गाइड: अंतिम अध्याय

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, सोमवार – २२ अक्टूबर २०१८)

राजू के आसपास जुट रही लोगों की संख्या अब हजारों में तब्दील हो चुकी थी. लेकिन राजू को अपने आसपास की दुनिया की कुछ नहीं पडी थी. देश के इस हिस्से में आज तक कभी इतना जनसैलाब नहीं उमडा. हर कोई बारिश के लिए उपवास पर बैठे स्वामी के दर्शन करना चाहता था. लोग हार्मोनियम और तबले की संगत में भजन गा रहे थे.

ग्यारहवें दिन की रात में हर किसी ने जागरण किया. बारहवें दिन की भोर में साढे पांच बजे सरकारी डॉक्टरों ने राजू की जांच करके अपना हस्ताक्षर करके हेड क्वार्टर्स में अर्जेंट टेलीग्राम भेजा: `स्वामी की तबीयत गंभीर है. ग्लूकोज और सलाइन लेने से मना कर रहे हैं. तत्काल उपवास छुडवाने की जरूरत है. कृपया सलाह दें.’

इस तार का सरकार की ओर से घंटे भर में ही जवाब आ गया: स्वामी को बचाना अत्यंत जरूरी है. उन्हें सहयोग करने के लिए समझाइए. जान को जोखिम में न डालें. ग्लूकोज और सलाइन चढाने की कोशिश कीजिए. समझाइए कि उपवास कुछ दिन बाद फिर शुरू कीजिएगा, अभी आहार ले लीजिए.

डॉक्टरों ने स्वामी को समझाने का काम भोला को सौंपा. भोला स्वामी के पास जाकर धीमे स्वर में बोला,`डॉक्टर कह रहे हैं कि….’

जवाब में राजू ने भोला को और करीब बुलाकर कहा,`मुझे खडे होना है, थोडी मदद करो…’

भोला ने अन्य लोगों की सहायता से किसी तरह राजू को खडा किया. राजू का संतुलन बिगड रहा था. लेकिन वह हर दिन की तरह आज भी नदी का पास गड्ढे में खडे होकर वरुण देवता से प्रार्थना करना चाहता था. धीमे कदमों से राजू आगे बढा. हर कोई उसके पीछे चल पडा. पूर्व दिशा में आकाश में लालिमा उभर रही थी. राजू नहीं चल सकता था. उसकी सांस फूल रही थी. फिर भी वह एक के बाद एक कदम आगे बढाता जा रहा था. नदी किनारे पहुंचकर उसने एक गड्ढे में पैर रखे. उसके होठों पर प्रार्थना के शब्द बुदबुदाने लगे. भोला और एक अन्य व्यक्ति ने उसे पकड रखा था. सूर्य के प्रकाश का तेज सारे आकाश को प्रकाशित कर रहा था. राजू के पांव जवाब दे रहे थे. उसे पकडे रखना कठिन हो गया था. वह लुढकने की तैयारी में था. वह धीमी आवाज में बोला,`भोला, पहाडी पर बारिश हो रही है. इस तरफ आ रही है, मेरे पांव भीग रहे हैं…’ राजू फिसल कर नीचे गिर पडा.

***

मित्रो, आर.के. नारायण का उपन्यास `गाइड’ यहीं खत्म हो जाता है. आपने ध्यान दिया होगा कि फिल्म का अंत और उपन्यास का अंत अलग अलग हैं. उपन्यास में लेखक ने आपकी कल्पना पर अंत को छोड दिया है. पाठक सोच सकता है कि बारिश हुई होगी, नहीं भी हुई होगी. पाठक सोच सकता है कि राजू की मृत्यु हो गई होगी, नहीं भी हुई होगी.

फिल्म का अंत निश्चित है. बारिश होती है. राजू की मृत्यु हो जाती है. फिल्म मे रोजी तथा राजू की मां राजू के उपवास का समाचार सुनकर मिलने पहुंच जाते हैं, गफूर भी आ जाता है. उपन्यास में उपवास के समय राजू से मिलने न तो रोजी मिलने आती है, न राजू की मां. खुद राजू को रोजी या मां की याद तक नहीं आती.

