(गुड मॉर्निंग: चैत्र शुक्ल चतुर्थी, विक्रम संवत २०७९, बुधवार, २० अप्रैल २०२२)
मुंबई से सोलह-सत्रह सौ किलोमीटर दूर स्थित योगग्राम में रहकर शरीर में जैसे आंतर्बाह्य बदलाव आ रहे हैं, वैसे ही मैं देख रहा हूं कि मेरी मानसिकता में भी काफी महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहा है.
इसका कारण ये होगा कि शारीरिक बदलाव आते ही मन की स्फूर्ति-एनर्जी काफी बढ़ जाती होगी. दूसरी बात यह भी सच है कि घर से इतनी दूर और इतने अधिक समय तक रहकर प्रैक्टिकली सभी परिचितों-मित्रों-संबंधियों से दूर रहकर, या कह लीजिए कि एकांत में रहकर आप डिटैच्ड होकर काफी नए पर्सपेक्टिव से विचार करने लगते हैं. फोन-व्हॉट्सऐप से भी दुनिया के साथ काफी कम संपर्क में हूँ.
काफी बदलाव आया है मेरी मानसिकता में. यह ठीक है कि लेखन मेरे लिए श्वास के समान है किंतु लिखने के साथ ही मुझे `जीना’ भी चाहिए, ऐसा अभी मुझे लग रहा है. `जीने से’ मेरा मतलब है इस विशाल दुनिया को अपने स्टडीरूम में समाहित कर देने के बजाय मुझे अपने टापू से बाहर निकलना चाहिए. अलग अलग जगहों पर घूमना चाहिए. नए नए लोगों से मिलना चाहिए. मुंबई में, मुंबई के आसपास के स्थानों पर, महाराष्ट्र के इंटीरियर में जहां बहुत कम जगहों पर गया हूं, वहां भी जाना चाहिए. गुजरात के एक एक जिले में मैं कई यात्राएं कर चुका हूँ, खूब भटका हूँ. उन सभी जगहों पर फिर से जाना चाहिए. अपने मूल गांव देवगढ़ बारिया जाकर वहां के परिचितों-बुजुर्गों से मिलना चाहिए. बाप-दादाओं का घर अब वहां नहीं है लेकिन उस घर में जितना वात्सल्य मिलता था, ऐसा स्नेह देनेवाले स्वजन वहां हैं. वडोदरा में मौसी के घर जाना चाहिए. भारत के अलग-अलग प्रदेशों में जाकर सप्ताह-पंद्रह दिन रहना चाहिए. मुंबई में, अहमदाबाद में, सूरत-राजकोट –वडोदरा और अन्य अनेक शहरों में रहनेवाले अमने मित्रों-परिचितों-स्वजनों-स्नेहियों-सभी के साथ मिलकर खाने, खिलाने का कार्यक्रम करना चाहिए. वन-डे पिकनिक पर निकल जाना चाहिए.
मेरा जीवन बीते वर्षों के दौरान मेरा पठन-लेखन के अलावा नाटकों-फिल्मों-शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों और मुंबई की चार-छह पसंदीदा जगहों पर जाकर खाने तक ही सीमित हो गई थी. कभी मित्रों से भी मिलता, तो कभी पाठकों से भी मिल लेता. किंतु कभी कभी ही, नियमित रूप से नहीं.
मुझे अब इस सीमित जिंदगी की सीमाओं को विस्तार देना है. बेशक, बीच में कोरोना काल के दो वर्ष घर में बंद रहने में ही सुरक्षा थी और हम लोगों को कोरोना नहीं हुआ, इसके लिए यह सजगता भी कारणीभूत रही होगी. लेकिन कोरोना नहीं होता तो भी मेरी कमोबेश एकांतप्रिय जिंदगी में बहुत अधिक बदलाव नहीं हुआ होता.
`जीना’ यानी लेखन-पठन-मनन के अलावा के समय में सभी के साथ, सारी दुनिया के साथ जुड़े रहना-जो अब मैं शुरू करने वाला हूँ. क्योंकि खाने-पीने से लेकर अन्य कई सारी आदतें बदल रही हैं जिसके कारण मेरी शारीरिक क्षमता और मेरा मानसिक वातावरण भी बदल रहे हैं.
ये सारा परिवर्तन योगग्राम के शुद्ध, प्रदूषण रहित, सात्त्विक और सुरम्य वातावरण के चलते हुआ है. अन्य कहीं जाकर ऐसा रियलाइजेशन नहीं हुआ होता.
