गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह
(मुंबई समाचार, मंगलवार – १३ नवंबर २०१८)
कलाकार के जीवन में स्ट्रगल पैसे कमाने के लिए नहीं होता. पैसा तो सेकंडरी होता है. असली स्ट्रगल तो अपने पैशन से चिपके रहने का होता है. आपके आस-पास की दुनिया आपको उस पैशन से दूर ले जाना चाहती है. आपको अव्यावहारिक कहकर, टेढी लाइन का बताकर, `सीधे मार्ग’ पर ले जाना चाहती है जिससे कि आपका `भला’ हो, आपकी जिंदगी `सुरक्षित’ हो, सेटल्ड हो.
काशीनाथ घाणेकर डेंटिस्ट थे. खुद की प्रैक्टिस थी, इसके बावजूद काशीनाथ नाटक के क्षेत्र में स्ट्रगल करते थे. प्रॉम्पटर का काम करने पहुंच जाते. काशीनाथ के पिता तो बेटे के डेंटिस्ट बनने से भी नाराज थे. एम.बी.बी.एस. होकर `रेगुलर’ डॉक्टर नहीं बन सकने का उन्हें दु:ख था. बेटे को स्टेज पर देखकर वे कभी खुश नहीं होते थे. वसंत कानेटकर लिखित `रायगडाला जेव्हा जा येते’ नाटक में काशीनाथ घाणेकर ने संभाजी की भूमिका निभाते हैं. एक शो में पिताजी भी गांव से आए थे. शो पूरा होने के बाद नाटक में शिवाजी की भूमिका निभानेवाले कलाकार काशीनाथ से कहते हैं कि अभी मैने तेरे पिताजी का पहनावा पहना है इसीलिए मैं मर्यादा में रहूंगा, बाकी आज का तुम्हारा परफॉर्मेंस देखकर मुझे तुम्हारे पांव छूने का मन हो रहा है.
इतने ऊँचे दर्जे की प्रशंसा मिलने के बाद काशीनाथ अपने पिताजी से मिलते हैं लेकिन पिताजी बिलकुल उदासीन हैं. कई बार जिनसे सराहना मिलने की इच्छा होती है, उनकी ओर से यदि उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं मिलती है तो दिल टूट जाता है. पुत्र के रूप में काशीनाथ का दिल टूट जाता है.
इस नाटक के सौ प्रयोग हुए. नाटक धुआंधार चल रहा था. हजार प्रयोग पक्के थे. सौ प्रयोग के बाद एक प्रायवेट निमंत्रण मिला. किसी अमीर सेठ की हवेली में दस बारह लोगों के बीच वह नाटक खेला जाना था. प्रोड्यूसर ने एडवांस पैसे ले लिए थे. काशीनाथ अड गए. नाटक सार्वजनिक रूप से करने होते हैं, सैकडों-हजारों दर्शकों के बीच, किसी धनवान के अहम को संतुष्ट करने के लिए तो उनके घर जाकर तो मुजरा होता है, नाटक नहीं होता. काशीनाथ वह शो करने से इनकार कर दिया. प्रोड्यूसर निवेदन करता है, धमकाता है. लेखक कानेटकर बीच बचाव करते हैं. काशीनाथ टस से मस नहीं होते. प्रोड्यूसर धमकी देता है: इस फील्ड से तुझे आउट कर दूंगा. नाट्य लेखक अपना निर्णय सुना देता है:`आज के बाद जिंदगी में कभी भी मैं अपने लिखे नाटक में काशीनाथ को काम नहीं करने दूंगा.’
काशीनाथ के जीवन में ऐसे चढाव उतार लगातार आते रहते हैं. काशीनाथ को मित्र के रूप में मसीहा मिलता है. प्रभाकर पंत पणशीकर, पंत के रूप में उन्हें मित्र पहचानते हैं. `तो मी नव्हेच’ उनका लैंडमार्क नाटक है. `नाट्य संपदा’ नामक उनकी संस्था हुआ करती थी. `थैंक यू, मिस्टर ग्लाड’ उनके दूसरा लोकप्रिय नाटक है. ऐसे तो अनेक सुपरहिट नाटक थे. इसके अलावा उन्होंने प्रोड्यूसर के रूप में `कट्यार कालजात घुसली’, `पुत्रकामेष्ठी’, `विच्छा माझी पूरी कर’, `वार्या वरची वरात’, `लेकुरे उद्दंड झाली’ तथा `लग्नाची बेडी’ जैसे सफल और क्लासिक नाटक किए.
