अंग्रेजों की छाती पर सावरकर ने १८५७ की स्वर्ण जयंती मनाई थी

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, रविवार – १० मार्च २०१९)

स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने १८५७ के संग्राम का जो इतिहास लिखा है, वह पुस्तक देशभक्त क्रांतिकारियों के लिए गीता समान बन गई, ऐसा देवेंद्र स्वरूप ने लिखा है. अब आगे की बातों को वीर विनायक दामोदर सावरकर की पुस्तक `१८५७ का स्वातंत्र्य समर’ की प्रस्तावना स्वरूप विद्वान इतिहासकार देवेंद्र स्वरूप लिखित दीर्घ लेख से उद्धृत किया गया है.

इस पुस्तक को लिखने की शुरुआत १९०६ में हुई थी. सावरकर क्रांति के रंग में साराबोर हो चुके थे. वे बैरिस्टर की पढाई करने के लिए इंग्लैंड पहुंचे जहां पर प्रखर राष्ट्रभक्त तथा संस्कृत के महाविद्वान पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित `इंडिया हाउस’ को सावरकर ने अपनी क्रांति – साधना का केंद्र बनाया. (पी.एम. नरेंद्र मोदी जब गुजरात के सी.एम. थे, तब २००३ में वे विदेश जाकर श्यामजी कृष्ण वर्मा का अस्थि कलश भारत ले आए थे और स्वर्गस्थ के मूल गांव मांडवी-कच्छ में उनका भव्य स्मारण बनाकर उस अस्थि कलश को दर्शन के लिए रखने का आयोजन किया. १९३० में ७२ वर्ष की आयु में स्वर्गस्थ हुए श्यामजी कृष्ण वर्मा के लिए शहीद भगत सिंह ने लाहौर जेल में रहकर श्रद्धांजलि दी थी. श्यामजी कृष्ण वर्मा की अस्थियों को अंग्रेज सरकार द्वारा भारत न लाए जाने की बात समझ में आती है, लेकिन आजादी के बाद नेहरू, इंदिरा या राजीव की सरकारों ने भी ऐसा कोई इनिशिएटिव नहीं लिया.)

सन १९०७ का वर्ष १८५७ की स्वर्ण जयंती का वर्ष था. इस दिन को ब्रिटेन `विजय दिन’ के रूप में मना रहा था. ब्रिटिश अखबारों ने विशेषांक प्रकाशित कर ब्रिटिश सेना की वीरता की खूब सराहना की और भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को `विद्रोही’ तथा `बागी’ कहकर उनकी निंदा की थी, उनके `विद्रोह’ की आलोचना की थी. ६ मई १९०७ को लंदन के एक अग्रणी दैनिक `डेली टेलीग्राफ’ ने बडे शीर्षक में छापा: `पचास वर्ष पहले इसी सप्ताह हमारी वीरता के कारण हमारा साम्राज्य बच गया था.’ इतना ही नहीं, घाव पर नमक मलते हुए ब्रिटिशर्स ने लंदन में एक नाटक खेला जिसमें रानी लक्ष्मीबाई और नाना साहब पेशवा जैसे वीरों को `हत्यारा’ और `उपद्रवी’ कहकर चित्रित किया गया था. इस अपमान का बदला लेने के लिए १० मई १९०७ के दिन सावरकर के नेतृत्व में भारतीय देशभक्तों ने बडे धूमधाम से १८५७ के संग्राम की स्वणजयंती मनाने का निश्चय किया. भारतीय युवकों ने १८५७ की स्मृति में अपनी छाती पर चमकदार बिल्ले लगाए. सभी ने उपवास किया, सभाएं आयोजित की गईं जिसमें भारत की स्वतंत्रता तक इस लडाई को जारी रखने की प्रतिज्ञा ली गई. भारतीय देशभक्ति के इस सार्वजनिक प्रदर्शन के कारण ब्रिटिश सरकार क्षुब्ध हो उठी. कई स्थानों पर सरकार और भारतीय युवक आमने सामने आ गये. हरनाम सिंह और आर.एम. खान जैसे युवको को छाती पर लगे बिल्ले नहीं हटाने पर अडे रहने के कारण कॉलेज से सस्पेंड किया गया. अंग्रेजों को अपने ही घर में भारतीय राष्ट्रवाद के उग्र स्वरूप का परिचय मिला.

