न्यूज़ व्यूज़ : सौरभ शाह
(newspremi.com, गुरुवार, ९ अप्रैल २०२०)
लॉकडाउन के तकलीफ भरे दिन १४ अप्रैल के बाद भी बढने वालें हैं ऐसी आधिकारिक घोषणा भले न हुई हो लेकिन साहब के इशारे से ये तय हो गया है कि अब भी सबकुछ ठीकठाक नहीं है. हमारी मानसिक और शारीरिक तैयारी होनी चाहिए.
ये समय बहुत ही अनूठा है. किसी के भी जीवन में कभी ऐसी परिस्थिति नहीं आई होगी. आएगी भी नहीं, ऐसी भगवान से प्रार्थना करते हैं. पंद्रह दिन के लॉकडाउन के अनुभव के बाद मैं सीरियसली मानने लगा हूं कि ये समय पूरा होने के बाद हम सभी कमोबेश बदल गए होंगे- जीवन में अभी जहां हैं, वहां से आगे बढ गए होंगे या पीछे गए होंगे. आर्थिक मामले की बात यहां नहीं है. मानसिक – आध्यात्मिक जीवनशैली की बात है. या तो हमने उन्नति की होगी या तो हमारी अधोगति हुई होगी. किसी भी स्थिति में हम जहां हैं वहां के वहां तो नहीं रहेंगे, इतना निश्चित है. हमारे नीति मूल्यों में बदलाव आएगा. हमारी निजी विचारधारा की दिशा बदलेगी. लॉकडाउन की ये काफी बडी उपलब्धि होगी. और जिनकी अधोगति होगी उनके लिए लॉकडाउन काफी अधिक नुकसानदायक साबित होगा.
नुकसानवाली संभावना पर पहले विचार कर लेते हैं. आदमी निराशावादी हो सकता है, आहत हो सकता है, उसका खुद पर से भरोसे उठ रहा है, ऐसा लग सकता है. अपने आस पास के लोगों के प्रति सूक्ष्म रूप से धिक्कार का भाव आता जाएगा, ऐसा भी हो सकता है. वह खुद को भी पसंद नहीं करेगा, ऐसा हो सकता है. प्रत्यक्ष रूप से वह सारी दुनिया की आलोचना करने लगेगा. ट्रम्प में अक्कल नहीं है, मोदी में नहीं है, चीनी साले ऐसे हैं और अपना किरानेवाला भी कुछ कम नहीं है- कल सौ ग्राम सरसों मंगाई तो साले ने दो रुपए ज्यादा लगा दिए, लूटने बैठे हैं सब, मानवता जैसा तो कुछ रहा ही नहीं है, इससे बेहतर तो प्रलय आ जाता, इस दुनिया में वैसे भी क्या रखा है?
ऐसा आपके और मेरे साथ भी हो सकता है. अकेले रह रह कर ऐसी नकारात्मकता से घिर जाएंगे तो लॉकडाउन तो कभी न कभी खुल जाएगा पर हमारा व्यक्तित्व हमेशा के लिए सिकुड़ जाएगा.
थोडा सा फिलॉसॉफिकल होकर कहें तो लॉकडाउन का समय तप का समय है- साधना का समय है. ये ऐसी तपस्या है जिसके संस्कार भारत की संस्कृति ने हमें विरासत में दी है लेकिन हम अभी तक मानते आए हैं कि तप-साधना तो हिमालय में जाकर की जाती है या इगतपुरी में या पुज्य मोटा के आश्रम में जाकर की जाती है. लॉकडाउन ने हमें इस साधना की होम डिलीवरी कर दी है. घर बैठे ही ये मौका आया है. बहुत बडी बडी बातों के जाल न बिछाकर प्रैक्टिकल बातें करते हैं.
बहुत ही जाना माना प्रसंग है. गांधीजी के पास एक माता ने आकर कहा कि मेरे बेटे को मीठा खाने की बुरी आदत है आप उसे सलाह दीजिए. गांधीजी ने उसे पंद्रह दिन बाद आने को कहा. पंद्रह दिन बाद गांधीजी ने उस बच्चे को मीठा नहीं खाने की सलाह दी. माता ने गांधीजी से पूछा कि ये सलाह आपने पंद्रह दिन पहले क्यों नहीं दी? गांधी जी का जवाब काफी प्रसिद्ध है: `जब तक मैं खुद भी मीठा खाए बिना कैसा लगता है उसका अनुभव न ले लूं तब तक दूसरे को यह करने की सलाह कैसे दे सकता हूं?’
