गुड मॉर्निंग: सौरभ शाह
(newspremi.com, मंगलवार, ११ अगस्त २०२०)
सीरियस बात की शुरुआत हल्के से करते हैं.
गुजराती साहित्य के दिग्गज उपन्यासकार- कथाकार- स्तंभकार चंद्रकांत बक्षी १९६९ तक कलकत्ता में रहे. बिलकुल मार्क्सवादी विचारधारा में रंगे हुए. पश्चिम बंगाल में नक्सलवाद ने सिर उठाया तो कलकत्ता की अपनी खुद की कपड़ों की दुकान का कारोबार बंद करके बक्षी साहब अहमदाबाद आकर स्थायी हो गए. लेकिन १९६९ में अहमदाबाद में हुए भयानक हिंदू विरोधी सांप्रदायिक दंगों से डर कर वे मुंबई आ बसे. उसके बाद मुंबई में ही रहे. फिर बिलकुल आखिर में अहमदाबाद वापस गए.
बक्षी साहब जितने बड़े लेखक- विचारक- चिंतक- कॉलमनिस्ट गुणवंत शाह की माताजी को गांधीजी ने पत्र लिखा था. उनके घर में बिलकुल गांधीवादी वातावरण था. गुणवंत शाह युवास्था में विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन में भी भाग ले चुके थे.
२००२ में गोधरा में हुए हिंदू हत्याकांड के प्रतिक्रिया स्वरूप अनेक जगहों पर हुए मुस्लिम-हिंदू दंगों के बाद एक बार वडोदरा के गांधीनगर गृह में मुझे एक सभा को संबोधित करना था. वडोदरा के बहुचर्तित बेस्ट बेकरी केस से जुडी बात थी. भाषण के दौरान एक जगह मैने कहा: `२००२ के बाद हिंदूवादी लेखन करने वाले चंद्रकांत बक्षी किसी जमाने में मार्क्सवादी थे. और जिनके हिंदूवादी लेख अभी लोग पढते हैं ऐसे गुणवंत शाह पहले गांधीवादी सर्वोदयी थे.’
यह सुनकर एक श्रोता ने मुझसे पूछा कि बक्षीजी मार्क्सवादी से हिंदू बन गए और गुणवंत शाह गांधीवादी से हिंदूवादी बन गए तो आप?
मैने हंसकर जवाब दिया: मैं स्वयंभू हिंदूवादी हूं!
भारत में बौद्धिक स्तर पर हिंदूवाद के प्रचार प्रसार का सबसे बडा काम करने वाले सीताराम गोयल कच्ची उम्र में गांधीवादी थे, फिर कम्युनिस्ट बने, उसके बाद समाजवादी, फिर साम्यवाद के कट्टर विरोधी और अंत में सनातनी हो गए. सीताराम जी ने ये पूरी मनमोहक कथा `हाउ आय बिकेम अ हिंदू’ नामक छोटी सी पुस्तिका में लिखी है. उनके और रामस्वरूप द्वारा मिलकर स्थापित (१९८२) तथा विकसित प्रकाशन संस्था `वॉइस ऑफ इंडिया’ ने इस पुस्त का प्रकाशन किया है. जरूरत पढिएगा. अन्यथा मुझे उसके बारे में लिखना पडेगा. पांच अगस्त का दिन आज हम देख सके हैं, इसमें सीतारामजी और रामस्वरूपजी के बौद्धिक संघर्ष का बहुत बडा योगदान है.
पांच अगस्त को ट्विटर पर साकेत सूर्येश ( @Saket71) द्वारा जो कंफेशन हुआ है उसकी बात कल हमने की थी. तो शुरू करते हैं.
पहले ही वाक्य में साकेत लिखते हैं:“६ दिसंबर १९९२ को मैं गजब का सेकुलर था. आय वॉज़ सुप्रीमली सेकुलर ऑन सिक्स्थ ऑफ डिसेंबर नाइनटीन नाइनटी टू. मैं होस्टल में रहता था. समाचार जब मिला तब मैं अपने रूममेट को लेकर अपने मुस्लिम क्लासमेट के रूप में (सांत्वना देने) गया. मुजे लग रहा था कि वह (बेचारा) अकेला पड गया होगा और उसे लग रहा होगा कि उसे त्याग दिया गया है. हम बिना एक शब्द बोले चुपचाप बैठे रहे…
“अचानक मेरी बत्ती जली कि परंपरागत रिचुअल्स के बारे में बुद्धि लगाने का काम हिंदुत्व तक ही सीमित रहा है.”
