गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह
(मुंबई समाचार, रविवार – ३ मार्च २०१९)
आपने देवेंद्र स्वरूप का नाम शायद नहीं सुना होगा. ऐसे तो वे बहुत ही साधारण तरीके से रहनेवाले इंसान थे, लेकिन उनकी विद्वत्ता के प्रशंसकों का एक निर्धारित और बहुत बडा दायरा था. मुझे उनसे बातचीत करने का सौभाग्य मिला है. इस वर्ष १४ जनवरी को ही उनका ९३ वर्ष की आयु में निधन हो गया. उन्हें मरणोत्तर पद्मश्री मिला. बहुत बडे विचारक और इतिहासकार थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उम्दा विचारधारा उनके रग रग में दौड रही थी. किसी जमाने में वे `पांचजन्य’ के संपादक भी थे. बनारस हिंदू युनिवर्सिटी से बी.एस.सी. और लखनऊ युनिवर्सिटी से इतिहास विषय में एम.ए. किया था. `संघ: बीज से वृक्ष’, `संघ: राजनीति और मीडिया’, `अयोध्या का सच’ और जातिविहीन समाज का सपना’ जैसी बेमिसाल पुस्तकें उन्होंने लिखी हैं.
`१८५७ का स्वातंत्र्य समर’. विनायम दामोदर सावरकर की यह पुस्तक आपने न पढी हो तो जरूर पढिएगा. ये पुस्तक मूलत: मराठी में लिखी गई है. इसका हिंदी अनुवाद सर्वत्र उपलब्ध है. इसके अलावा गुजराती अनुवाद की बहुत ही पुरानी प्रति मेरे पास भी है. उसकी पुनरावृत्ति प्रकाशित हुई है या नहीं मुझे पता नहीं है. वीर सावरकर की इस पुस्तक की प्रस्तावना देवेंद्र स्वरूप ने लिखी है. प्रस्तावना का शीर्षक ही आपको एक नए संसार में ले जाता है: `ये इतिहास की पुस्तक नहीं है, स्वयं एक इतिहास है.’ एक स्वतंत्र पुस्तिका जितनी लंबाई वाली यह चिंतनपरक प्रस्तावना गुजराती आवृत्ति में नहीं है. देवेंद्रजी लिखते हैं: `संभवत: सारी दुनिया में यह पहली पुस्तक होगी जिसे प्रकाशित होने से पहले ही प्रतिबंधित होने का गौरव प्राप्त हुआ है. इस विषय पर, ऐसी कोई पुस्तक लिखी जा रही है, ऐसा अंदाजा लगने के बाद ब्रिटिश हुकूमत जिसके राज में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था, ऐसा कहा जाता था, उस साम्राज्य की सरकार ने डर के मारे पुस्तक के नाम, या उसके प्रकाशक – मुद्रक का नाम जाने बिना ही उस पर प्रतिबंध लगा दिया था. १९०९ में यह पुस्तक पहली बार गुप्त रूप से प्रकाशित हुई और १९४७ के बाद खुलेआम प्रकाशित होती रही. १९०९ से १९४७ के बीच के ३८ साल में उसकी कई आवृत्तियां प्रकाशित हुईं, कई भाषाओं में उसके अनुवाद हुए. उस काल में इस पुस्तक को छिप-छिपाकर स्मगल करके भारत में लाना भी एक साहसिक क्रांति का काम माना जाता था.’