लॉकडाउन कर पंद्रह दिन की अवधि में जो अनुभव हुए हैं, वह आपके साथ साझा करके एक सलाह देनी है. (हम गांधी नहीं हैं तो क्या हुआ शाह तो हैं)
चैत्र नवरात्रि के आरंभ में शुरू किया गया एकल आहार जब तक लॉकडाउन चलेगा तब तक जारी रखना है, ये बात आपसे कह चुका हूं. उपवास के अन्य फायदों की बात विस्तार से हो चुकी है. यहां पर ३ मूलभूत बातें करनी हैं.
१. घर में एक ही समय खाना बनता है इसीलिए काफी समय बचता है. उस समय का उपयोग घर में काम करने के लिए मिलनेवाली मदद के बंद होने पर घर के काम करने के लिए किया जा सकता है. वैसे आप सोचें तो दो समय का भोजन अगर बन रहा हो तो रसोई में दुगुना समय बीतता है और इतना ही नहीं रसोई के बर्तन भी दुगुने हो जाते हैं. काम कितना बढ जाता है.
२. एक समय भोजन करने पर अनाज-किराना- सबि्जयां- गैस इत्यादि सामान्य की तुलना में दुगुने समय तक चलेंगी. आपके पास भले ही आर्थिक समृद्धि हो लेकिन बाजार में जिन सामानों की किल्लत चल रही हो, उसका उपयोग आधा कर देने से आपको काफी राहत मिलेगी. सोचिए जरा. देश में किल्लत की समस्या को कम करने के लिए हम जो कर सकते हैं वह करने का आनंद हमें बोनस में मिलता है.
३. एक ही समय पेट में अन्न डालना हो तो सुबह-दोपहर-शाम- सेर रात को होनेवाले नाश्ते पर अपने आप ही संपूर्ण प्रतिबंध लग जाता है. आप ये नाश्ता लेने के लिए बाजार में नहीं जा सकते. घर में रहकर ये बनाओ- वो बनाओ करके मेरी बहनों को रोज परेशान करते होंगे- हर दिन बटाटा पोहा या उपमा का नाश्ता कर करके.
इन पंद्रह दिनों के दौरान मुझे जो अनुभव हुआ है और जो कुछ समझ में आया है वह मैने कहा. अभी भी देर नहीं हुई है. आज से ही एक बार खाना शुरू करें, आरंभ में कष्ट होगा लेकिन लॉकडाउन पूरी तरह से खुलने तक कंफर्टेबल हो जाएंगे. दूसरे-तीसरे-चौथे दिन के बाद तो आनंद आने लगेगा.
त्याग और संयम शब्द बहुत बडे हैं. भारी भरकम हैं. एक बार भोजन करके उपवास के संदर्भ में उपयोग करें तो शायद छिछला लगेगा. लेकिन इस अनुभव के कारण इतना तो पता चल गया है कि रीयल त्याग और रीयल संयम किसे कहा जाता है. और जब उन दोनों का जीवन में आगमन होता है (अगर होता है तो) तो जीवन कितना सरल हो जाता है, मामूली बातों की तरफ ध्यान जाना ही बंद हो जाता है और जिंदगी में जो कुछ करना है वह करने के लिए कितना सारा समय मिलेगा, कितनी शक्ति -कितने सारे संसाधनों को हम उस ध्येय की तरफ मोड सकते हैं.
लॉकडाउन हमें हम जहां पर हैं वहां से ऊपर-आगे की ओर ले जाएगा. हम सभी के लिए यह कालावधि भगवान के छिपे हुए आशीर्वाद के रूप में साबित होगा. ब्लेसिंग इन डिसगाइज़.
आज का विचार
किस तरह से मोती पाएं, सागर को जाकर पूछ,
कि उसके पास एक बहुत ही गहरा जवाब है.
-मरीज़