इस सारी घटना के कारण सावरकर भीतर से खूब उद्विग्न हुए. उनके मन में प्रश्नों का झंझावात उमड पडा. १८५७ का सत्य क्या था? क्या वह केवल एक आकस्मिक `सैनिक विद्रोह’ था? क्या उस `विद्रोह’ का नेतृत्व करनेवाले अपने अपने तुच्छ स्वार्थों की रक्षा करने के लिए अपनी अपनी क्षमतानुसार उसमें कूद पडे थे? या फिर किसी बडे लक्ष्य को पाने के लिए यह एक योजनाबद्ध प्रयास था? यदि हां, तो उसकी योजना के पीछे किसका दिमाग था? योजना का क्या स्वरूप था? क्या १८५७ एक बीते कल पर बंद हो चुके दरवाजे की तरह विस्मृत किया जा चुका और जर्जर हो चुके इतिहास का एक पृष्ठ मात्र है? या फिर भविष्य के लिए प्रेरणादायी बनने योग्य शौर्यगाथा है? भारत की भावी पीढियों को १८५७ क्या संदेश देना चाहता है? ऐसे अनेक प्रश्नों ने सावरकर की नींद उडा दी. उन्होंने ऐसे तमाम सवालों का जवाब ढूंढने का निश्चय किया. `इंडिया हाउस’ के बंगाली मैनेजरू मुखर्जी और उनकी अंग्रेज पत्नी की सहायता से सावरकर ने भारत से जुडे ब्रिटिश दस्तावेजों के आर्काइव्स को खंगालना शुरु किया. करीब डेढ वर्ष तक उन्होंने इंडिया ऑफिस के आर्काइ्व्स तथा ब्रिटिश म्यूजियम की लाइब्रेरी में मूल दस्तावेजों पर संशोधन किया. भारतीय जनता के प्रति द्वेष तथा ब्रिटेन की सत्तालोलुपता को छिपाने के लिए अंग्रेज इतिहासकारों ने अपने देश को स्वच्छ दिखाने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों के साथ किस तरह से छेडछाड की थी, यह सावरकर ने ढूंढ निकाला. वही छेडछाड वाला इतिहास ही अभी तक प्रचलन में था. सावरकर ने सत्य इतिहास इन्हीं दस्तावेजों के आधार पर लिखने का निश्चय किया. सावरकर ने साबित किया कि यह कोई मामूली सैनिक विद्रोह नहीं था, बल्कि भारत की स्वतंत्रता के लिए लडा गया संग्राम था. अपनी शोध-साधना का आलेखन सावरकर ने मातृभाषा मराठी में किया.

इस दौरान, अगले वर्ष १० मई १९०८ को १८५७ की क्रांति की वर्षगांठ मनाने का ब्रिटेनवासी भारतीयों ने तय किया. इस अवसर पर सारवरकर ने `ये शहीद’ शीर्षक से चार पृष्ठ का एक पत्रक छापा. `ओ मार्टयर्स’ वाले इन चार पृष्ठों का `इंडिया हाउस’ में आयोजित एक कार्यक्रम में सार्वजनिक लोकार्पण हुआ और यूरोप-भारत में इस का बडे पैमाने पर वितरण किया गया. सावरकर इंडिया ऑफिस की लायब्रेरी में तथा ब्रिटिश म्यूजियम की लाइब्रेरी में लगातार एक साल तक रिसर्च करते रहे इसीलिए वे बातें तो छिपी नहीं रही कि वे किस विषय पर संशोधन कर रहे हैं, लेकिन ये संशोधन किस दिशा में जा रहा है, इसका संकेत `ओ मार्टयर्स’ पत्रक से मिल रहा था. इस पत्रक द्वारा काव्यमय ओजस्वी भाषा में सावरकर ने १८५७ के शहीदों के माध्यम से भावी क्रांति का आवाहन किया था. सावरकर ने लिखा: `१० मई १८५७ के दिन शुरू हुआ युद्ध १९०८ तक भी समाप्त नहीं हुआ है. ये तब तक चलता रहेगा जब तक उसका लक्ष्य पूरा करनेवाली कोई १० मई भविष्य में न आ जाए. हे महान शहीदों, अपनी संतानों को इस पावन संघर्ष में अपनी प्रेरणादायी उपस्थिति से मदद करो. हमारे प्राणपण में जादू का वह मंत्र फूंको जिस मंत्र ने आप सभी को एकता के सूत्र में पिरोया था.’ इस पत्रक द्वारा सावरकर ने १८५७ के युद्ध को `मामूली सैनिक विद्रोह’ की छाप को मिटाकर उसे सुनियोजित स्वतंत्रता समर के रूप में प्रतिष्ठापित करने का पुनीत कार्य किया.

१९१० में सावरकर की गिरफ्तारी हुई (उन्हें अंदमान की जेल में कालापानी की सजा दी गई) तब उन पर राजद्रोह का जो मुकदमा चला (और ५० वर्ष की सजा सुनाई गई) उस समय फैसले में `हे शहीदों’ वाली यहां पर उद्धृत पंक्तियों को कोट किया गया.

सावरकर ने १८५७ का जो इतिहास लिखा, उसकी हस्त लिखित प्रति खोजने में ब्रिटिश गुप्तचर विभाग ने किस तरह से जमीन आसमान एक कर दिया और हर बार किस सरह से सावरकर तथा उनके साथियों ने अंग्रेजों को चकमा दिया उसकी रोमांचक कहानी अगले सप्ताह.

आज की बात

दूसरा आपके सामने बंदूक का उपयोग न करे, इसके लिए कभी कभी आपको बंदूक उठानी पडती है.

– माल्कम एक्स

संडे ह्यूमर!

पका: अरे बका, सुना तुमने? कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के लिए गुजरात से ४ उम्मीदवार तो खोज निकाले!

बका: हां, लेकिन अब मतदाता खोजने पडेंगे!

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