जरा सोचिए कि यूं तो वह पुस्तक इतिहास की पुस्तक है और जिसे अंग्रेजों ने तथा सवाया अंग्रेज पंडित जवाहरलाल नेहरू की चापलूसी करनेवाले वामपंथी इतिहासकारों ने भी १८५७ के `विद्रोह’ के रूप में मान्यता देना जारी रखा था (`सिपॉय म्युटिनी’) उस भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बारे में तथ्यों-सत्यों-हकीकतों का जिसमें बयान किया गया है, एषसी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की क्या जरूरत है? लेकिन सच्चाई ये है कि भारत के आजाद होने तक, पूरे ३८ वर्ष तक यह पुस्तक प्रतिबंधित ही रही. स्वयं वीर सावरकर को भी एक क्रांतिकारी के रूप में जो स्थान मिलना चाहिए था, वह स्वातंत्र्योत्तर भारत में भी विशिष्ट लोगों की बदमाशी के कारण नहीं मिला. उनके स्मारकों तथा उनके तैलचित्रों तथा उनकी प्रतिमाओं का भी उस विशिष्ट वर्ग ने बडे पैमाने पर विरोध किया. आज तक वह विरोध जारी है, राहुल गांधी वीर सावरकर का अपमान कर चुके हैं और १८५७ के पहले स्वतंत्रता संग्राम को वामपंथियों से हटकर राष्ट्रवादी दृष्टि से देखनेवालों को भी संदेह की निगाह से देखा जाता है, मानो ये इतिहास लिखकर कोई बन बनाने की गतिविधि कर रहा हो. वामपंथी और वामपंथी परंपरा में पल रहे बदमाश सेकुलर तथा अवसरवादी गांधीवादी तथा सर्वधर्म समभाव की कव्वाली गानेवाले आज की तारीख में भी चाहते हैं कि १८५७ के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अंगेज इतिहासकारों की तरह ही `सैनिक विद्रोह’ के रूप में पहचाना जाता रहे. `एपिक’ चैनल के कारण प्रसिद्ध हुए देवदत्त पटनाईक जैसे लोग हिंदू परंपरा की बातें करने के बहाने परोक्ष रूप से इस संस्कृति की बदनामी करनेवाले तथा भारत के इतिहस को नए नजरिए से देखने के बहाने से उसे अधिक विकृत करनेवाले रामचंद्र गुहा जैसे लोग आजकल सेकुलरों तथा वामपंथियों में काफी लोकप्रिय हैं. भारतीय संस्कार तथा भारत की परंपरा की बातें करने का ढोंग करके अपने एजेंडे को आगे बढाने की साम्यवादियों की ये नई चाल है जिससे कि वे अपने भारत द्वेष को ढंक सकते हैं. भोले भाले लोगों को उल्लू बनाने का धंधा करनेवाले इन ठग और धूर्त सेकुलरों की चालबाजी को आप आसानी से नहीं समझ सकते.
मुझे तो १९९२ में बाबरी टूटने से पहले से ही १९८९ के शिलान्यास के जमाने से ऐसी चालबाजियों की जानकारी है. तीन दशक से उनके चाल-चलन का अभ्यास होने के कारण वे पांच वाक्य बोलते या लिखते हैं और तुरंत ही गंध आ जाती है कि ये सेकुलर कीडा किस साम्यवादी गटर में पला बढा है. पहले सेकुलर लोग अपना हिंदू द्वेष खुलकर प्रकट करते थे, लेकिन २००२ के बाद तथा खासकर २०१४ के बाद वे समझने लगे कि खुल्लमखुल्ला हिंदूद्वेष का इजहार करेंगे तो भारत की जनता उन्हें पकड कर मारेगी.. इसीलिए अब वे हिंदू संस्कृति के प्रति आदर की बात करते करते, धीरे से अपनी मीठी छुरी चलाकर अपना लेफ्टिस्ट अजेंडा आपके गले में पहना देते हैं. इसीलिए सावधान.
इतनी पृष्ठभूमि १८५७ की घटनाओं को समझने, वीर सावरकर के दृष्टिकोण को समझने के लिए जरूरी था. यह नजरिया आपको और मुझे देवेंद्र स्वरूप जैसे महापुरूषों ने अपने इतिहास के अध्ययन द्वारा दिया है. उनके द्वारा प्रदान की गई इस दिव्य दृष्टि को संजोने की तथा, उसके धूमिल न होने देने का ख्याल रखने की जरूरत है और भारत की नई पीढी १८५७ में शुरू हुई अपने पूर्वजों की गाथा गाकर गौरव का अनुभव करने का प्रयास करने की जरूरत है. भारत को आजादी गांधीजी ने बिना खड्ग, बिना ढाल के दिलाई है, इस गलतफहमी से मुक्त होना हो तो आपको आगे लिखी जानेवाली इस श्रृंखला को पढकर अपनी समझ को विकसित करना होगा. आपकी नई पीढी तथा आपके आसपास के सभी लोगों में इन विचारों का प्रचार प्रसार करना होगा.
शेष अगले रविवार को.
आज की बात!
युद्ध के समय शत्रु की प्रशंसा करके खुद को तटस्थ तथा निरपेक्ष बतानेवाले वास्तव में राष्ट्रद्रोही और विद्रोही होते हैं.
– चाणक्य