जून में अहमदाबाद जाने की योजना बना रहा हूँ. वहां से दंताली में स्वामी सच्चिदानंद से और वडोदरा में गुणवंत शाह से तथा मामा से मिलने जाने का विचार है. डाकोर काफी समय से नहीं जा सका हूँ. रणछोड़जी का दर्शन करना है. नाथद्वारा भी नही जा पाया हूँ. कोरोना वे पहले के वर्ष में गया था. एक जमाना था जब साल में कम से कम एक बार, कभी तो दो बार श्रीजीबाबा के दर्शनार्थ जाया करता था. दिवाली से पहले इसकी योजना भी करेंगे. ठंडी में गुजरात की बुक टूर निर्धारित करनी है. दिवाली के बाद मेरी अनेक पुस्तकें, हरिद्वार के योगग्राम में ५० दिन सहित कई पुस्तकें प्रकाशित होनी हैं. उन्हें प्रमोट करने के लिए दक्षिण गुजरात के वापी, वलसाड़, नवसारी, बिलीमोरा, सूरत, भरूच से शुरुआत करेंगे फिर रोजकोट जाकर सौराष्ट्र सर्किट में घूमेंगे.
इसके अलावा, एक उपन्यास लिखने के लिए जबरदस्त प्लॉट तैयार है. पूरे एक महीना कहीं जाकर उसका फर्स्ट ड्राफ्ट लिखने का प्लान है. शायद साउथ गुजरात में किसी रमणीय और एकांत वाले स्थान पर या फिर मसूरी चला जाऊंगा. इससे पहले बाल साहित्य की पुस्तकों का एक सेट लिखना है जिसके लिए शायद एकाध सप्ताह के लिए मुंबई के करीब कहीं चला जाऊंगा. संभवत: माथेरान.
लिखना और पुस्तकें तैयार करना तो मेरा काम है, आनंद भरा काम है और भरपूर पैशन है, मेरी एकमात्र आजीविका है; लेकिन इसके अलावा भी दुनिया है, जो काफी विशाल है और अब मुझे इस दुनिया को एक्सप्लोर करना है.
ये सारा परिवर्तन योगग्राम के शुद्ध, प्रदूषण रहित, सात्त्विक और सुरम्य वातावरण के चलते हुआ है. अन्य कहीं जाकर ऐसा रियलाइजेशन नहीं हुआ होता. अन्य किसी भी जगह पर पचास दिन रहने का प्लान ही नहीं बनता.
और हां, एक बात रह गई. मैं घर में रहने पर किचन में शायद ही कभी जाता हूँ. नाश्ता का डिब्बा टटोलने के अलावा रसोईघर में पांव तक नहीं रखता. एक जमाना था जब मैं तरह तरह के व्यंजन बनाया करता था. पप्पा-मम्मी के साथ जब रहता था तब किसी दिन मैं देर से आता तो पप्पा मेरा इंतजार करते-सौरभ के साथ खाना खाने में ज्यादा मजा आएगा, थोड़ी देर से ही सही-ऐसा कहा करते थे. मेरे सगे-संबंधी-मित्र –निकट के लोग मेरे हाथों से बने अनेक व्यंजनों की प्रशंसा करते. मुझे भी खाना बनाने और सभी को आग्रहपूर्वक खिलाने में खूब आनंद आता है. लेकिन क्रमश: मेरा रसोई मे जाना बंद हो गया. रसोई बनाने का मुझमें उत्साह ही नहीं रहा. घर में मेरी रेसिपियों का पालन होता है, इतना ही काफी है. कोरोना ने सचमुच कहर ढाया है.
अब मुझमें ऐसा उत्साह जागा है कि मैं रोज ब्रेकफास्ट, लंच या डिनर में से एक समय का खाना तो खुद ही बनाऊंगा, पूरा नहीं तो कम से कम एकाध आइटम. शाम का नाश्ता भी घर में ताजा बनाऊंगा. घर के अन्य छोटे मोटे कामों के लिए भी समय निकाल सकूंगा.
मेरे लिए यह काफी बड़ा परिवर्तन है. योगग्राम में आकर मेरी पुरानी आयु, मेरी पुरानी जिंदगी, मेरी पुरानी फिजिकल और मेंटल एनर्जी मुझे वापस मिल रही है.
