मातोश्री के ड्रॉइंगरूम में चटाई बिछाकर नमाज पढी गई

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, गुरुवार – ३१ जनवरी २०१९)

`ठाकरे’ फिल्म का एक सीन है. बाबरी ध्वंस के बाद मुंबई में फैले सांप्रदायिक दंगों के दौरान कलानगर, बांद्रा (पूर्व) स्थित बालासाहब के `मातोश्री’ बंगले से कुछ दूर बहरामपाडा (बांद्रा, पूर्व) की मुसलमान बस्ती में रहनेवाला एक मुस्लिम युगल अपनी दो छोटी छोटी बेटियों के साथ बालासाहब के बंगले तक पहुंचने की कोशिश करता है. बालासाहब को पता चलता है. वे अनुमति देते हैं. मुस्लिम औरत अपनी वेदना प्रकट करती है. दंगों सबकुछ लुट चुका है, जल चुका है. उसका पति बार-बार घडी देख रहा है. बालासाहब का ध्यान जाता है. जिज्ञासावश वे पूछते हैं. तब पता चलता है कि उसकी जौहर की नमाज (दिन की दूसरी नमाज जो दोपहर एक बजे के आस-पास हुआ करती है) का समय हो चुका है. बालासाहब तुरंत अपने सेवक रवि को पुकार कर चटाई मंगाते हैं. बालासाहब के ड्रॉइंगरूम में, निश्चिंत होकर वह मुस्लिम युवक जौहर की नमाज अदा करता है.

बालासाहब बार-बार कहते थे कि वे खुद मुस्लिम या इस्लाम के विरोधी नहीं है, लेकिन जो इस देश को अपना देश नहीं मानते हैं, इस देश के नागरिकों के साथ घुलमिल कर रहने के बजाय उनके खिलाफ जहर फैलाना चाहते हैं, क्रिकेट मैच के दौरान जिनका पाकिस्तान प्रेम छलकने लगता है, वे ऐसे काफिर मुसलमानों के खिलाफ हैं.

ये सीन मुझे इसीलिए बहुत अच्छा लगा क्योंकि ये सच्चाई मुझे पता नहीं थी कि उन्होंने किसी मुस्लिम को अपने घर में नमाज पढने का आमंत्रण दिया था. मुझे यह सीन हृदयस्पर्शी लगा. किसी सेकुलरवादी को ऐसा भी लग सकता है कि,`ऐसा भी कुछ हुआ होगा क्या- बाल ठाकरे किसी मुसलमान को अपने घर में नमाज पढने देंगे भला? ये तो सिर्फ बाल ठाकरे की इमेज को व्हाइटवॉश करने के लिए ऐसा सीन फिल्म में डाला गया है.’

१९९२ में जब बाबरी ढांचे को ध्वस्त किया गया उसके बाद और खासकर २००२ के गोधरा हिंदू हत्याकांड की प्रतिक्रिया स्वरूप गुजरात में कुछ स्थानों पर हुए दंगों के बाद मैने जो कुछ भी लिखा और मैने जो कुछ भी अपने भाषणों में कहा उसके कारण, बाल ठाकरे जिन्हें `लाल माकड’ (लाल मुंहवाले बंदर) कहा करते थे, ऐसे कम्युनिस्टों-सेकुलरिस्टों ने मेरी ऐसी छवि बनाने की कोशिश की कि मैं मुस्लिम विरोधी हूं, इस्लाम विरोधी हूं. और मैं ओपनली चैलेंज देता था कि मैने कभी एक भी शब्द मुसलमानों के विरुद्ध या उनकी आस्था के विरूद्ध, इस्लाम के विरुद्ध नहीं लिखा या भाषणों में नहीं कहा है. मैने सिर्फ ऐसे लोगों की ही कडी आलोचना की है जो देशद्रोह के कृत्यों में लिप्त हैं या फिर ऐसे कृत्यों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बढावा देते हैं, कभी अपने धर्म का सहारा लेकर तो कभी दूसरों का मोहरा बनकर.

