उन्होंने गोल टोपी नहीं पहनी तो नहीं पहनी

गुड मॉर्निंग-सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, शुक्रवार, १४ दिसंबर २०१८)

१९९२ में बाबरी टूटने के करीब १० वर्ष बाद गोधारा की घटना हुई. बिना किसी कारण, किसी उकसावे के बिना २७ फरवरी की सुबह गोधरा स्टेशन पर खडी साबरमती एक्सप्रेस के एस-६ और एस ७ डिब्बों में यात्रा कर रहे ५९ हिंदू कारसेवकों को जीवित जला दिया गया. राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकारों ने मनगढंत थियरी गढी कि चाय पानी नाश्ते का बिल देने के झगडे के कारण यह घटना हुई. किसी ने कहा कि गोधरा प्लेटफॉर्म से किसी मुस्लिम टीनेजर को उठाकर हिंदू कारसेवक डिब्बे में ले गए और उस गैंग रेप किया जिसके कारण उत्तेजित हुए मुसलमानों ने उन लोगों को जीवित जला दिया.

जिस तरह से ये घटना हुई उसे देखते हुए प्रथम दृष्ट्या यही ध्यान में आ रहा था कि यह पूर्वनियोजित घटना थी. उस समय मैं एक दैनिक में संपादक के नाते काम कर रहा था और यह समाचार आते ही मैने अपने फोटोग्राफर तथा दो रिपोर्टर्स (एक हिंदू, एक मुस्लिम) को जैसे थे उसी स्थिति में सीधे स्टेशन जाकर ट्रेन पकडकर गोधरा रवाना कर दिया. शाम तक उनकी ओर से फर्स्ट हैंड रिपोर्ट आनी शुरू हो गई. जान जोखिम में डालकर प्राप्त की गई आँखों देखी रिपोर्ट का केंद्रीय तथ्य यह था कि ये पूर्वनियाजित षड्यंत्र था. मैने उन रिपोटर्स के साथ ही अपना एक अलग से लेख छापना शुरू किया लेकिन सेकुलर मीडिया उस घटना को रफदफा कर देना चाहती थी. किसी ने भी इस घटना की आलोचना तक करना मुनासिब नहीं समझा. लेकिन जैसे ही इस घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप सांप्रदायिक तनाव के कारण वडोदरा में एक मुस्लिम की हत्या की घटना हुई कि तुरंत ही २८ फरवरी को सेकुलर लोग हिंदुओं के पीछे हाथ धोकर पड गए. उसके बाद का सप्ताह गुजरात के कई इलाकों के लिए काफी तनावपूर्ण रहा. पहले दस दिन के बाद रोज इक्का दुक्का घटना हो रही थी जिसमें दो-पांच मामले हत्या के हो रहे थे और क्रमश: उनमें भी कमी आई. मार्च खत्म होने से पहले परिस्थिति पूरी तरह से नियंत्रण में आ गई. कुल मिलाकर करीब १,००० लोगों की इन दंगों में मौत हो गई जिसमें से सारे ही मुस्लिम नहीं थे. तकरीबन ४० प्रतिशत हिंदू भी थे. दंगे एकतरफा बिलकुल नहीं थे. जानमालका नुकसान दोनों पक्षों को हुआ था. मारे गए कुल १,००० नागरिकों में से करीब ३०० लोगों की मौत पुलिस की गोलीबारी में हुई थी और इन तीन सौ में हिंदू मुस्लिम बराबर संख्या में थे. पुलिस केवल मुसलमानों को टार्गेट नहीं कर रही थी.

लेकिन वामपंथी मीडिया ने बिलकुल उल्टा चित्र बनाया. सारे गुजरात में दंगे हो रहे हैं, उनका ये कहना बिलकुल झूठ था. मुस्लिमों का उन्मूलन किया किया जा रहा है ऐसा कहना बिलकुल झूठ था. सरकार कुछ नहीं कर रही है, पुलिसों द्वारा मुसलमानों का कत्ल किया जा रहा है, पुलिस हिंदुओं को कुछ नहीं कर रही है,ऐसा शोर मचाया गया जिसमें सबसे ज्यादा चिल्लानेवाली तीस्ता सेटलवाड सहित कई एनजीओ की बहनजियॉं थीं जिनका नाम लेने से हिंदूवादी भी डरते थे. एक यूटर्न मारनेवाले हिंदूवादी ने तो सार्वजनिक तौर पर दोनों हाथ जोडकर माफी भी छापी थी. राजदीप, बरखा, तीस्ता, शेखर और अन्य कई हिंदू विरोधी सेकुलरवादियों का नाम देकर उनके कुकर्मों को मैं अपने लेखों में उजागर कर रह था. इस कारण से मैं ‘हिंदू सांप्रदायिक’ के रूप में चित्रित कर दिया गया जिसका मुझे लेशमात्र भी गम नहीं था. असल मैंने इन सभी और कई पुराने लेखों का संग्रह करके प्रकाशित की गई एक पुस्तक की प्रस्तावना के अंत में कुछ इसी आशय की बात भी लिखी है: हां, मैं सांप्रदायिक हूँ. यदि कोई अपने राष्ट्र का पक्ष लेता है और उसे राष्ट्रवादी कहा जाता है तब उसे जिस प्रकार से गौरव का अनुभव होता है उसी प्रकार से जब मैं अपने धर्म का पक्ष लेता हूँ तो मुझे सांप्रदायिक कहा जाता है जिसका मुझे गर्व है.