कुछ साल पहले पूज्य मोरारी बापू जब घर आए थे तब या फिर जब कवि रईश मनीयार या सुरेश राजड-संजय गोरडिया-विपुल मेहता-कौस्तुभ त्रिवेदी-मनोज शाह जैसे नाट्यकार मित्र आते तब या फिर वरिष्ठ साहित्यकार मधु राय या काजल ओझा वैद्य या कभी जय वसावडा जैसे लेखक मित्र आते तब या फिर दोस्तों के साथ आर.डी. बर्मन का जन्मदिन मना रहे होते थे तब या फिर घर में थर्टी फर्स्ट की पार्टी में मैं फुल्ली ऐक्टिव रहता था. पानीपुरी, भेलपुरी, सेवपुरी के अलावा पावभाजी, रगडा पेटीस, साबूदाना खिचडी, निदा फाजली की खिचडी से लेकर दर्जनों मंचिंग्स और अन्य खूब सारे व्यंजन बनाता. खूब मजा आता था.
लेकिन धीरे-धीरे मैं उसमें से विड्रा होता गया. पता नहीं क्यों.
अब पुन: प्रवृत्त हो जाऊंगा. रसोई में फिर से प्रवृत्त होने की प्रेरणा का कारण निगम ठक्कर की रेसीपीज वाली यूट्यूब चैनल भी है जो यहां योगग्राम में आकर कभी दसेक मिनट की फुर्सत में शांति से देख लिया करता हूँ. ट्रेडिशनल गुजराती व्यंजन निगम ठक्कर बहुत ही सुंदरता से बनाते हैं, सिखाते हैं.
यहां आकर मेरी मानसिकता में जो परिवर्तन आ रहा है उसका एक और कारण मुझे ध्यान में आ रहा है. योगग्राम में रहकर मन में छिपी उद्विग्नता, तनाव, चिंता, भय, उद्वेग-आप चाहे जो नाम दें, वह सब मानो छू हो रहा है. बिलकुल हल्के फुल्के बन गए हैं. इसका कारण केवल शारीरिक वजन कम होना ही नहीं है, बल्कि दिमाग पर लादा गया भार, काफी वजनदार और भारी भरकम बन चुका बोझ भी उतर गया है.
मैं सोचता हूँ कि ऐसा क्यों हुआ होगा? कैसे हुआ होगा? योगासन और प्राणायाम का असर तो होगा ही. स्वामी रामदेव के सान्निध्य से पावन हुए इस परिसर के वाइब्रेशन्स भी कारणीभूत होंगे. इसके अलावा मुझे लगता है कि ब्रह्ममुहूर्त में जागकर प्रवृत्त होने का जो आनंद है, वह आदत भी उदासी इत्यादि को भगा देता है. कैसे? ब्रह्ममुहूर्त में साढ़े तीन बजे जागने से, आप नौ-दस बजे तक इतने सारे कार्य कर डालते हैं, इतनी सारी गतिविधयां कर लेते हैं जो करने में सामान्य रूप से पूरा एक दिन लग जाता है. साढ़े तीन से दस गिन लीजिए तो साढ़ छह घंटे हुए. इस अवधि के दौरान रहनेवाली ऊर्जा इतनी होती है कि आप हर कार्य आपकी स्फूर्ति के कारण आधे समय में हो जाता है. इतना ही नहीं, उस काम की गुणवत्ता और सजगता भी दुगुनी हो जाती है. इस तरह से करीबन छह घंटे में आप दस-बारह घंटे जितना काम पूरा कर लेते हैं और वह भी अधिक सक्षमता के साथ.
सुबह के दस बजे के बाद आपके पास और बारह घंटे बचते हैं. यानी कि पूरा दिन होता है. इस तरह से आप एक दिन में इतना काम कर सकते हैं जिसे पूरा करने में आपको दो दिन लगा करते थे. इस कारण से आपका एक दिन ४८ घंटे का हो गया हो, ऐसा लगता है!
आप जीवन में जो कुछ भी करना चाहते हैं वह करने के लिए अब दुगुना समय मिल रहा है तो दुगुनी रफ्तार के साथ आप अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहे हैं, ऐसी फीलिंग आती है. इस कारण से मन निश्चिंत बनता जाएगा, उदासी-उद्वेग इत्यादि से मुक्त होता जाएगा. अधिक प्रसन्नता का अनुभव करने लगेगा.
ये सब मैं अपने अनुभव के कारण सोच रहा हूँ. मुझे जैसा लगता है, उसे मैने आपके साथ साझा किया है.