ऐसे प्रभाकर पणशीकर अपने प्रोडक्शन में वसंत कानेटकर का `अश्रुंची झाली फुले’ करने जा रहे हैं. प्रिंसिपल का पात्र वो खुद निभानेवाले हैं. बदमाश विद्यार्थी लाल्या की भूमिका काशीनाथ से कराना चाहते हैं. लेखक कानेटकर और काशीनाथ के बीच फिर से कहा सुनी हुई. मैं तेरे साथ काम नहीं करूंगा- मैं आपके साथ काम नहीं करूंगा. अंत में सहमति हो जाती है. सकुचाते हुए काशीनाथ सेकंड लीड रोल करने के लिए तैयार हो जाता है. लेकिन अंत तक इस पात्र का सुर ठिकाने पर नहीं है ऐसा लगता था, लेखक के मन में भी दुविधा है. दोनों साथ मिलकर समाधान निकालते हैं. ऑडियंस लाल्या का किरदार निभानेवाले काशीनाथ घाणषकर पर फिदा हो जाती है. लाल्या की शरारती-बेपरवाह पर्सनैलिटी खिलकर उभरती है ऐसे संवाद काशीनाथ बोलता है तो दर्शक उसे दोहराते हैं: `एकदम कड्डक !’ और `उसमें क्या है?’ इस नाटक का स्थान मराठी नाट्य सृष्टि में सफलतम नाटकों की अगली पंक्ति में है.
`अश्रुंची झाली फुले’ की सफलता से प्रेरित होकर १९६९ में हिंदी फिल्म बनी `आंसू जो बन गए फूल’. पणशीकर की भूमिका अशोक कुमार और लाल्या की भूमिका में देब मुखर्जी हैं. इस फिल्म की कथा के लिए वसंत कानेटकर को उस वर्ष की बेस्ट स्टोरी के लिए फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला था. याद रहे कि १९६९ में `अराधना’, `दो रास्ते’, `एक फूल दो माली’, `प्यार का मौसम’, `जीने की राह’, `आया सावन झूम के’, `इत्तेफाक’, `इंतेकाम’, `तलाश’, `तुमसे अच्छा कौन है’ इत्यादि जैसी अनेक बडी/सफल फिल्में आई थीं. इन सारी फिल्मों की कहानी से भी उत्कृष्ट साबित हुई थी वसंत कानेटकर की कहानी. क्या थी वो कहानी?
प्रिंसिपल आदर्शवादी है जो शरारती लाल्या को सुधारना चाहता है. कॉलेज बिक जाता है जिसे कोई भ्रष्ट नेता ले लेता है और वह कॉलेज का दुरूपयोग करना चाहता है. प्रिंसिपल इस नेता के आडे आता है. नेता खुद प्रिंसिपल को भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर उसे ही जेल भेज देता है. जेल में साथी कैदियों के साथ रह चुका प्रिंसिपल बाहर आकर उस नेता को पाठ पढाने के लिए खुद भ्रष्ट बनता जाता है. दूसरी ओर लाल्या सुधर कर पुलिस इंस्पेक्टर बन चुका है, बाकी की कहानी आप गेस कर सकते हैं. इसी थीम का थ्रेड लेकर जावेद अख्तर ने १९८४ में `मशाल’ लिखी जिसमें दिलीप कुमार (ए भाई…..) और अनिल कपूर (झक्कास) थे.
इसी नाटक पर से `नाट्यसंपदा’ (गुजराती) के तत्वावधान में कांति मडिया ने `आतमने ओझलमां राख मा’ बनाई. (उसका रेडियो विज्ञापन आया करता था जिसमें सुहाग दीवाव अपनी धीर गंभीर आवाज में जैसे कुँए से प्रतिध्वनि उठती है, उस तरह नाटक का टाइटल बोलते थे: अरातमने ओझलमां राख मा’.)
गुजराती नाटक के बारे में गुजराती रंगभूमि के जीते जागते एनसाइक्लोपीडिया निरंजन मेहता मुझे जानकारी देते हैं कि मडिया ने उसमें लाल्या की भूमिका निभाई थी और प्रिंसिपल उपेंद्र त्रिवेदी थे. लेकिन २४ शो के बाद उपेंद्र त्रिवेदी आउट हो गए. २५वें शो में उपेंद्र त्रिवेदी के स्थान पर मडिया ने प्रिंसिपल का रोल किया और लाल्या का किरदार अरविंद त्रिवेदी ने निभाया. २६वें शो से मडिया फिर से लाल्या की भूमिका करने लगे और प्रिंसिपल के रूप में विजय दत्त आ गए. कुछ महीने बाद विजय दत्त और लालू शाह ने अपना ग्रुप शुरू किया और उस ग्रुप के तत्वावधान में प्रभाकर पणशीकर ने ७५ शो में प्रिंसिपल का रोल किया.
