया यह भव्य-दिव्य अनुभव लंबे समय तक याद रहेगा. एक अमिट छाप छोडनेवाले आदर्श व्यक्ति तो नहीं किंतु टैलेंटेड व्यक्ति बनने की प्रेरणा देनेवाला आखिरी सीन तो गजब का था. ऐसी फिल्म देखने को मजबूर करनेवाली उत्कंठा जगाने के लिए आपका धन्यवाद. यहां सूरत के पीवीआर सिनेमा के संचालकों का खासतौर से धन्यवाद जो सिर्फ ४०-५० दर्शकों के लिए भी शायद नुकसान सहकर इस शो को जारी रखे हुए हैं. शायद उन्हें ऐसा लगा होगा कि: उसमें क्या है….! कुल मिलाकर एकदम कड्डक!’
कुछ फिल्में दिमाग पर इस कदर छा जाया करती हैं कि उनका नशा उतरता हीं नहीं. आज से २० वर्ष पहले जब `सत्या’ थिएटर में लगी तब बारह से तीन का पहला शो देखने के बाद दिमाग में जो घमासान मचा, वह फिल्म देखकर बाहर निकलने के बाद भी चलता रहा. तीन बजे खाते खाते उसी की चर्चा होती रही और तुरंत तय किया कि छह से नौ के शो में फिर से जाना है. गए भी. ऐसा ही उसके दो साल बाद आई कमल हासन की फिल्म `हे राम’ को लेकर हुआ. उसी दिन दो शो देखने पडे. इम्तियाज अली की `लव:आज-कल’ थिएटर में दौ बार देखी. नवीं बार तो टिकट विंडो पर कहा गया कि एक भी टिकट नहीं बिका है इसीलिए शो कैंसल करना होगा. पूछा कि मिनिमम कितनी टिकटें बिकें तो शो करना पडेगा? जवाब मिला: दो. मैं अकेला ही था. मैने दो टिकट खरीदकर शो चार्टर्ड कर लिया. इतने सस्ते भाव में प्रायवेट शो किसी ने नहीं किया होगा. `फैन’ और `संजू’ भी थिएटर में चार-पांच बार देखी. इतना ही नहीं ये फिल्में एक ही दिन में दो दो बार देखनी पड जाएं इतनी सिर पर सवार हो गई थीं. `….आणि काशीनाथ घाणेकर’ पहली बार देखने के बाद चार-पांच दिन में एक ही दिन में लगातार दो बार देखनी पडी तब जाकर संतोष हुआ. शायद अब देखूंगा. ऐसी सारी और अन्य पसंदीदा फिल्में तो घर में डीवीडी पर डिस्क घिस जाने तक देखी है. `संजू’ की डीवीडी अभी नहीं आई है, लेकिन अमेजॉन प्राइम पर देखने को मिलती है.
किसी ने लिखा था कि अ बुक कैन नॉट बी रेड, इट शुड बी री-रेड. जो पुस्तक आपको अच्छी लगती है उसे जब आप दूसरी बार पढें तभी ऐसा मानना चाहिए कि आपने उसे पढ लिया है. यही बात फिल्मों के बारे में भी कही जा सकती है. पहली बार पुस्तक पढते समय या फिल्म देखते समय इतनी उत्कंठा होती है कि अब आगे क्या होगा, आगे क्या होगा के खयाल में ही उसकी बारीक कारगरी पर ध्यान कम जाता है. सचमुच में अच्छी बुक या अच्छी फिल्म जितनी बार पढिए-देखिए उतनी बार उसमें से नए नए न्युएंसेस, नए एंगल्स, नए नए निहितार्थ मिलते हैं और कभी कभी ऐसे तमाम सीप-मोती मिलने के बाद इतने अभिभूत हो जा्ते हैं कि वह खजाना हमारे पास आ चुका है ऐसी संतुष्टि आपको उस बुक – फिल्म के पास फिर से एक बार जाने के लिए मजबूर करती है.