फिल्म के अंत का अपना मजा है. मरने से पहले एक आखिरी बार अगर हीरो हिरोइन से मिल ले तो दर्शक के नाते हमें भी संतोष होता है. माता अपने बिछडे हुए बेटे को देख ले तो हमें अच्छा लगता है. उपवास करनेवाले बेटे की सेवा करनेवाली मां को संबोधित करते हुए देव आनंद अपने लहजे में जब कहते हैं,`मां आआआ…सेवा तो मुझे तुम्हारी करनी चाहिए. जाओ, जा कर सो जाओ.’ तब आपकी आंखें जरूर भीग जाएंगी.

लेकिन ओरिजिनल उपन्यास का अंत वास्तविक है. जिस रोजी के प्यार के कारण राजू ने बनावटी हस्ताक्षर किया था वह रोजी जेल में दो साल के दौरान एक बार भी मिलने नहीं आई. अपने शोज करके अधिक से अधिक प्रसिद्धि और धन पाती रही. जिसने उसे रोजी से मिस नलिनी बनाया उसे जेल में छोडकर अपनी जिंदगी में आकंठ डूब गई. क्या ऐसे व्यक्ति को कोई अपनी जिंदगी में दोबारा लाना चाहेगा? बिलकुल नहीं. उसे भूल जाना चाहिए. सभी मां भी बेटे के अरमानों का साथ देने के बजाय रोजी के साथ उसके जीवन बिताते समय आ रही समस्याओं के बीच बेटे के साथ रहने के बजाय मामा के घर चली जाती है और जेल के दुर्भाग्यपूर्ण दिनों में अपने सगे बेटे को भूल जाए ऐसी मां की याद भी राजू को नहीं आना स्वाभाविक है, फिर चाहे वह मां कितनी ममता-दया क्यों न रखती हो.

मित्रों, इस लंबी श्रृंखला में आपने ध्यान दिया होगा कि जो बातें फिल्म में नहीं हैं वे सारी बातें उपन्यास से चुन चुन कर उन्हें एकसूत्र में पिरोकर आपके सामने रखने की जहमत की है. पिक्चर में कर्स बातें शामिल की गई हैं, बदली भी गई हैं. इसके बावजूद उपन्यास का सेंट्रल थीम बरकरार है. एक महान उपन्यास के आधार पर महान फिल्म बनाने का हुनर सीखने के लिए `गाइड’ उपयोगी है. उपन्यासकार आर.के. नारायण और निर्देशक-पटकथा लेखक, संवाद लेखक विजय आनंद – दोनों ही महानुभावों ने गाइड में अपनी सारी जान लगा दी है. उपन्यासकार ने अपने सृजनात्मक एकांत में जो गजब की सृष्टि रची उसे परदे पर उतारने के लिए कई नामी-अनामी लोगों ने दिन रात मेहनत की. देव आनंद ने प्रोड्यूसर और हीरो के रूप में, तथा वहीदा रहमान ने अभिनय और नृत्य द्वारा रोजी के पात्र को जीवंत कर दिया है, किशोर साहू जैसे मंजे हुए कलाकार ने मार्को की भूमिका निभाकर इस फिल्म को यादगार बनाया है. और `गाइड’ को यादगार बनाया है गीतकार शैलेंद्र तथा एस.डी. बर्मन की जोडी ने जिन्होंने इस फिल्म के लिए न भूतो, न भविष्यति गीत रचे हैं. इन सदाबहार गीतों को यदि फिल्म से हटा लिया जाए तो `गाइड’ के आधा चार्म खत्म हो जाएगा. इसीलिए, इतनी लंबी श्रृंखला के बाद कम से कम एक लेख तो लिखना ही पडेगा- गाइड के गीतों के बारे में. रविवार को `संडे मॉर्निंग’ में गाइड के कभी न भुलाए जा सकनेवाले हर गीत के बारे में बात करके इस श्रृंखला को समाप्त करेंगे.

आज का विचार

दिवाली के रॉकेट देखकर पता चला कि जीवन में ऊंचा उठना हो तो बॉटल के बिना संभव नहीं है…

— भर, तू गिलास भर.

– वॉट्सएप पर पढा हुआ

एक मिनट!

पप्पू: मैं जब पैदा हुआ था तो मिलट्री वालों ने इक्कीस तोपें चलाई थीं.

सुरजेवाला: कमाल है, मालिक!

सबका निशाना चूक गया!

1 COMMENT

  1. Enjoyed the article. Very nicely written. Guide film will remain as memorable history. A perfect coordination of all artists. Awaiting for songs description.

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