प्रभाकर पणशीकर गुजराती में? हां. निरूभाई कहते हैं कि उनका बचपन गुजरात के पाटण में बीता था इसीलिए गुजराती भाषा से वे परिचित थे. थोडी प्रैक्टिस के साथ अच्छी गुजराती बोल लेते थे. नीरूभाई कहते हैं कि पणशीकर कभी हंसकर कहते कि: कई बार मराठी में यह नाटक खेलते समय मैं गुजराती बोल जाता हूँ!
`अश्रुं ची झाली फुले’ के अलावा काशीनाथ घाणेकर ने `इथे ओशाड़लेला मृत्यु’, `गारंबीचा बापू’, `आनंदी गोपाल’ और `तुझे आहे तुजपाशी’ इत्यादि नाटकों ने भी लोगों का खूब मनोरंजन किया. पु.ल. देशपांडे लिखित-निर्देर्शित `तुझे आहे तुजपाशी’ को प्रवीण जोशी ने आई.एन.टी. में गुजराती में `मीनपियासी’ के नाम से मंचित किया था. प्रवीण जोशी के आरंभिक हिट नाटकों में एक था- ऐसा निरंजन मेहता इतिहास के पृष्ठों को खंगालते हुए बताते हैं.
`अश्रुंची झाली फुले’ में प्रभाकर पणशीकर का लीड रोल होता था इसीलिए उनका नाम पहले बोला जाता था और विज्ञापनों में पहले लिखा जाता था. दूसरा नाम चित्तरंजन कोल्हटकर का होता, क्योंकि वे काशीनाथ से सीनियर थे. तीसरा नाम काशीनाथ का और फिर चौथा, पांचवां, छठां नाम बाकी कलाकारों का होता था. नाटक पूरा लाल्या के कंधे पर यानी काशीनाथ के कंधे पर चलता था लेकिन क्रेडिट्स में उनका नाम खो जाता था. एक बार उनकी गोरी गोरी, हरी भरी टीनेज प्रेमिका (जो मां के रोल के लिए जानी जानेवाली अभिनेत्री सुलोचना की बेटी हैं और जो बाद में मिसेस काशीनाथ घाणेकर बनी) कांचन ने `काशीकाका’ से कहा: आपका नाम बीच में अटक जाता है, इसके अंत में रखिए. सबका नाम कह लेने के बाद….आणि काशीनाथ घाणेकर! दर्शक आपके नाम का इंतजार करके एक्साइट हो जाएंगे और तालियों की गडगडाहट से तारीफ करेंगे.
तबसे क्रेडिट्स में… और काशीनाथ घाणेकर आने लगा. सारे नामों के बाद में `और’ `तथा’ या `आणि’ `उपरांत’ रखकर महत्व बढाने की रस्म मराठी रंगमंच पर काशीनाथ घाणेकर ने शुरू की, आज तो गुजराती सहित सभी जगह इस प्रथा का अनुसरण किया जाता है.
आज का विचार
अपने कानून – व्यवस्था की स्थिति किस हद तक बिगड चुकी है यह देखिए. कल मैं अपनी कार की सीट पर `ठग्स ऑफ हिदुस्तान’ की दो टिकट भूलकर गाडी लॉक करके चला गया. लौटकर आया तो देखा कि किसी बदमाश ने मेरी गाडी का कांच तोड दिया था और सीट पर और भी दो टिकटें रख गया ता.
-वॉट्सएप पर पढा हुआ.
एक मिनट!
राहुल गांधी: राफेल की डील ६४३६६३४६७५ करोड में फाइनल हुई.
पत्रकार: आपको कैसे पता चला?
राहुल गांधी: फ्रांस के अखबार में पढा: ये देखो.
पत्रकार (अखबार देखकर): ये तो राफेल नाडल ने फेडरर को फ्रेंच ओपन के फाइनल में ६-४, ३-६, ६-३, ४-६, ७-५ से हराया है, उसका स्कोर है.