डॉ. श्रीराम लागू और डॉ. काशीनाथ घाणेकर- दोनों के व्यक्तित्व भिन्न, दोनों का अभिनय के प्रति नजरिया अलग और दोनों की जीवनशैली भी जुदा थी. घाणेकर ५६ वर्ष की उम्र में चल बसे. घाणेकर से उम्र में ३ वर्ष सीनियर श्रीराम लागू ९० वर्ष की आयु में हमारे बीच हैं, पार्किंसन्स के कारण ऐक्टिव नहीं है लेकिन वे हमारे बीच सशरीर जीवित हैं, यह भी हमारे संतोषजनक बात है. `…आणि काशीनाथ घाणेकर’ में एक सीन है. डॉ. लागू को वी. शांताराम की एक अत्यंत प्रसिद्ध फिल्म `पिंजरा’ के सेट पर एक पत्रकार ने डॉ. घाणेकर से उनकी स्पर्धा के बारे में सवाल पूछा जिसके जवाब में डॉ. लागू कहते हैं: दुनिया में रंगरेज होता है और चित्रकार भी होता है. रंगरेज आपको मनचाहे रंग से कपडे सुंदरता से रंग कर देता है. चित्रकार अपने पसंदीदा रंग लेकर चित्र में एक सृष्टि खडी करके आपको सृष्टि की ओर खींच ले जाता है.
अत्यंत महीन बात है. समझने योग्य बात है. इन दोनों अभिनेताओं की शैली के बीच जो मूलभूत भेद है, जिसके कारण दोनों एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी माने जाने लगे (लोकप्रिय तो दोनों हुए, अभिनय क्षमता दोनों की ही सराही गइ, लेकिन दोनों अप्रोच अलग अलग था इसीलिए वे राइवल्स बने).
यही बात अधिक स्पष्ट करने के लिए फिल्म में एक दूसरा सीन है जिसमें एक कॉकटेल पार्टी में दोनों अभिनेता आए हैं. काशीनाथ को चढ चुकी है. वह कुर्सी पर खडे होकर डॉ. लागू की फिरकी लेने लगते हैं: `आजकल एक नए प्रकार की अभिनय शैली बाजार में प्रचलित हुई है- यथार्थवादी शैली, जिसमें आप खुशी में हों या प्रेम में टूट चुके हों या फिर किसी भी अच्छी – बुरी परिस्थिति से गुजर रहे हों, चेहरे पर एक ही भाव रखना चाहिए, भाव में अंतर नहीं लाना चाहिए. सब कुछ आपके अंदर होता रहता है, दर्शक खुद समझ लें!’
घाणेकर कहते हैं: ऐसा `यथार्थवादी अभिनय’ करनेवालों को दर्शकों की भीड के बीच तालियों और सीटियों के बीच अभिनय करने की किक कैसी होती है उसका पता कैसे चलेगा? उनके शो में तो खाली कुर्सियों के सामने ही एक्टिंग की जाती है.
डॉ. श्रीराम लागू ने भी हाथ में गिलास पकडा है लेकिन वे होश में हैं. किसी प्रशंसक ने उन्हें कुर्सी पर चढकर जवाब देने के लिए कहा लेकिन ऐसी बहादुरी दिखाने के बजाय वे खुद जहां खडे हैं वही से खडे रहकर जवाब देते हैं: स्टेज पर एंट्री लेने से पहले दीवार के सामने चिल्ला कर, स्नायुओं और पैरों को खींचकर घसीटती हुई चाल से स्टेज पर आकर इस सिरे से उस सिरे तक दौड भाग करके स्पॉटलाइट के सामने देखर फटाफट उतार चढाव के साथ संवाद फेंकना चाहिए जिससे कि तालियां मिलें, इसी को अभिनय क्षमता मानने वाले लोग भी इस नाट्य जगत में हैं. लेकिन कला के इस माध्यम को जीवंत रखने के लिए ५०० अज्ञानी दर्शकों की भीड नहीं १५ जानकार भावप्रवण दर्शकों की जरूरत होती है.
अभिनय के लिए बिलकुल दो विपरीत विचारधाराओं के चलते दोनों महान कलाकारों के बीच जो चिनगारियां उडीं उनके कारण एक सामान्य दर्शक के रूप में मेरे मन में जो प्रकाश हुआ उसकी बात करना अभी बाकी है. सोमवार को.
आज का विचार
`प्रवाह के साथ तो सभी चलते हैं. प्रवाह के विरुद्ध चलें तो जीवन में कुछ बनता है…’
मैं इतनी बात समझा सकूं कि इससे पहले ही ट्रैफिक पुलिस ने रसीद बनाकर पावती मेरे हाथ में रख दी.
– वॉट्सएप पर पढा हुआ
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