“अगले साल गणेश चतुर्थी के मौके पर मेस बंद थी. उस दिन अपने उसी मुस्लिम दोस्त के साथ मैं यहां-वहां घूम रहा था. मैने उससे कहा कि (हिंदू) प्रथा और कर्मकांडों को लेकर तुम्हें आपत्ति क्यों होती है. ऐसा कहते हुए मैने प्रसाद में मिले फलों में से एक उठा लिया और हम दोनों हंस पडे. उसके बाद जब मोहर्रम आया तब मैने देखा कि उसकी पीठ लहूलुहान थी. मुझे शॉक लगा. मैने उससे पूछा कि तुम इन सब प्रथाओं और कर्मकांडों में क्यों विश्वास रखते हो…
“अचानक मेरी बत्ती जली कि परंपरागत रिचुअल्स के बारे में बुद्धि लगाने का काम हिंदुत्व तक ही सीमित रहा है. मैने उससे पूछा कि सदियों पहले हो चुकी करबला की लडाई (जिसमें मोहम्मद पैगंबर के पौत्र हुसैन अली और उनके ७२ शागिर्दों ने जान गंवाई थी)को याद करके अभी अपने ऊपर (चाबुक बरसाकर) जुल्म करने का क्या मतलब है? उस समय इंजीनियरिंग की पढाई करते करते मैं समय मिलने पर इतिहास की पुस्तकों में डुबकी लगाया करता ता. मुझमें एक नया प्रकाश फैलता गया. मैं समझने लगा कि (हिंदुओं की) जीवनशैली को किस तरह से बदनाम किया जाता रहा है….
“मुझे यह बात भी समझ में आने लगी कि (अपनी जीवनशैली, परंपरा के विरूद्द होने वाले प्रहारों के खिलाफ) हिंदू जहां पर बहुसंख्या में होते हैं वहां हिंदुओं की कैसी (शांति, उग्रता रहित) प्रतिक्रिया होती है. और मुझे यह भी ध्यान में आया कि मुसलमान जहां बहुसंख्या में होते हैं वहां वे कैसी (उग्र) प्रतिक्रिया दिया करते हैं. मुझे ध्यान में आया कि (पाकिस्तान – बांग्लादेश में) मंदिर टूटने पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं होता लेकिन एक परित्यक्त मस्जिद टूटती है (जिसमें १९४९ के बाद कोई नमाज नहीं पढी गई) तो उस पर उन्हें ऐतराज होता है…
“गोमांस का धार्मिक महत्व मुसलमानों के लिए तनिक भी नहीं है, जैसे कि बाबरी का नहीं था.”
“रोम की मूर्तिपूजक संस्कृति के बारे में पढ़ा, इतिहास में हिंदुओं के घटते प्रभाव के बारे में पढा. मुझे लगा कि पार्टिशन के समय मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान देने के बाद हिंदुस्तान में हिंदुओं का वर्चस्व होना चाहिए था लेकिन ऐसा हुआ नहीं. सेकुलरवाद के चकाचौंध में चुंधियाई मेरी आंखें खुलने लगीं….
“और तब मैने देखा कि गोमांस उनके लिए जरूरी बन गया. गोमांस का धार्मिक महत्व मुसलमानों के लिए तनिक भी नहीं है, जैसे कि बाबरी का नहीं था. ये दोनों मुद्दे हिंदुओं की सहनशक्ति और उनके धैर्य को चुनौती देने के लिए उछाले जाते रहे हैं. हिंदुओं को नीचा दिखाने के लिए उपयोग में लाए जाते रहे हैं. अबे, हिंदुओं, तुम हमारे पैर की जूती के बराबर हो- ऐसे नहीं बोले गए शब्द इन दोनों मुद्दों का अजेंडा हैं. कितना बडा खेल खेला जा रहा है, इसका मुझे ख्याल आ रहा था….
“जैसे जैसे मैं गहराई में उतरता गया वैसे वैसे मुझे समझ में आने लगा कि खुद को रेशनलिस्ट कहलानेवाले लोग असल में कौन लोग हैं. (तर्कवादी, बुद्धिवादी- गुजरात में भी ऐसे लोग हैं. कई साहित्यकारों में, आंदोलनकारियों में, दूसरों के पैसों पर मजा उठानेवाली एन.जीओ/ के साथ जुडे `कर्मशील’ लोगों में भी खुद को रेशनलिस्ट कहलाकर छाती फुलाकर घूमने का फैशन चल पडा था. मोदी ने सीएम बनने के बाद इन सभी को सीधा कर दिया था.) इन रेशनलिस्टों की बकवास केवल हिंदुओं को अपमानित करने के लिए होती है. ये उठाइगिरे ऐसा प्रचार कर रहे थे कि गौमाता का कत्ल करना इस्लाम धर्म का एक हिस्सा है. और बाबरी ढांचा इस्लाम की आस्था का ऐतिहासिक प्रतीक है….
