बाबरी से गोधरा तक

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, सोमवार – १० दिसंबर २०१८)

आज से २५ वर्ष पहले, न तो टीवी न्यूज चैनल थे, न ही इंटरनेट का उपयोग आम जनता करती थी, न वॉट्सएप या फेसबुक जैसे सोशल मीडिया थे, न जानकारी हासिल करने के लिए गूगल या अन्य सर्च इंजिन ही हुआ करते थे.

जानकारी का एकमात्र स्रोत प्रिंट मीडिया था. अखबार-पत्रिकाओं द्वारा ही सामान्य लोग अपनी इच्छित, वर्तमान जगत की घटनाओं के बारे में जानकारी प्राप्त करते थे. सरकारी नियंत्रण वाले दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे माध्यम भी थे जिनकी विश्वसनीयता संदिग्ध थी.

वैसे तो प्रिंट मीडिया की क्रेडिबिलिटी के बारे में भी संदेह था, लेकिन जनता के मन में अब भी ऐसी छाप थी कि अखबार में जो छपता है वह सत्य होता है और सत्य के सिवाय और कुछ नहीं होता.

ऐसे जमाने में अखबारों में सत्य के अलावा क्या छप रहा है, यह खोजकर उसे सबके सामने कहना काफी कठिन काम था.

६ दिसंबर १९९२ के बाद उभरे सांप्रदायिक तनाव को बढावा देने में अंग्रेजी अखबारों ने बेशक बडी और गहरी भूमिका निभाई थी, १८ दिसंबर १९९२ को अंग्रेजी में जी. पालकर नामक एक पाठक का पत्र छपा: `अयोध्या के मामले में (अंग्रेजी) अखबार एक तरफा नजरिए से देख रहे हैं ऐसा लगता है.’

२४ दिसंबर १९९२ को आई.एम. हुसैन (एम.एफ नहीं) नामक पाठक का पत्र अंग्रेजी में छपने के बाद `मुंबई समाचार’ में उसका पुन:प्रकाशन हुआ था. `देश में चार चार पीढी से जो बसा है, मैं एक ऐसा ही भारतीय मुस्लिम हूं. मैने लगभग हर इस्लामिक देश की यात्रा की है. मैं अपने निजी अनुभव से कह सकता हूं कि इस देश के (भारत के) मुसलमानों को सबसे अधिक लाड किया जाता है. यहां उन्हें सर्वाधिक स्वतंत्रता मिली है, सुरक्षा मिली है और इस्लाम का पालन करने का पूरा हक मिला है…भारतीय मुसलमानों को आभार मानना चाहिए कि वे ऐसे देश में रहते हैं जहां हिंदू उन्हें सहन करते रहे हैं…बाबरी मस्जिद फिर से खडी करने में कोई अर्थ नहीं निकलेगा?

बी. कुमार नामक एक पाठक ने अंग्रेजी दैनिक के संपादक की अयोध्या नीति का नम्र भाषा में विरोध करते हुए लिखा था:`आप लिखते हैं कि देश में सेकुलरिज्म का दुरूपयोग हो रहा है. उसके कारण मैं आपको बताता हूं: देश में हिंदू मंदिर तोड दिए जाते हैं और सरकार उन पर ध्यान नहीं देती, शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सरकार नहीं मानती है और कॉमन सिविल कोड की मांग पर ध्यान नहीं देती है, इस तरह से ऐसी कई घटनाओं में सेकुलरिज्म का दुरूपयोग हुआ है?

ये सभी पत्र सेकुलरिज्म का झंडा फहरानेवाले हिंदूद्वेषी विभिन्न (अंग्रेजी) दैनिकों ने ६ दिसंबर की घटना के कई दिन बाद छिटपुट मात्रा में छापे, क्योंकि इन अखबारों को डर लगा कि कहीं हम पाठकों के असंतोष का शिकार न हो जाएं, और पाठक हमारे अखबार का बहिष्कार न कर दें.

बाबरी ढांचा टूटने के बाद अंग्रेजी दैनिकों ने सबसे अधिक छाती पीटकर मुसलमानों के जलते दिल पर तेल डालने का काम किया. कई मराठी, एकाध दो गुजराती तथा भारतीय भाषाओं के कुछ अखबारों ने हिंदुत्व का पक्ष खुलकर लेना जब शुरू किया तब उस हर राष्ट्रवादी को सांप्रदायिक कह कर उपेक्षित किया गया. इसके विपरीत हर उर्दू दैनिक द्वारा इस्लामपंथियों का पक्ष लेने के बावजूद किसी सेकुलर पत्रकार या दैनिक ने उनकी ओर उंगली नहीं उठाइ.

भारत का सौभाग्य है कि इस देश पर कौन राज करेगा इसका निर्णय करनेवाली हिंदुस्तान की ७५ प्रतिशत से अधिक ग्रामीण जनता में ९७.९७ प्रतिशत लोग अंग्रेजी अखबार नहीं पढते.