यह दृश्य हृदयस्पर्शी लगने का दूसरा कारण ये है कि मेरे जीवन में ऐसा प्रसंग ऑलरेडी आ चुका है जिसका उल्लेख मैने कई बार अपने लेखों तथा भाषणों में किया है. २००० के दशक के मध्य में मैने काफी समय अहमदाबाद में बिताया और उस दौरान एक शाम को मैने अपने मुस्लिम मित्र को सपरिवार रात्रि भोज के लिए निमंत्रित किया था. वे अपनी पत्नी, बेटी, भाई और भाभी के साथ आ रहे थे. कुल मिलाकर आठ मेहमान थे. मैने उनसे कहा था कि भोजन के समय पर ही आना जरूरी नहीं है, थोडा पहले आ जाएंगे तो छत पर साथ बैठकर सूर्यास्त देखेंगे और झूले पर बैठकर गप्पे लगाएंगे. उन्होंने कहा कि जल्दी नहीं आ सकते, शाम की (मगरिब) नमाज पढने के बाद आप के यहां पहुंचेंगे. मैने कहा कि नमाज का समय हो जाने पर आप मेरे घर नमाज पढ लीजिएगा, यदि आपको कोई आपत्ति न हो तो. और वे सभी मेरे निमंत्रण का आदर करके जल्दी आ गए. सूर्यास्त देखा गया, और नमाज भी पढी गई.

ये प्रसंग मैं कई बार अपने निजी मित्र मंडली में साझा करता था तब हल्के फुल्के भाव से कहता कि डॉ. प्रवीण तोगडिया मेरे काफी अच्छे परिचित हैं और यदि उन्हें इस बात का पता चल जाए तो वे जरूरत कहेंगे कि अयोध्या में बाद में, लेकिन पहले सौरभ शाह के घर में मंदिर बनाएंगे!

बायोपिक पर काम करना थोडा कठिन होता है. ऐसे तो कोई भी रचना करना ही काफी कठिन काम होता है. लेकिन जिस प्रकार उपन्यास लिखने की तुलना में अधिक कठिन काम है किसी के जीवन पर उपन्यास लिखना, बिलकुल उसी प्रकार फिल्म बनाने से अधिक कठिन काम है किसी के जीवन पर आधारित फिल्म बनाना. आप यदि डॉक्युमेंट्री फिल्म बना रहे हों या फिर किसी की जीवनी (बायोग्राफी) लिख हों तो ये काम इतना कठिन नहीं है लेकिन किसी व्यक्ति पर लिखे उपन्यास या फिर बायोपिक की रचना करते समय आपको ध्यान में रखना पडता है कि कथारस पहले से अंत तक बरकरार रहे, कहानी के प्रवाह में कहीं कोई अवरोध न आए और ऐसा करते समय आप खुद बहाव में आकर कल्पना के ऐसे प्रसंग उसमें न जोड दें जो उस व्यक्ति के जीवन में घटे ही न हों या सुसंगत न हों. सिर्फ स्टोरी को अधिक तेज और मसालेदार बनाने के चक्कर में जब आप ऐसे प्रसंग शामिल करने का लोभ पालते हैं तब आप जिस व्यक्ति पर उपन्यास लिख रहे हैं या बायोपिक बना रहे हैं, उस पर आप अन्याय करते हैं. आप या तो उसकी आरती उतारने लगते हैं, या फिर उसका ऐसा चित्रण कर देते हैं कि उसके प्रति घृणा पैदा हो जाती है. व्यक्ति को ब्लैक या व्हाइट रंगने बजाय वह जैसा है वैसे ही- उनके समस्त ग्रे शोड्स के साथ पेश करने का काम दो धारी तलवार पर चलने जैसा है. ऐसा करने के प्रयास में या तो उसके बारे में शुष्क दस्तावेजी फिल्म बन जाती है या फिर कथन नीरस हो जाता है जो पु.ल. देशपांडे पर बनी और पिछले सप्ताह ही रिलीज हुई मराठी फिल्म `भाई: व्यक्ति की वल्ली’ के साथ हुआ. `काकस्पर्श’ और `वास्तव’ सहित अनेक उत्कृष्ट दर्जे की मराठी-हिंदी फिल्मों का निर्देशन कर चुके महेश मांजरेकर ने ही `भाई’ बनाई है लेकिन अत्यंत कमजोर स्क्रिप्ट ने उन्हें इस बेहतरीन विषय के साथ न्याय करने से रोका है. लेट अस होप कि `भाई’ का उत्तरार्ध, जो कि ८ फरवरी को रिलीज हो रहा है, उसमें महेश मांजरेकर ने कुछ कमाल किया हो.

