`द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’: बेहतरीन थ्रिलर जैसी सत्य कथा

गुड मॉर्निंग- सौरभ शाह

(मुंबई समाचार, सोमवार – २८ जनवरी २०१९)

भारत ही नहीं हॉलिवूड में भी ऐसी फिल्में बहुत ही कम बनती हैं जिन्हें पहली फ्रेम से ही सांस रोककर देखना पडता है. पत्रकार संजय बारू की बहुचर्चित पुस्तक `द एक्स्डिेंटल प्राइम मिनिस्टर’ पर आधारित फिल्म ऐसी बनी है जिसे एक ही सांस में देखना पडता है.

सच कहूं, ये फिल्म बिलकुल घटिया है, बोरिंग है और फिल्म में कोई दम नहीं है, जैसे प्रचार को सुनकर मेरा मन भी ये फिल्म देखने को नहीं कर रहा था. इस फिल्म के विरोध में चारों तरफ ऐसा अपप्रचार इस फिल्म के रिलीज होने से पहले और रिलीज होने के बाद हुआ कि मैं भी भ्रमित हो गया. अन्यथा मेरे लिए माननीय रहे राजीव मसंद और अनुपमा चोपडा जैसे फिल्म समीक्षकों ने भी फिल्म को वन या वन एंड हाफ स्टार देकर उसकी आलोचना की है. अन्य कई सेकुलर पंडितों और वामपंथी विदूषकों ने फिल्म को गालियां दी हैं, हास्यास्पद माना है. अपप्रचार तो इतना जोरदार था कि मुझे लगने लगा कि ये फिल्म देखने जा रहा हूँ या ये फिल्म मैने देखी है, अगर मैं ऐसा कहूंगा तो लोग हमारी गिनती मूर्खों में करने लगेंगे. अंतत: जब फिल्म देखने का निश्चय किया तब मन में था कि सेकुलरबाज जिस तरह कई कमजोर किंतु भारत का खराब चित्रण करनेवाली फिल्मों का रिव्यू करते समय `गुणग्राही’ बन जाते हैं और फिल्म निंदनीय होने के बावजूद बिलकुल मामूली बातों को आगे करके फिल्म को सिर पर बिठा लेते हैं, बस उसी तरह से हम भी इस एंटी-कांग्रेस लगनेवाली फिल्म को `गुणग्राही’ बनकर देखेंगे और फिल्म चाहे कितनी ही घटिया क्यों न हो, उसमें दो-चार अच्छी बातें तो होंगी ही, उसे बढा-चढाकर बताएंगे!

लेकिन आश्चर्य (और उससे भी अधिक खुशी) की बात है कि फिल्म में मुझे एक सेकंड के लिए भी ऊबन नहीं हुई, बल्कि उसके हर सीन में जिस स्पष्टता, प्रमाणिकता, और निर्भीकता से घटनाओं को बयां किया गया है उसे देखकर आपको एक बेजोड थ्रिलर देखने जैसा रोमांच का अनुभव होगा.

हिंदी फिल्म जगत कितना एडवांस हो रहा है, इस बात का एक और प्रमाण है `द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’. फिल्म में न किसी हिरोइन के साथ रोमांस है, न गीत, न कॉमेडी ट्रैक. ऐसे देखा जाए तो अत्यंत शुष्क और रूखे विषय पर ये फिल्म बनी है. बावजूद इसके इसमें थ्रिलर जैसा फील है.

पत्रकार संजय बारू प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार थे. अपने अनुभव के आधार पर जो पुस्तक उन्होंने लिखी है, उसी के आधार पर ये फिल्म बनी है. देश के पीएम के साथ काम करने के बाद अपने अनुभवों के बारे में पुस्तक लिखने के लिए कितना ध्यान रखना पडेगा इसकी कल्पना आप कर सकते हैं. ऐसी ही सतर्कता इस पुस्तक के आधार पर फिल्म बनाने में भी बरतनी पडी है. अन्यथा न सिर्फ आपकी विश्वसनीयता खत्म हो जाएगी, बल्कि आप देश के सर्वोच्च लोकतांत्रिक पद की (राष्ट्रपति के अलावा) गरिमा को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं. संजय बारू की पुस्तक २०१४ में प्रकाशित हुई थी. अभी तक किसी ने भी इस पुस्तक पर मानहानि का दावा नहीं किया है, पुस्तक पर प्रतिबंध नहीं लगा है. यानी फिल्म में जो कुछ भी है, वह संपूर्ण सत्य है, और अगर ये कडवा सच किसी को नहीं पचता है तो यह उनके पाचनतंत्र की समस्या है.

२००४ में कांग्रेस और उसके साथी दल (लालू, अमर सिंह, सीताराम येचुरी इत्यादि मौकापरस्त पक्ष) चुनकर आते हैं और सोनिया गांधी का बरसों पुराना प्रधान मंत्री बनने का सपना साकार होने की तैयारी में है. पंडित नेहरू के निधन के बाद उनकी पुत्री प्रधान मंत्री बनती हैं और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके पुत्र प्रधान मंत्री बनते हैं, उसी प्रकार से राजीव गांधी की हत्या के बाद उनकी विधवा के रूप में खुद को ही प्रधान मंत्री बनने का अधिकार है, ऐसा माननेवाली इटालियन सन्नारी की ताजपोशी होने से पहले देश भर में उनके खिलाफ किस तरह की लहर उठी थी, इसके हम सभी साक्षी हैं. २००४ की उसी घटना से फिल्म शुरू होती है. सोनिया माता ने `प्रधान मंत्री पद का त्याग’ किया और कठपुतली सरकार बनाने का निर्णय किया. काबिल और अनुभवी, किंतु स्वतंत्र मिजाज के प्रणवकुमार मुखर्जी प्रधान मंत्री पद के लिए सही उम्मीदवार थे. लेकिन यही उनकी कमजोरी थी. सोनिया के लिए स्वतंत्र मिजाज वाली कठपुतली को झेल पाना संभव नहीं था. ताज डॉ. मनमोहन सिंह के सिर पर रखा गया. रिजर्व बैंक के गवर्नर के नाते काम कर चुके प्रधान मंत्री की लगाम अपने हाथ में रखने के लिए सोनिया ने नेशनल एड्वाइजरी काउंसिल की रचना की और खुद उसकी सर्वेसर्वा बन बैठीं.

