गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह
(मुंबई समाचार, बुधवार – १४ नवंबर २०१८)
पसंदीदा काम में विफलता मिलने की तुलना में नापसंद काम में सफलता मिलने पर अधिक तकलीफ होती है.
यह वाक्य दो बार पढकर आगे बढिएगा. `..आणि काशीनाथ घाणेकर’ का यह यादगार संवाद है. जिंदगी है, जिंदगी को टिकाए रखने के लिए आदमी को पसंद-नापसंद कई काम करने पडते हैं. पसंदीदा काम में सफलता पाने की इच्छा तो सभी रखते हैं. कोई नापसंद काम करना पडे और उसमें विफल हो जाएं तो कोई रंज नहीं होता. लेकिन पसंद का काम करने जाते हैं और उसमें विफलता मिलती है तो स्वाभाविक रूप से तकलीफ होती है. लेकिन जिसे अपने काम से लगाव है, पैशन है, ऐसे लोगों को सबसे अधिक तकलीफ नापसंद काम में सफलता मिलने पर होती है क्योंकि ऐसी सफलता उसे उल्टी राह पर ले जाती है. मुंबई में जगजीत सिंह जैसा महान गजल गायक बनने के लिए आया कोई युवक जानता है कि उसमें उस दर्जे की प्रतिभा है लेकिन यदि वह ऑर्कस्ट्रा में गाने जाता है, शादी के फंक्शन्स में या पार्टियों में गाने जाता है और वहां उसकी जबरदस्त डिमांड खडी हो जाती है, मुंहमांगे दाम मिलते हैं तो वह सफलता उसे कचोटने ही वाली है क्योंकि वह जानता है कि सफलता का यह चस्का वह कभी छोड नहीं सकता और इसीलिए वह स्ट्रगल करके जगजीत सिंह जैसा अभूतपूर्व गायक कभी बन नहीं सकता.
डॉ. काशीनाथ घाणेकर और डॉ. श्रीराम लागू प्रतिस्पर्धी थे. उस जमाने में लागू के काम की भी सराहना होती थी, और घाणेकर की भी. दोनों अपनी अपनी तरह से महान कलाकार थे. लेकिन लोकप्रियता की दौड में घाणेकर काफी आगे थे. फिल्म में इस बारे में विस्तृत दृश्य हैं. घाणेकर की एक्टिंग मुखर थी, स्टाइलिश थी, दर्शकों से तुरंत तालियां प्राप्त कर लेती थी. लागू का अभिनय सबड्यूड रहा करता था, दर्शकों के भीतर धीरे से उतर जाता था, उनका बोला गया संवाद पूर्ण होने के बाद दर्शक चुप, स्तब्ध हो जाते, ताली बजाना भूलकर उस पात्र के वातावरण में खो जाते थे. काशीनाथ घाणेकर शायद इस बात को समझते थे. मन ही मन श्रीराम लागू को अपने ऊंचा- उमदा कलाकार मानते भी होंगे. शायद.
इस फिल्म की खासियत ये है कि यह फिल्म चीप बने बिना भी बोल्ड है और किसी मेलोड्रामा में पडे बिना भी भानों से भरी है. कांचन जब टीनेजर थी तब उसया`काशीकया`’ से प्रेम हो गया (और अंत में उन्हीं से शादी की). इस बात को बिलकुल छिपाए बिना बोल्डली, विस्तार से कहा गया है. काशीनाथ के वननाइट स्टैंड्स के बारे में भी विस्तार से बातें हुई हैं. एक सीन में तो इरावती (पहली पत्नी) देखती है कि नशे में चूर होकर सोई हुई औरत काशीनाथ की पलंग से लुढक जाती है. नाट्य निर्माताओं की शिकायत है कि काशीनाथ अपनी नाटकों में काम करनेवाली किसी भी अभिनेत्री को छोडता नहीं है. काशीनाथ शराब पीकर मस्त हो जाते और फिर रंगभूमि की लक्ष्मणरेखा लांघकर स्टेज पर आते थे, ऐसा भी एक सीन है. ऐसी बोल्ड बातें करते समय चीपनेस में उतर जाना आसान होता है. निर्देशक के लिए, पटकथा लेखक के लिए. लेकिन यहां पर गजब का संयम है. कांचन और काशीनाथ के रोमांस को डिग्निटी दी गई है. जमाना भले इस संबंध को नीची निगाह से देखकर गॉसिप करता था लेकिन भई, यह तो दो व्यक्तियों के बीच के संबंध की बात है. कोई भी संस्कारी व्यक्ति उसे गॉसिप के लेवल पर नीचे नहीं ला सकता.