राष्ट्रवादी अखबारों में से `मुंबई समाचार’ ने ११ दिसंबर को फ्रंट पेज पर जो संपादकीय छापा उसका शीर्षक था: `अल्पसंख्यक समुदायों को सही अर्थ में राष्ट्र की संतान होने की जरूरत है’ इस संपादकीय में कहा गया:

`हिंदू राष्ट्रवादियों के धैर्य की भी सीमा है, सहनशक्ति की भी हद है….पुराने रीति रिवाजों से मुक्त होकर राष्ट्र को प्रगति के पथ पर आगे ले जाया गया है. इस काम में यदि कोई भी अल्पसंख्यक समुदाय अपने धर्म के नाम पर अवरोध पैदा करता है तो किसी भी सरकार को उसे सहन नहीं करना चाहिए और सख्ती से काम लेना चाहिए. आज देश में समानता और एकता के लिए समान नागरिक कानून (कॉमन सिविल कोड) लाने की जरूरत है. एक ही देश में अलग अलग कौमों के लिए अलग अलग कानून नहीं हो सकते.’

इस संपादकीय के छपने के बाद पाठकों के अभिनंदन पत्रों से उस समय का एडिट पेज पर छपनेवाला `प्रजामत’ छलकने लगा.

अंग्रेजी दैनिकों में अपवाद स्वरूप २८ दिसंबर को लालकृष्ण आडवाणी का इंटरव्यू छपा जिसमें आडवाणी ने भारत के सभी हिंदुओं की भावनाओं को मुखरित करते हुए कहा:

`मुसलमानों को समझना चाहिए कि भाजपा मुसलमानों का विरोध नहीं करती, बल्कि मुस्लिम जनता का वोट बैंक के रूप में किए जा रहे उपयोग का विरोध करती है. धार्मिक रीति रिवाजों के आधार पर सरकार चलाने की नीति भारत में नहीं चल सकती और १९९५० में भारत ने जिस संविधान को स्वीकार किया है उस सिद्धांत के अनुरूप ही सरकार चल सकती है.’

सामान्य जनता की एक खूबी है वह इतिहास को भूल जाती है. खुद जिसका हिस्सा थे ऐसे निकट भूतकाल की घटनाओं को भी लोग विस्मृत कर देते हैं. उन्हें सिर्फ उतना ही याद रहता है जितना कि प्रचार माध्यमों की विकृत प्रतिध्वनियां उनके कान में बजाई जाती हैं. आपको पसंद हो या नहीं, वामपंथी और सेकुलरवादियों के पास १९९२ में दमदार प्रचार माध्यम थे.

१६ दिसंबर १९९२ के दिन मजा आई. हिंदुओं की धार्मिक भावना को रोज पैरों तले कुचलनेवाले दैनिक ने तय किया कि आज मुस्लिमों को प्यार से फटकार लगाई जाय. इसीलिए सौम्य भाषा में आलोचना की गई:

`बांग्लादेशी शरणार्थी के रूप में आए मुस्लिम भी वर्तमान परिस्थिति के लिए जिम्मेदार हैं और हिंदू-मुस्लिमों को भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत का वारिस बनकर घुलमिल कर रहना चाहिए इत्यादि इत्यादि….’

लेकिन इस हल्की आलोचना से भी विख्यात मुस्लिम सांप्रदायिक और धर्मांध सैयद शहाबुद्दीन का खून खौल उठा. (२०१७ में उनका निधन हो गया. २०१२ में सी.एम. नरेंद्र मोदी को संबोधित करते हुए सार्वजनिक धिक्कारपत्र लिखने के लिए उनकी कडी आलोचना हुई थी. कॉलेज के जमाने में वे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की युवा शाखा के साथ जुडे थे. उसके बाद पंडित नेहरू के रहमोकरम से सरकार में शामिल हुए. लोकसभा में भी चुनकर गए.)

सैयद शहाबुद्दीन ने हल्की आलोचना के जवाब में मुंहतोड शब्दों में उस सेकुलर संपादक की खबर ली:`बाबरी टूटने से भी अधिक दु:ख आपका यह लेख पढकर मुझे हुआ है…भारतीय मुसलमान किसी भी समय कॉमन सिविल कोड को स्वीकार नहीं करेंगे. ऐसा कानून शरीयत के खिलाफ है.’

थपकी के जवाब में थप्पड खाने के बाद सेकुलर संपादक मुसलामों का नाम तक लेना भूल गए. इतना ही नहीं, सैयद शहाबुद्दीन से मानो माफी मांगी जा रही है, ऐसी भाषा में इस सेकुलर संपादक ने २ जनवरी १९९३ को लिखा:`बाबरी मस्जिद टूटने के कारण मुसलमानों की भावनाएँ आहत होना स्वाभाविक है.’

ऐसे अनगिनत कांड सेकुलर मीडिया ने ६ दिसंबर १९९२ के बाद किए हैं, लेकिन इतना तो तय है कि बाबरी टूटने का बद देश का एक सामान्य हिंदू समझ गया कि सेकुलर मीडिया और वामपंथी इस देश का भला नहीं करेंगे. उनकी यह राय उस समय शतप्रतिशत सही साबित हुई जब २७ फरवरी २००२ के गोधरा हिंदू हत्याकांड के बाद के दिनों में सेकुलर मीडिया तथा वामपंथी आतंकवादियों ने मिलकर गुजरात तथा देश की छवि की भयानक दुर्दशा की. शेष कल.

आज का विचार

हर आदमी अपनी जीभ के पीछे छिपा होता है. अगर उसे समझना हो तो उसे बोलने दो.

– वॉट्सएप पर पढा हुआ

एक मिनट!

ग्राहक: पटाखे बेचते हैं?

दुकानदार: हां, बोलिए क्या क्या दूं?

ग्राहक: उपयोग में नहीं आए तो ११ दिसंबर के बाद वापस लेंगे क्या?

दुकानदार: कांग्रेस पार्टी की ऑफिस से आए हैं?

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