खेल अब शुरू होता है. ऑल सेड एंड डन, मनमोहन सिंह प्रामाणिक, देश के प्रति समर्पित और अंतरात्मा की आवाज का आदर करनेवाले नेता हैं. सोनिया-अहमद पटेल की मिलीभगत मनमोहन सिंह पर फ्रॉम डे वन कंट्रोल में रखना चाहती थी. `द एक्सिडेंटल प्राइम मिस्टिर’ की खूबी यही है कि भूतपूर्व प्रधान मंत्री के गौरव को संभालते हुए, उनके पद की गरिमा को सहेजते हुए और उसे तनिक भी खरोंच न लगने पाए इस प्रकार से सोनिया- अहमद पटेल कर शकुनी नीतियों को उजागर करती है. मनमोहन सिंह उडीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक को स्पेशल पैकेज देने से स्पष्ट इनकार कर देते हैं और कहते हैं कि पैसे कोई पेड पर नहीं उगते. न्यूक्लियर डील के समय यूएस प्रेसिडेंट बुश के साथ मिलकर, देश हित में होने जा रहे समझौते के खिलाफ वामपंथी अराजक तत्व जब होहल्ला मचाते हैं तब मनमोहन सिंह टस से मस नहीं होते. फिल्म में नाम देकर कहा गया है कि चेन्नई से प्रकाशित `द हिंदू’ नामक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक के प्रकाशक-संपादक एन. राम की भारत के साम्यवादी नेताओं के साथ मिलीभगत है. अभी के तेलंगाना के मुख्य मंत्री के. चंद्रशेखर राव उस समय (जब आंध्रप्रदेश का विभाजन नहीं हुआ था तब) प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से पर्सनली मिले तब चंद्रशेखर ने मीडिया के सामने शेखी बघारते हुए कहा था कि `पी.एम. के साथ तेलंगाना के मसले पर भी चर्चा हुई.’ पी.एम. के मीडिया सलाहकार के रूप में संजय बारू ने तुरंत स्पष्टीकरण जारी किया कि ऐसी कोई चर्चा नहीं हुई है. चंद्रशेखर राव का झूठ पकडा गया, उन्हें शर्मिंदा होना पडा. आहत हुए इस तेलुगू नेता ने अहमद पटेल से शिकायत की और अहमद पटेल ने संजय बारू को सलाह दी कि आप चंद्रशेखर से माफी मांग लीजिए, आफ्टर ऑल वे कांग्रेस के साथी दल के नेता हैं और पॉलिटिक्स में थोडा बहुत नजरअंदाज करना पडता है.

संजय बारू ने अहमद पटेल को जवाब दिया: मैं राजीतिक नहीं हूं, पत्रकार हूं और पत्रकारिता में समझौता नहीं, जिद्द होती है, अडिगता होती है.

सोनिया से त्रस्त होकर कम से कम दो बार मनमोहन सिंह ने उन्हें त्यागपत्र सौंप दिया था, जिसका उल्लेख इस फिल्म में है. दूसरी बार जब इस्तीफा रखा तब कांग्रेस सरकार घोटालों से बजबजा रही थी. टू-जी और कॉमनवेल्थ घोटालों से तथा कोल-गेट से परेशान थी. ऐसी स्थिति में मनमोहन सिंह से प्रधान मंत्री पद छीनकर राहुल को नहीं सौंपा जा सकता, इसी कारणवश उनका इस्तीफा मंजूर नहीं किया गया.

फिल्म में जो कुछ भी है वह हिमशिला का दसवां भाग है. कांग्रेस की करप्ट और देश विरोधी रीति-नीति का शेष ९० प्रतिशत पानी के नीचे है, जो अभी तक किसी को नहीं दिखा है. ऐसे अन्य कई संजय बारू जब सामने आएंगे तब ये सच्चाइयां प्रमाणों के साथ बाहर आएंगी.

इस फिल्म को मोदी समर्थकों को देखने की जरूरत नहीं है. कांग्रेस समर्थकों को खासकर ये फिल्म देखनी चाहिए. मुझे विश्वास है कि फिल्म देखने के बाद वे हरिद्वार जाकर गंगा में डुबकी लगाकर अपने पाप धोकर प्रायश्चित अवश्य करेंगे.

आज का विचार

२०१९ के चुनाव के बाद शोले का कौन सा डायलॉग बोला जा रहा होगा: कितने आदमी थे?

वो दो (मोदी और अमित शाह) और तुम बाइस….फिर भी हार गए!

एक मिनट!

पका: २०१४ का चुनाव ईवीएम हैक करके जीता गया था, क्या ये बात सच है बका?

बका: पहले बस कंडक्टर की टिकट मशीन को हैक करके एक टिकट तो निकाल कर दिखाओ, फिर ईवीएम की बात करो!

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