पहली पत्नी इरावती के साथ सुखी संसार को गजब तरीके से कंट्रोल में रखकर, बिलकुल मेलोड्रामा डाले बिना, टूटते हुए संबंधों को दिखाया गया है. कांचन की मां (अभिनेत्री सुलोचना) इस संबंध के बारे में जानती है तब भी सीन में मेलोड्रामा डाले बिना उन पलों को भावपूर्ण बनाया गया है. ऐसी लगन सभी फिल्मकारों के पास नहीं होती.
सेलिब्रिटी के बारे में फिल्म या बायोपिक बनानेवाले या फिर बडे व्यक्ति के बारे में लिखनेवाले कभी कभी खुद को तटस्थ बताने के लिए या बैलेंसिंग करने के लिए उस व्यक्ति के खराब पहलू का चित्रण करने में कुछ ज्यादा ही आगे चले जाते हैं. वे ऐसे किसी सिंड्रोम से पीडित होते हैं मानो वे बडे आदमी की धोती नहीं खींचेंगे तो वे उनके चमचे लगने लगेंगे. इस फिल्म के निर्माताओं में ऐसी कोई भी इंफीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स नहीं है इसीलिए फिल्म में ऐसा लगता है कि न तो काशीनाथ की आरती उतारी जा रही है, न ही काशीनाथ घाणेकर के नाम का गुणगान किया जा रहा है. फिल्म वास्तविकता के ज्यादा करीब लगती है. मराठी फिल्म निर्माता अपने दर्शकों को मंदबुद्धि नहीं मानते, वे दर्शकों को परिपक्व समझते हैं. लाइट नोट्स के साथ शुरू होनेवाली फिल्म धीरे धीरे इंटेंस बनती जाती है और अंत में डार्क बन जाती है लेकिन इस रुपांतरण के दौरान फिल्म कहीं भी जर्की नहीं बनती, सहजता से भाव-रूपांतरण होता रहता है.
प्रभाकर पणशीकर अपने इस मित्र के आखिरी दिनों में काशीनाथ के करियर को रिवाइव करने के लिए फिर से एक बार अपने पुराने नाटकों को पुनर्जीवित करते हैं. इनमें से एक शो में काशीनाथ शराब पीकर स्टेज पर आता है. काशीनाथ की निजी जिंदगी से दुखी हुए दर्शक हल्ला मचा देते हैं. सभागृह की कुर्सियां तोडफोड देते हैं, आग लगा दी जाती है. पणशीकर स्टेज को छोडे बिना, डरे बिना दोनों हाथ जोडकर दर्शकों से माफी मांगत रहते हैं, शांत होने के लिए कहते हैं. अगले सीन में पणशीकर कितनी कुर्सियां टूटी हैं, और कितना नुकसान हुआ है जिसकी भरपाई करनी है, इसकी आराम से गिनती करते हुए नजर आते हैं. अपने ही पाप से डूब रहे मित्र का हाथ छोडना नहीं चाहिए, ऐसा दमदार संदेश आपको मिलता है.
आज का विचार
कोई गुनाह ही नहीं किया, ऐसा भी नहीं
उसे मैं याद आया ही नहीं, ऐसा भी नहीं
मेरी लडखडाती चाल मुझे कहां ले जाएगी?
तूने हाथ थामा ही नहीं, ऐसा भी नहीं
यह गांव, ये गली, ये झरोखे तो गए लेकिन
मैं फिर वहां लौटा नहीं, ऐसा भी नहीं
तुम्हारे सामने जुबान सिलकर नजरें हटा लीं
और कोई याचना न की ऐसा भी नहीं.
– मकरंद दवे
एक मिनट!
लाभ पंचमी की शाम को घर आकर बका ने अपने दोस्त से फोन पर कहा:
`पका!’
`बोल बका!’
`आज तो सिर्फ मेरा शरीर ही ऑफिस गया था. आत्मा कब जॉइन करेगी, क्या पता!’