मेरी यह प्रस्तावना यूटर्न वाले उस हिंदूवादी इस कदर जोर की लगी कि मेरी पुस्तक प्रकाशितहोने के दो-चार साल बाद उन्होंने अपने एक लेख में (और वह लेख अपनी पुस्तक में छपा तब भी) लिखा कि ‘मैं (यानी वह) सांप्रदायिक हूँ.’ कहीं भी ओरिजिनल सोर्स का उल्लेख नहीं किया गया!

गोधरा हिंदू हत्याकांड के बाद हुए दंगों के दौरान सेकुलरों की जाति बिलकुल नग्न हो गई. भारतीय जनता ने देख लिया कि ये वामपंथी कितने जुनूनी हैं और भारत की हिंदू संस्कृति को तहस-नहस करने के लिए वे क्या क्या नहीं करेंगे. गोधरा हिंदू हत्याकांड के बाद हुए दंगों के दौरान वामपंथी सेकुलरों ने जिस प्रकार से गुजराती जनता पर, हिंदुओं पर और इन पर्टिकुलर सी.एम. नरेंद्र मोदी पर जो ठीकरा फोडा उसके कारण कुछ पल के लिए लगता था कि सेकुलरों का राज अब स्थायी हो जाएगा. २००४ के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सत्ता गंवा दी. २००९ में भी सोनिया सरकार ही चुनकर आई. वह हताशा का दशक था. लेकिन फ्रस्ट्रेशन के उन दस वर्षों के दौरान वह छिपी हुई चिंगारी जलती ही रही. कांग्रेस का बनावटी मुस्लिम प्रेम बारबार उजागर होता रहा. सच्चर कमिटी की सिफारिशों के समय प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने जब कहा कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है तब तो अति ही हो गई. इसके विपरीत गुजरात के सीएम के रूप में मुसलमानों का प्यार जीतने के लिए सद्भावना यात्रा पर निकले नरेंद्र मोदी ने मंच पर, सार्वजनिक तौर पर और टीवी कैमरों के सामने जब उन्होंने जालीदार गोल टोपी पहनाने का प्रयास करने वाले बडे मुस्लिम नेताओं को मना कर दिया. ऐसा करने का साहस अभी तक किसी ने नहीं किया था. कांग्रेसी नेता या मुलायम तथा लागू जैसे नेता अपनी जेब में ऐसी हरी-सफेद टोपियां लेकर घूमा करते थे और मौका मिलने पर इफ्तार पार्टियों में घुस कर टोपीवाली तस्वीरें खिंचवाते थे. वाजपेयी ने भी २००४ के चुनावी प्रवाह में कमजोर होकर भाजपा की सत्ता बचाने के लिए हरी टोपी पहनकर फोटो खिंचाया था. सी.एम. मोदी की खूब आलोचना हुई थी. लेकिन उसके जवाब में उन्होंने साबित कर दिखाया कि २००२ के बाद से लेकर २०१४ तक (और आज भी) गुजरात मुसलमानों के लिए बिलकुल सुरक्षित रहा है. अजीम प्रेमजी से लेकर रतन टाटा तक जैसे दिग्गजों ने खुलकर २००२ के बाद मोदी की आलोचना की थी, वही उद्यागपति अब मोदी के राज में हजारों करोड रूपए के निवेश करने के लिए लाइन में खडे हैं. ऐसा प्रभाव गुजरात ने, गुजरात की जनता ने और सिंह सी छाती रखनेवाले गुजराती की जनता के नेता मोदी ने जमाया.

लेकिन सेकुलरों ने अब भी गुजरात का पीछा नहीं छोडा. टीवी डिबेट्स में तथा अंग्रेजी अखबारों की हेडलाइन्स में गुजरात अब भी पिछडा, सांप्रदायिक मानसिकतावाला और केवल प्रचार के दम पर उज्ज्वल बनने वाला राज्य था.

चाणक्य बुद्धि से भी चार कदम आगे लगनेवाले मोदी ने २०१४ के लोकसभा चुनाव के लिए सबसे पहले भाजपा के प्रधान मंत्री के उम्मीदवार के नाते जब अपना नाम लाने का निश्‍चय किया तब उनके समर्थक भी चौंक गए. क्या मोदी सचमुच राष्ट्रीय स्तर पर काम करने में सक्षम हैं? २०१४ में भाजपा को चुनाव जिताकर अधिकारपूर्वक प्रधानमंत्री बने मोदी ने साबित कर दिया कि कल तक केशूभाई पटेल और शंकर सिंह वाघेला के साथ उठना बैठना करनेवाले का असली टिंबर तो डोनाल्ड ट्रंप और चीन, जापान, फ्रांस, ब्रिटेन, सउदी अरब के राष्ट्र प्रमुखों के साथ उठना बैठना करने वाला है.

२०१४ में मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद हिंदूवादी खुलकर सेकुलरों के सामने आ गए. सोशल मीडिया पर २०१० से २०१३ के वर्षों में जिन सेकुलरों का जोर चलता था, वे अब शिकायत करने लगे कि ‘मोदी भक्तों’ ने सोशल मीडिया को हाईजैक कर लिया है.

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