इसके विपरीत `संजू’ और `काशीनाथ घाणेकर’ जैसी बायोपिक में मुख्य पात्र की कमजोरियों को ढंके बिना या उसकी आरती उतारे बिना जिस अफलातून तरीके से स्क्रिप्ट लिखी गई है, वह एक मिसाल है, इस विषय से जुडे लोगों के लिए एक स्टडी मटीरियल है.

`ठाकरे’ फिल्म को मैं `संजू’ और `काशीनाथ घाणेकर’ जैसी ही आला दर्जे की फिल्म मानता हूं. `ठाकरे’ का भी सीक्वल आनेवाला है. `ठाकरे’ में बालासाहब को १९७० के दशक में कांग्रेस का करीबी बताया गया है, १९७५ के आपात्काली का समर्थन करते हुए दिखाया गया है. यदि इस फिल्म में सिर्फ उनकी हेजियोग्राफी (संतत्व) ही दिखानी होती तो ऐसे या ऐसे अन्य कई प्रसंगों को फिल्म के प्रोड्यूसर-कथा लेखक संजय राउत ने टाल दिया होता. लेकिन उन्होंने फिल्म निर्माण में बालासाहब जितनी ही प्रामाणिकता तथा पारदर्शिता का प्रदर्शन किया है.

फिल्म का हिंदी वर्जन और मराठी वर्जन दोनों साथ में शूट किए गए हैं. लिप-सिंक से आपको विश्वास हो जाएगा कि मराठी में जो संवाद बोले गए हैं, वही शब्द शूटिंग में भी बोले गए हैं. हालांकि नवाजुद्दीन सिद्दीकी के डायलॉग्स चेतन सशितल नाम के अत्यंत प्रतिभाशाली वॉइस आर्टिस्ट ने डब किए हैं. मजे की बात ये है कि मराठी संवाद बोलकर उसकी नए सिरे से शूटिंग करने से ऐसा लगता है कि नवाजुद्दीन खुद मराठी में बोल रहे हैं. चेतन सशितल ने ऐसा कमाल किया है कि उनके संवाद में आपको बाल ठाकरे की आवाज, उनका टोन और उनका सख्त लहजा तो सुनाई ही देता है बल्कि साथ ही अंडरटोन नवाजुद्दीन सिद्दीकी की आवाज का सुनाई देता है, जैसे कि नवाजभाई ने बालासाहब की आवाज में अपनी आवाज को ढाल दिया हो. इसके अलावा सारी फिल्म महाराष्ट्रियन माहौल में है इसीलिए हिंदी के बजाय मराठी में देखने में ज्यादा मजा आता है. उदाहरण के लिए दिवाली के मौके पर `मातोश्री’ में आए मेहमानों से मीनाताई ठाकरे हिंदी वर्जन में `नाश्ता करके जाइएगा’ कहती हैं लेकिन मराठी में `फराल करके जाना’ कहती हैं. मराठी के कई शब्दों का हिंदी में अलग अर्थ होता है. मराठी में `घटस्फोट’ का हिंदी में अर्थ है `तलाक’. मराठी का `समाधान’ हिंदी में `संतोष’ होता है. मराठी का `कौतुक’ हिंदी में `प्रशंसा’ होता है उसी प्रकार से `फराली पदार्थ’ यानी उपवास के दिन खाया जानेवाला पदार्थ तो नहीं होता बल्कि चिवडा-शक्करपारा-चकली जैसा `नाश्ता’ होता है.

आज का विचार

जिस तरह से भारत की टीम क्रिकेट में हर मैच जीत रही है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि वे दिन अब दूर नहीं हैं कि दुनिया की बाकी की टीमें भारत को हराने के लिए महागठबंधन कर लेंगी!

– वॉट्सएप पर पढा हुआ

एक मिनट

पका: बका, कल तू जिसके साथ फिल्म देखने गया था वह तेरी कजिन थी या गर्लफ्रेंड?

बका: पता नहीं, उसने अभी तक कुछ कहा नहीं है…

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