“मेरा बैकग्राउंड इंजीनियरिंग का है. इतिहास मुझे बोरिंग लगता था और पुराण-शास्त्रों से तो परेशान हो जाता ता. लेकिन बाद में मुझे लगा कि, अन्य धर्मों की बात जाने दो, स्वतंत्र रूप से ये सब कुछ इतनी सदियों से कैसे टिका रहा. और मैने इतिहास का अध्ययन आरंभ किया. शास्त्र और पुराणों में गहराई तक जाकर उनसे निष्कर्ष निकालने की कोशिश की…
“(सांवैधानिक रूप से दुनिया के एकमात्र हिंदू राष्ट्र) नेपाल को साम्यवादियों ने हडप लिया- हमने एक शब्द नहीं कहा.”
“फिर तो मैं पूरी तरह से लग गया. पढता ही गया, पढता ही गया. दिवाली पर पटाखे फोडने से प्रदूषण होता है, होली में पानी बर्बाद होता है…हमारे जो भी त्यौहार पंचमहाभूतों को आदर देने के लिए मनाए जाते रहे हैं, वे सभी पर्यावरण विरोधी हैं, ऐसा प्रचार होता. बिलकुल निकृष्ट दर्जे से हो रहे ऐसे प्रहारों से मुझे पीडा होने लगी…
“इस्लाम के शासन के दौरान हजारों मंदिरों को गिराकर मस्जिद बनाई गई. पढते पढते ये सारी जानकारी मिलती गई. इन मंदिरों का तोड दिया गया और इसके खिलाफ किसी भी मुसलमान ने एक अक्षर नहीं कहा. खुद को उदारमतवादी दिखानेवाले मुसलमान भी इस बारे में मौन रहे. सोचिए कि आजादी मिलने के बाद भी ऐसा ही चलता रहा है. (सांवैधानिक रूप से दुनिया के एकमात्र हिंदू राष्ट्र) नेपाल को साम्यवादियों ने हडप लिया- हमने एक शब्द नहीं कहा. फिर मैने देखा कि भारत के मुसलमान तो रोहिंग्याओं को भी अपनाना चाहते हैं. फिलिस्तीन का पक्ष तो पहले से ही ले रहे हैं…”
साकेत की बात सच है. खुद्दार इजराइलियों के खिलाफ लडनेवाले फिलिस्तीनियों को भारत के मुसलमान ही नहीं, भारत के राजनेता भी गले लगाते रहे हैं. रूस की बातों में आकर इजराइल को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता नहीं देने से लेकर यासर आराफात जैसे फिलिस्तीनी आतंकवादी नेता को दुलारने तक का पाप इस देश ने किया है. २०१४ के बाद सब कुछ बदल गया. मोदी ने इजराइल के साथ दोस्ती की और इतनी मजबूत दोस्ती की कि मुस्लिम जनता और सारी दुनिया देखती रही. इतना ही नहीं, मोदी की डिप्लोमेसी और भारत की ताकत देखिए- इजराइल के साथ कट्टर दुश्मनी होने के बावजूद अरब देश भी मोदी को सलाम आलेकुम करके सिर झुकाने लगे, पाकिस्तान को नाखुश करके भी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को इस्लामिक देशों की परिषद में प्रमुख जगह दी गई, इतना ही नहीं, तो जिन अरब देशों में यात्री के नाते जानेवाले भारतीय के सामान में हिंदू देवी-देवता की मूर्ति या चिथ या धार्मिक ग्रंथ भी मिल जाय तो उसके साथ एयरपोर्ट पर ही धक्का-मुक्की की जाती थी, ऐसे अरब देशों में मोदी के रामराज्य के दौरान वहां की सरकारों की सहायता से मंदिर बनने लगे, हिंदू त्यौहार जोरशोर से मनाए जाने लगे.
साकेत के ट्विटर थ्रेड की आधी ही बात अभी प्रस्तुत हो सकी है.
शेष बातें कल.
आज का विचार
जो लोग आपको प्रसन्न, खुशहाल और समझदारी के भंडार लगते हैं उन लोगों ने जीवन में खूब सारे दुर्भाग्य देखे होंगे. इन दुर्भाग्य के प्रसंगों से ही वे प्रसन्न, खुशहाल और समझदार बने होते हैं.
– अज्ञात