मैं जब अपने स्टडी रूप में लिख रहा होता हूँ तब मुझे उतना ही आनंद आता है जितना कि अपनी फेवरिट मूवी देखते समय आता है. मैं जब एनसीपीए या षण्मुखानंद में कोई शो देख रहा होता हूं तब भी मुझे उतना ही आनंद आता है जितना कि मुझे सांताक्रूज जाकर रामश्याम की सेवपुरी खाने के बाद गोकुल की आइसक्रीम खाने में आता है.
मुंबई वापस जाकर पहले से अति व्यस्त जीवन जीने का आरंभ करने की इच्छा जागृत होने के बावजूद तनिक भी तनाव नहीं है कि लिखने के साथ साथ मैं इतनी सारी दौड़ भाग कैसे कर सकूंगा. कोई बेचैनी नहीं है. जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, मुझे एक दिन में दो दिन जितना समय उपयोग करने के लिए मिल रहा है. इसीलिए उसमें से आधा समय मैं लिखन-पढ़ने-मनन करने में लगाऊंगा, मुझे अच्छी लगनेवाली मूवीज़ देखने या पृथ्वी-एनसीपीए के नाटकों के पीछे या षण्मुखानंद के कार्यक्रमों के पीछे या अपनी फेवरिट खाने-पीने की जगहों के पीछे व्यतीत करूंगा तो भी मुझे ये सारी प्रवृत्तियां करने के लिए पहले जैसा वक्त मिलता रहेगा. शेष आधा समय नई जगहों पर जाने में, सबके साथ घुलने-मिलने में बिताउंगा तो भी मुझे अपनी उन पुरानी गतिविधियों के समय में कोई कटौती नहीं करनी पड़ेगी. ये सारी पुरानी प्रवृत्तियां मेरे लिए एक जबरदस्त कम्फर्ट जोन है. मैं जब अपने स्टडी रूप में लिख रहा होता हूँ तब मुझे उतना ही आनंद आता है जितना कि अपनी फेवरिट मूवी देखते समय आता है. मैं जब एनसीपीए या षण्मुखानंद में कोई शो देख रहा होता हूं तब भी मुझे उतना ही आनंद आता है जितना कि मुझे सांताक्रूज जाकर रामश्याम की सेवपुरी खाने के बाद गोकुल की आइसक्रीम खाने में आता है. ये सारी प्रवृत्तियां मेरे जीवन का अनिवार्य अंग हैं और मुझे उसी में रचे बसे रहना अच्छा लगता है. क्योंकि मुझे उससे पोषण मिलता है. किसी दिन मैं नहीं लिखता हूं तो मुझे असुख लगता है. कभी अपनी पसंदीदा पुस्तकों में से कोई एक मैं न पढ़ लूं तो मुझे असुख लगता है. मुझे पसंदीदा फिल्म देखने का जब भी मन होता है और वह नहीं देख पाता हूं तो मुझे असुख लगता है. महीने में एक बार दादर के `प्रकाश’ उपहार गृह में जाकर जिनके साथ तीन चार दशकों की पहचान है, ऐसे शांताराम इत्यादि वेटरों द्वारा परोसे गए दही मिसल, बटाटा पुरी और पीयूष का आनंद न लूं तो मुझे असुख लगता है. ये सब मेरे कम्फर्ट जोन हैं. इसी वजन से मैं उत्साह में रहता हूँ.
मेरी मानसिकता में परिवर्तन आने के बाद मैं जो दौड़-भाग करना चाहता हूँ, उसके लिए मुझे कम्फर्ट जोन का भोग नहीं देना है. क्योंकि अब प्रतिदिन मेरे पास उपयोग करने के लिए दोहरा समय है.
यदि कोई पूछता है कि योगग्राम में आकर आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है तो मैं कहूंगा कि यही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है. इसी में मुझे मेरे समय-शक्ति-धन का संपूर्ण प्रतिफल मिल गया. बाकी योगाभ्यास के कारण जो भी शारीरिक लाभ हुए हैं, वे तो होंगे ही, वे बोनस हैं. नेचरोपथी और आयुर्वेद, पंचकर्म-षट्कर्म के कारण छोटे मोटे रोग भाग रहे हैं और भविष्य में आनेवाले रोगों के विरुद्ध जो सुरक्षा चक्र तैयार हो रहा है वह डबल बोनस है. और स्वामी रामदेव जब मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हैं तब मुझे तो लगता है कि बोनस की मूसलाधार वर्षा हो रही है.